सहरिया जनजाति की गौरव गाथा

1765

ग्वालियर-चंबल अंचल में रहने वाली बहुसंख्यक जनजाति ‘सहरिया’ की गौरव एवं शौर्य गाथाओं का उल्लेख स्वतंत्रता संग्राम के संदर्भ में अपवादस्वरूप ही होता है। लेकिन इतिहास सम्मत तथ्य है कि जब झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने झांसी से निकलकर शिवपुरी जिले के गोपालपुर जागीर में पड़ाव डाला था, तब उन्होंने इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में रहने वाली सहरिया जनजाति को संगठित कर अंग्रेजों के विरुद्ध खड़ा करने का अह्म कार्य किया था। रानी यहां के जागीदार रघुनाथ सिंह वशिष्ठ के बुलावे पर काल्पी की हार के बाद गोपालपुर आई थीं। उनके साथ राव साहब, तत्या टोपे और बांदा के नवाब अली बहादुर भी थे। इस दौरान रानी की पहलकदमी खांदी और गोंदोली में भी थी। अंग्रेजों से मुक्ति की मतवाली रानी की इस क्षेत्र की सौंधी मिट्टी में उपस्थिति और स्थानीय लोगों में लड़ाई की आग फूंकने से संबंधित लोक गीत आज भी ओंठों पर अनायास फूट पड़ता है-

मिट्टी और पत्थर से

उसने अपनी सेना गढ़ी।

केवल लकड़ियों से उसने तलवारें बनाई।

पहाड़ को उसने घोड़े का रूप दिया,

और रानी ग्वालियर की ओर बढ़ी।

बताते हैं कि रानी ने अपने नेतृत्व कौशल से इस क्षेत्र में दो हजार नए सैनिकों में सैन्य क्षमताएं गढ़ दी थीं। इसी सैन्य बल के आधार पर रानी ने ग्वालियर किले को फतह कर लिया था।

सहरिया जनजाति के संदर्भ में आम धारणा यह है कि ब्रह्मा ने सृष्टि का सृजन करते समय मनुष्य की जो प्रजातियां उत्पन्न कीं, उन्हें जिस प्रकृति में ढाला, उसके अनुसार उनके आहार और आवास के स्थान भी सुनिश्चित किए। एक जनश्रुति के अनुसार सबसे पहले मानव-प्रजाति के रूप में सहरिया का सृजन किया। उसका स्थान चिन्हित कर उसे एक पत्थर के बड़े पाट पर केंद्र में बिठा दिया। तत्पश्चात ब्रह्मा ने अन्य मानव-प्रजातियों का सृजन किया। उन्हें भी एक-एक कर उसी पाट के रिक्त स्थान पर बिठाते गए। ये लोग थोड़े चालाक और वाचाल थे, इसलिए पाट के नाभि-स्थल पर बैठे सहरिया की ओर खिसकने लगे। जब सहरिया के निकट आ गए तो उसे कुहनियों से धकियाने लगे। बेचारा, सीधा-सच्चा तथा भोला-भाला सहरिया पाट के किनारे अर्थात हाशिए पर पहुंच गया। जब ब्रह्मा सब प्रजातियाों का सृजन कर चुके तो पाट के निकट प्रगट हुए। ब्रह्मा ने पाट के किनारे पर बैठे सहरिया से प्रश्न किया, ‘तुझे मैंने बीच में बिठाया था, फिर तू किनारे पर क्यों आ गया ?’ अन्य मानव-प्रजातियों से भयभीत सा दिखने वाले सहरिया ने कोई उत्तर नहीं दिया। मूक बैठा मासूम सा बस ब्रह्मा को निहारता रहा। तब ब्रह्मा नाराज हुए और एक तरह से सहरिया को जैसे श्राप ही दे दिया, ‘तू अन्य मानव-समुदायों के साथ रहने लायक नहीं है, इसलिए अन्य समुदायों से अलग-थलग रहते हुए वनों में भटकता रहेगा।’

दंतकथाएं कब और किसके द्वारा लिखी गईं, यह अज्ञात है, लेकिन इन कथाओं का जो कथ्य है, वह मनुष्य प्रजातियों के नैसर्गिक-स्वभाव और लोक-व्यवहार में इतना सटीक है कि उसे झुठलाया नहीं जा सकता है। सहरिया आदिवासियों के मूल-स्वभाव से खिसकते जाने की जो प्रवृत्ति इस कथा में है, वह आज भी यथार्थ है। बांधों के निर्माण, अभ्यारण्यों के सरंक्षण, राजमार्गों के चैड़ीकरण, नगरों के विस्तार व आधुनीकिकरण और औद्योगिकरण का सबसे ज्यादा दंश इन्हीं आदिवासी समुदायों को झेलना पड़ा है। जबकि ‘सहरिया’ जो शब्द है, उसका संधि-विच्छेद किया जाए तो इस शब्द का निर्माण दो स्वतंत्र शब्दों के रूप में हुआ है। ‘स’ यानी साथी और ‘हरिया’ अर्थात बाघ। इसका अर्थ हुआ ‘बाघ के साथ रहने वाला मनुष्य’। मानव-जातियों की व्युत्पत्ति संबंधी दृष्किोण भी यह कहता है। कनिघंम ने सहरियाओं को सौर या सेहरा माना है। कनिंघम ने ‘सौर’ ‘सेहरा’ या ‘सवर’ माना है। कनिंघम ने ‘सवर’ का सजातीय शब्द ‘सीथियन’ माना है, जिसका अर्थ कुल्हाड़ी होता है। संस्कृत में ‘सवर’ या ‘सवरा’ का अर्थ ठोस या कठोर होता है, जो लोहा की तासीर से मेल खाता है। दरअसल सहरियाओं के साथ यह धरणा जुड़ी हुई है कि वे अपने पास हमेशा ‘कुल्हाड़ी’ रखते हैं। शब्द व्युत्पत्ति की दृष्टि से सहरिया का अर्थ श्ोर भी होता है। सूरदास के कूटपद में सहरिया का यही अर्थ लिया गया है।

सहरियाओं का संबंध ‘कोला’ से भी जोड़ा जाता है। कनिंघम ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण प्रतिवेदन में लिखा है कि मध्य-प्रदेश के सागर के निकट गौडों ने सौरों पर विजय प्राप्त की थी। सवर सामान्यतः स्थानीय रीति-रिवाजों का पालन करते हैं। आर.वी. रसेल व हीरालाल ने ‘द ट्राइब्ज एंड कस्ट्स आॅफ द सेंट्रल प्राविसेंस आॅफ इंडिया’ में सहरिओं को सवर, सवरा, सओंर, सहरा के साथ जौरिया और खूंटियां उप-शाखाओं की प्रस्तुति की है। वर्तमान में सहरिया जिन जिलों में भी रहते हैं, स्वयं को खूंटिया पटेल कहते हैं। खूटिया शब्द के साथ एक मिथक भी जुड़ा है। ईश्वर ने पृथ्वी की रचना करने के बाद पहला गांव बसाया। इस गांव के स्थल को चिन्हित करने के लिए जो खूंटा गाड़ा गया, उस खूंटे को गाड़ने वाला पहला व्यक्ति सहरिया ही था, तभी से सहरियावासी स्वयं को खूंटिया पटेल के रूप में संबोधित करते चले आ रहे हैं।

आर्य जाति के इतिहास के अनुसार सहरिया भारत के पहले कृषि संपन्न समुदायों में से हैं। कर्नल टॉड ने भी ‘टॉड राजस्थान’ में लिखा है कि बौद्ध धर्मशास्त्रों में सेहरा जनजाति का उल्लेख है। ‘सेहरा’ शब्द को भी सहरिया का ही पर्याय माना जाता है। ग्वालियर-चंबल अंचल में प्रचलित एक किंवदंती से पता चलता है कि इस क्षेत्र में एक ‘सेहरिआपा’ नाम का राजा था। जो चंबल और यमुना नदी के मैदानी इलाकों में असी ‘सेरा’ जनजाति का मुखिया था। बौद्ध कालखंड में चंबल और यमुना नदी के बीच के मैदानी क्षेत्र को ‘सेहरा’ नाम से जाना जाता था। इस कारण इस क्षेत्र में बसी जन-जातियों को सहरिया नाम से पुकारा जाने लगा था। कालांतर में जब इन क्षेत्रों में मुस्लिम आक्रांता कहर बन कर टूटे और उन्होंने लोगों को धर्मांतरण के लिए विवश किया तो ये लोग अपना मूल अस्तित्व व धार्मिक पहचान बचाए रखने की दृष्टि से पहाड़ों और बियावान जंगलों की ओर पलायन कर गए। पूर्व भोपाल रियासत में ‘सौसिया’  जन-जातियां रहती थीं, उन्हें भी सहरिया के समान माना गया है। एक समय ऐसी धारणा थी कि जो सहरिया हैं, वे द्रविडियन समूह से जुड़े हैं, पर अब ग्वालियर-चंबल क्षेत्र में आबाद सहरियों को कोल या कोलारियन जनजाति समुदाय मान लिया गया है। डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल ने ‘पाणिनी कालीन भारत’ पुस्तक में लिखा है कि जो व्यक्ति एक स्थान से हटकर जब दूसरी जगह बसता है, तब वह स्वयं पहले स्थान के नाम से पुकारा जाता है। उसकी संतानें भी उसी नाम को अपनी अस्मिता से जोड़े रखती हैं।

सहरिया समाज बुनियादी रूप में लापरवाह और मस्तमौला समाज है। आज इनके घर में खाने को है तो यह कल की कल की चिंता नहीं करता। उनका विचार, चिंतन और धर्म  इन सबके सरोकार जल, जंगल और जमीन से जुड़े हैं। इसलिए उसे इसी में रमने में रास आता है। कल के खाने की चिंता से आज बेफिक्र रहना, उसका वन और वनस्पतियों पर अवलंबन है, क्योंकि वन रोज ताजा खाने को फल-फूल देते हैं। उसकी इस प्रकृति को साकार रूप देने वाली एक दंतकथा सहरिया क्षेत्रों में निम्न रूप में प्रचलित है। ब्रह्मा ने जब सृजित किए मनुष्यों को रहने की जगह दी तो मानव ईश्वर द्वारा ही सृजित तत्वों जल, वायु, अग्नि और धरा पर स्वछंद विचरण करने लगा। लेकिन अब तक पुरूष एकांगी था, ब्रह्मा ने स्त्री का सृजन नहीं किया था। इसलिए इन वनों में उसे सूनेपन का अहसास हुआ। इस अहसास के होते ही वह ऊब गया। इस अकेलेपन को दूर करने के लिए सहरिया ने प्रभु से साथी की इच्छा व्यक्त की। इस इच्छा पूर्ति के लिए ब्रह्मा ने स्त्री की रचना कर डाली। इसके साथ ही कुछ अन्य स्त्रियों की भी रचना कर दी। फलतः जो भी स्त्री-पुरुष थे, वे जोड़ों में रहने लगे।

ईश्वर को तो सृष्टि का विकास करना था, इसलिए उसने युगलों को व्यस्त बनाए रखने और उनकी रचनात्मकता को बढ़ावा देने की दृष्टि से विभिन्न कार्य संपदित करने की जिम्मेदारी सौंपी। लोगों को खेती के लिए हल, दूध-दही के लिए गाय पढने-लिखने के लिए पोथी-कलम व्यापार के लिए तराजू और वस्तुओं के निर्माण हेतु औजार दिए। सहरिया चूंकि अपने स्वभाव के चलते सबसे पीछे था, इसलिए उसे कुछ नहीं मिल पाया। ब्रह्मा ने देखा, इसे कुछ नहीं मिला तो उन्हें चिंता हुई कि यह बेचारा अपनी आजीविका कैसे चलाएगा ? तब ब्रह्मा ने सहरिया युगल से कहा, ‘यह अनेक तरह के फल-फूलों व जड़ी-बूटियों से भरा वन है। इसमें कुछ अधिक उपयोगी वस्तु खोज कर लाओ।’ सहरिया गया और तेंदू तोड़ लाया। ब्रह्मा ने उसे चखा, जो अच्छा लगा। किंतु ब्रह्मा जानते थे कि इस जंगल में अनेक ऐसे औषधीय फल व बूटियां हैं, जिन्हें अपनाकर सहरिया श्रेष्ठ जीवन-यापन कर सकता है। किंतु कोई अपने जन्मजात स्वभाव को कैसे बदल सकता है। तब ब्रह्मा ने  सहरिया से कहा, ‘तू कुछ ज्यादा नहीं कर पाएगा और जंगली कंद-मूल खाकर ही गुजारा करेगा। इसलिए वन में ही रह।’

सहरियों में एक अन्य धारणा यह भी है कि वे ‘सौंरी’ (शबरी) और बैजू भील की संतानें हैं। सौंरी से सहरिया और बैजू भील से भील आदिवासियों की उत्तपत्ति हुई। इस नाते ये दोनों अपने को भाई मानते है। ये दोनों संतानें बड़ी होने पर आजीविका की खोज में घर से बाहर निकलकर भिन्न दिशाओं में चले गए।  जिस दिशा में सहरिया गया वहां सहरिया समुदाय और जिस दिशा में भील गया, वहां भील समुदाय विकसित होते चले गए। यहां जिस शबरी का उल्लेख है, वह वही शबरी है, जिसने वनवास के दौरान भगवान श्रीराम को झूठे वेर खिलाए थे। छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में एक सौंरी-नारायण का मंदिर है। यहां सौंरी से मतलब शबरी है और नारायण से मतलब भगवान श्रीराम से है। ऐसी मान्यता है कि यही वह स्थल है, जहां शबरी से राम की मुलाकात हुई थी।