‘स्टैंड अप कमेडी’ के ‘सोशल सर्जन’ थे राजू श्रीवास्तव

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हमारे देश में काॅमेडी की परंपरा पुरानी होते हुए भी ‘स्टैंड अप काॅमेडी’ कला और इसे परफार्म करने वाले कलाकारों का कोई शास्त्रीय आकलन शायद ही हुआ है। कला जगत में उनकी स्थिति स्टेज के ट्रांसजेंडर कलाकारों जैसी रही है। न थियेटर में न सिनेमा में। न ही अभिनय की अपारंपरिक शैलियों में (हुआ हो तो कृपया करेक्ट करें)।

जबकि बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध व 21 वीं सदी के पहले दशक तक देश में स्टैंड अप कामेडियनों ने लोगों को खूब हंसाया गुदगुदाया और राजनीतिक सामाजिक विसंगतियों पर हंसोड़ तरीके से चोट की। बीते तीस सालों में उभरे अग्रणी स्टैंड अप काॅमेडियनों में राजू श्रीवास्तव का नाम अव्वल है।

उन्होंने हास्य व्यंग्य की इस मंचीय शैली को नई दिशा और विस्तार दिया। कमेडी को मसखरेपन से बाहर निकाला। इस मायने में राजू श्रीवास्तव का जाना स्टैंड अप कामेडी के पुरोधा का जाना है। इसके आगे जरूरत हास्य अभिनय और किस्सागोई की इस मिश्रित शैली को उस बिंदु से आगे ले जाने की है, जहां राजू श्रीवास्तव उसे छोड़ गए हैं।

हमारे देश में पारंपरिक नाटकों में विदूषक, मसखरों या फिर किस्सागो की लंबी विरासत रही है। लेकिन आज जिसे हम ‘स्टैंड अप कामेडी’ (इसका कोई सटीक हिंदी पर्यायवाची नहीं है) कहते हैं, वो शुद्ध रूप से 21 वीं सदी की देन है। ये वो कला है, जो अमूमन सुशिक्षित श्रोताओं को ध्यान में रखकर परफार्म की जाती है। इसे स्टेज पर खड़ा अकेला कलाकार अपने स्वर, वाचा और शारीरिक भाव भंगिमा के साथ परफार्म करता है।

चूं‍कि यह खड़े होकर परफार्म की जाने वाली कला है, इसलिए इसे स्टैंड अप कमेडी कहते हैं। दुनिया में सबसे पहले ब्रिटेन में इस कला का आरंभ एक महिला कलाकार नील पेरियर ने किया।

इस कला के लिए ‘स्टैंड अप’ शब्द का प्रयोग पहली बार 1911 में किया गया। हालांकि नील ने जो परफार्मेंस दिया था, उसमें काॅमेडी गीत ज्यादा थे। 1917 में एक कमेडियन फिनले डन ने इसे स्टेज गाॅसिप कहा।

स्टैंड अप कामेडी मुख्यत: तीन तरह की होती है। एक वैकल्पिक, दूसरी चरित्र केन्द्रित, जिसमें कलाकार एक काल्पनिक पात्र रचकर लोगों को हंसाता है, तीसरी सांगीतिक, जिसमें कलाकार गीतों की मजेदार पैरोडी कर लोगों को हंसाता है। चौथी है अवलोकनात्मक काॅमेडी, जिसमें जीवन की विसंगतियों और विद्रूपताओं पर मजेदार ढंग से चोट की जाती है।

पांचवी है व्यंग्यात्मक, इसमें सेलेब्रिटीज,राजनेताओं आदि का उपहास किया जाता है। लोग उसे सुनकर हंसते हैं और मन ही मन कलाकार के साहस की दाद भी देते हैं। एक प्रकार से यह जनमानस में दबी प्रतिक्रिया की अ‍भिव्यक्ति होती है।

राजू श्रीवास्तव वास्तव में अवलोकनात्मक और व्यंग्यात्मक काॅमेडी के सरताज थे। अस्सी के दशक की शुरूआत में जब राजू श्रीवास्तव का उद्भव हुआ, तब देश में सिनेमा में उस कामेडी और कमेडियनों का अवसान हो चुका था, जिसे कभी फिल्म के हिट होने की गारंटी माना जाता था।

पचास के दशक में जाॅनी वाॅकर, साठ के दशक में महमूद और बाद में असरानी आदि कलाकारों ने काॅमेडी की प्रासंगिकता बनाए रखी।

जब इस कामेडी में दोहराव, पनीले पंच और द्विअर्थी तत्व हावी होने लगे और फ़िल्में एक्शन पैक्ड होने लगी तो कमेडियनों की दुनिया सिमटती चली गई। और तो और खुद हीरो ही कमेडियन की भूमिका करने लगे तो जीवन में हास्य का तड़का बेस्वाद भंडारे में तब्दील होने लगा।

उन्हीं दिनों में राजू श्रीवास्तव जैसे लोग कामे‍डी के क्षितिज पर अपने दम पर उभरे और लोगों को स्टैंड अप कामेडी की एक अलग और सशक्त विधा से परिचित कराया।

उससे पहले कमेडियनों को अमूमन मिमिक्री आर्टिस्ट कहा जाता था और वो आर्केस्ट्रा पार्टी में सलाद की तरह मौजूद रहते थे। उनकी अपनी कोई खास पहचान नहीं थी। बल्कि कई बार उनकी मिमिक्री से संगीत की स्वरधारा में खलल ही महसूस होता था। उन्हें ज्यादा कोई याद भी नहीं रखता था।

राजू श्रीवास्तव का असली नाम सत्यप्रकाश श्रीवास्तव था। उन्होंने पश्चिमी स्टैंड अप कामेडी का अध्ययन किया था या नहीं, पता नहीं, लेकिन उन्होंने वो तत्व सहजता से पकड़ा, जिसकी स्टैंड अप कमेडी को लोकप्रिय बनाने में दरकार थी।

साथ ही मनोरंजन टीवी चैनलों ने निजीकरण ने इस विधा को शोहरत के शिखर पहुंचा दिया। ऐसी विधा जिसे आप परिवार के साथ कभी भी, कहीं भी देख सकते हैं और जिसे देखकर जीवन के दुखों के कम कर सकते हैं।

राजू श्रीवास्तव की खूबी यही थी कि उन्होंने तमाम पात्र अपने आसपास और मध्यम वर्गीय जीवन से चुने। हास्य कलाकार के पीछे छिपा दर्द अगर फिल्म ‘ मेरा नाम जोकर’ में राज कपूर ने अ‍भिव्यक्त किया था तो एक सामान्य परिवार से आने वाले कमेडियन की दर्दभरी अंतर्कथा को राजू श्रीवास्तव बहुत सफाई से मंच पर पेश करते थे।

एक कमेडियन की स्टेज शो खत्म हो जाने के बाद होने वाली दुर्गत अपने आप में विडंबना की पराकाष्ठा है। यानी एक कलाकार की पूछ तभी तक है, जब तक वो स्टेज पर लोगों को हंसाता रहे, बाद में तुम कौन और हम कौन। कार्यक्रम स्थल से निकल कर वो धक्के खाता रहता है।

आयोजक भी मानदेय देकर अपनी इतिश्री समझ लेते हैं। लेकिन किसी कलाकार को दिया जाने वाला मानदेय उसकी कला प्रतिभा की पावती नहीं होता।

राजू श्रीवास्तव कानपुर के थे और अवधि संस्कृति की मासूमियत और खरेपन ने उन्हें गजोधर पात्र गढ़ने को प्रेरित किया। उसके भीतर खुद को देखा, जिया। कई फिल्मों में छोटे मोटे रोल करने और बाद में स्टार स्टैंड अप कमेडियन बनने के बाद उन्होंने आगे बढ़ने के नए क्षितिज राजनीति में भी तलाशे।

खास बात यह थी कि उन्होंने अपनी स्टैंड अप कामेडी को अश्लीलता से हमेशा बचाया। उन्हें यूपी में योगी सरकार ने राज्य फिल्म विकास परिषद का अध्यक्ष भी बनाया। लेकिन सच्चे कलाकार का काम अपनी कला का राजनीतिक अनुवाद नहीं है। लोक स्वीकृति और उससे मिलने वाली ऊर्जा ही कलाकार, लेखक, पत्रकार को अनंतकाल तक जीवित रहती है।

राजू श्रीवास्तव की उम्र महज 58 साल थी। दिल्ली एम्स में 42 दिनों तक मौत से संघर्ष करते करते उन्होंने बुधवार को हमेशा के लिए आंखें मूंद लीं। वैसे कमेडियन तुलनात्मक रूप से शायद कम ही जी पाते हैं। जीवन की हंसोड़ विसंगतियां उनकी जीवन रेखा को मानो घिस देती हैं।

कई बार सर्जक अपनी विधा बदल लेता है, लेकिन स्टैंड अप कमेडी में इसकी गुंजाइश कम है, क्योंकि वह कभी निेष्क्रिय होकर बैठ नहीं सकती। स्टैंड अप कमेडियन कोई जोकर नहीं होता, वो जोक को हंसोड़पन के साथ चुभने की सीमा तक ले जाता है। उसका हर पंच कहीं भीतर तक धंसता है। लिहाजा ‘स्टैंड अप काॅमेडी’ एक प्यार से की गई ‘सोशल सर्जरी’ भी है।

कनेडियन स्टैंड अप कमेडियन व लेखक नाॅर्म मेकडाॅनल्ड ने भी 61 साल भी साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कह दिया था। उन्हें रक्त कैंसर था। हैरी पाॅटर किताबों और बाइबल के बारे में नाॅर्म ने कहा था कि मैं समझता हूं कि जब आप किसी धर्म से भिड़ते हैं तो आपको इस बात क्या ध्यान रखना चाहिए कि आप क्या कह रहे हैं।