रणबीर कपूर गौ मांस खाये या घास,अब इससे फर्क पड़ता है

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कोई गौ मांस खाये या घास, किसी को कोई लेना-देना नहीं। लेकिन, आप यदि सार्वजनिक जीवन के व्यक्ति हैं तो जरूर फर्क पड़ता है। रणवीर कपूर के साथ जरूर ऐसा ही हुआ। वे रूपदले परदे के सितारे हैं और उनके कुछ भी करने का असर उनके हजारों-लाखों प्रशंसकों पर होता है। इसीलिये उनके द्वारा गौ मांस खाये जाने की बात ने समाज पर असर किया। यह असर तब नजर भी आ गया,जब वे अपनी अभिनेत्री पत्नी आलिया भट्‌ट के साथ 6 सितंबर को महाकाल के दर्शन के लिये उज्जैन आये तो गौ मांस भक्षण विरोधी लोगों ने उनका जबरदस्त विरोध किया, जिससे उन्हें बिना दर्शन लौटना पड़ा। उनका विरोध रणबीर कपूर के गौ मांस खाने पर नहीं था, बल्कि प्रशासन के उस फैसले पर था कि उसने गौ मांस खाने वाले को महाकाल मंदिंर में आने की अनुमति कैसे दे दी। इस घटना का एक संदेश तो साफ है कि अब फिल्मी नायकों का एकतरफा बोलबाला नहीं रहा। याने वे परदे के नायक तो बने रह सकते हैं, लेकिन उनके चाहनों वालों के दिलों पर राज करने और कायम रखने के लिये मनमर्जी का आचरण पसंद नहीं किया जायेगा। उनका निजी जीवन भी शुचितापूर्ण होना चाहिये या कम से कम वैसा दिखना तो चाहिये ही। यह बदलाव उस युवा पीढ़ी में हुआ है, जो रूमानी जिंदगी को पसंद करती है। सपने देखती है और उन्हें जीना भी जानती है। फिर भी हकिकत के धरातल से समझौता नहीं कर सकती। इससे खिलवाड़ करने वाला फिर उसका रूपहले परदे वाला नायक ही क्यों न हो, वह प्रतिरोध में उठ खड़ी होगी।

     बदलते दौर में अब फिल्मी अदाकारों के प्रति दीवानगी एक हद तक ही बची है। खासकर राष्ट्रवाद के उभार के बाद काफी चेतना आ गई है। आधुनिक परिवेश में बढ़ी हो रही पीढ़ी भी अपने प्रतीकों,अपनी सनातनी परंपरा,अपने पूज्य चरित्रों, देवी-देवताओं के मनमाफिक चित्रण,मंचन के प्रति सचेत है तो कुछ गलत पाने पर तीव्र विरोध के लिये भी तत्पर है। इसका एक और हालिया उदाहरण आमिर खान की फिल्म लाल सिंह चड्‌डा है। उसमें सेना के अधिकारी का पात्र अभिनीत करते हुए गलत छवि पेश करना तो विरोध का कारण बना ही, साथ ही उनकी पहले की कुछ फिल्मों के दृष्यों को भी आपत्तिजनक मानते हुए देश भर से फिल्म के बहिष्कार की आवाज उठी और यह इतनी दूर तक गई कि फिल्म औंधे मुंह नीचे गिर गई।


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    यह संभव हुआ सोशल मीडिया की ताकत के बूते पर। इसका उपयोग यूं तो कम शिक्षित मोबाइल धारी भी बखूबी करते हैं, किंतु युवा पीढ़ी के लिये तो यह अमोघ अस्त्र की तरह है। वे सोते-जागते,पढ़ते-घूमते,मॉल-बाजार में टहलते हुए भी पूरे समय अपनी अंगुलियों को इस छह-आठ इंची खिलौने पर नचाते रहते हैं। उनकी इसी बाजीगरी का कमाल था कि लाल सिंह चड्‌डा इस साल की बुरी तरह से फ्लॉप फिलमों की सूची में डाल दी गई। हमने सोशल मीडिया के प्रभाव और पहुंच का असर तो द कश्मीर फाइल्स फिल्म के समय भी देख ही लिया, जब डिब्बा बंद होने जा रही फिल्म बॉक्स ऑफिस पर ऐसी भागी कि फिल्म पंडितों के लिये उसे थामना मुश्किल हो गया। करीब 15 करोड़ रुपये की लागत मे बनी इस फिल्म ने ढाई सौ करोड़ रुपये से अधिक कमाई की। साथ ही कोरोना काल के बाद इतनी कमाई करने वाली भी यह पहली ही फिल्म रही।

     उम्मीद की जा रही थी कि फिल्म उद्योग के कर्णधार इससे सबक लेंगे और अपने आचरण को संयमित करने का प्रयास करेंगे, किंतु कुछ लोगों का रवैया नहीं बदला तो उनके प्रशंसकों ने भी मुरव्वत नहीं की। ऐसी ही गलती रणबीर कपूर भी कर बैठे। उन्होंने बैठे-ठाले बोल दिया कि वो गौ मांस खाते हैं । यह ऐसे वक्त बोला जब उनकी बहुप्रतीक्षित फिल्म ब्रहम‌ास्त्र 9 सितंबर को प्रदर्शित होने वाली है। इस फिल्म में उनकी नायिका उनकी पत्नी आलिया भट्‌ट भी है। बताते हैं,आलिया गर्भवती भी हैं और महाकाल के दर्शन के पीछे अपनी आने वाली संतान की बेहतरी की कामना भी रही हो। अफसोस कि रणबीर की नादानी और उनके चाहने वालों के आक्रोश की वजह से आलिया को भी महाकाल की दहलीज से बिना दर्शन लौटना पड़ा।जबकि फिल्म के निर्देशक अयान मुखर्जी को दर्शन करने दिये गये।

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    लाल सिंह चड्‌डा और ब्रह्मास्त्र की घटनायें बताती हैं कि सपने बेचने का धंधा भी अब किसी की भावनाओं से ऊपर नहीं है। आप परदे पर नकली जीवन जीते हैं। एक नायक दस-बीस से टक्कर लेता है।आप व्यवसथा के खिलाफ पुरजोर आवाज उठाते हैं। आप मौका आने पर ट्रक चलाते या विमान उड़ाते नजर आ जाते हैं तो अगली ही फिल्म में आपकी हैसियत साइकिल खरीदने की भी नहीं रहती। यह सब आप करते रहें और दर्शक भी जान-समझकर भी उसे पसंद करता है तो मकसद होता है तीन घंटे का मनरंजन। अब आप किसी मंदिर के पुजारी को अय्याश-बलात्कारी,किसी तिलकधारी को भ्रष्ट,किसी धोती पहनने वाले को ग्रामीणों का शोषक बताने का सिलसिला अब नहीं चला सकते। अब आप किसी सार्वजनिक मूत्रालय में शिव के वेश में किसी पात्र को लघु शंका करते नही बता सकते, क्योंकि अब दर्शक यह जान चुका है कि आप यह सब कुछ एक तयशुदा एजेंडे के तहत करते रहे हैं, जो अब मंजूर नहीं है।

     उज्जैन की घटना फिल्मी दुनिया के लिये एक और चेतावनी है कि वे जन भावनाओं से खिलवाड़ की कोशिश न करे। मनोरंजन के नाम पर बहुसंख्यक वर्ग का उपहास न उड़ाये। किसी एजेंडे को आगे न बढ़ायें। भले ही आप इसे सहिष्णुता की कमी बताते फिरे या कहते रहे कि यह देश रहने लायक नहीं बचा तो उनकी बला से। संप्रेषण के इस सशक्त माध्यम को व्यक्ति या वर्ग विशेष की तुष्टिकरण का हथियार यदि बनायेंगे तो आर्थिक और सामाजिक बहिष्कार के लिये भी तैयार रहना होगा। अब यह वो दौर नहीं है, जब दर्शक परदे की घटनाओं से प्रेरित होकर सिनेमा हॉल में सिक्के उछालते थे या किसी भावुक दृश्य पर आंसू बहाते थे या नायक द्वारा गुंडों की धुलाई करते वक्त खुद भी अपने आसपास बैठे दोस्तो के साथ ढीशुम-ढीशुम खेलन लग जाते थे। यह पीढ़ी बेहद व्यावहारिक सोच वाली, धरातल पर खड़े होकर सही-गलत की पहचान करने वाली और जरूरत पड़ने पर हर मोर्चे पर तगड़ा विरोध करने का माद्दा रखती है।

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रमण रावल

 

संपादक - वीकेंड पोस्ट

स्थानीय संपादक - पीपुल्स समाचार,इंदौर                               

संपादक - चौथासंसार, इंदौर

प्रधान संपादक - भास्कर टीवी(बीटीवी), इंदौर

शहर संपादक - नईदुनिया, इंदौर

समाचार संपादक - दैनिक भास्कर, इंदौर

कार्यकारी संपादक  - चौथा संसार, इंदौर

उप संपादक - नवभारत, इंदौर

साहित्य संपादक - चौथासंसार, इंदौर                                                             

समाचार संपादक - प्रभातकिरण, इंदौर      

                                                 

1979 से 1981 तक साप्ताहिक अखबार युग प्रभात,स्पूतनिक और दैनिक अखबार इंदौर समाचार में उप संपादक और नगर प्रतिनिधि के दायित्व का निर्वाह किया ।

शिक्षा - वाणिज्य स्नातक (1976), विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन

उल्लेखनीय-

० 1990 में  दैनिक नवभारत के लिये इंदौर के 50 से अधिक उद्योगपतियों , कारोबारियों से साक्षात्कार लेकर उनके उत्थान की दास्तान का प्रकाशन । इंदौर के इतिहास में पहली बार कॉर्पोरेट प्रोफाइल दिया गया।

० अनेक विख्यात हस्तियों का साक्षात्कार-बाबा आमटे,अटल बिहारी वाजपेयी,चंद्रशेखर,चौधरी चरणसिंह,संत लोंगोवाल,हरिवंश राय बच्चन,गुलाम अली,श्रीराम लागू,सदाशिवराव अमरापुरकर,सुनील दत्त,जगदगुरु शंकाराचार्य,दिग्विजयसिंह,कैलाश जोशी,वीरेंद्र कुमार सखलेचा,सुब्रमण्यम स्वामी, लोकमान्य टिळक के प्रपोत्र दीपक टिळक।

० 1984 के आम चुनाव का कवरेज करने उ.प्र. का दौरा,जहां अमेठी,रायबरेली,इलाहाबाद के राजनीतिक समीकरण का जायजा लिया।

० अमिताभ बच्चन से साक्षात्कार, 1985।

० 2011 से नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने की संभावना वाले अनेक लेखों का विभिन्न अखबारों में प्रकाशन, जिसके संकलन की किताब मोदी युग का विमोचन जुलाई 2014 में किया गया। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी को भी किताब भेंट की गयी। 2019 में केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के एक माह के भीतर किताब युग-युग मोदी का प्रकाशन 23 जून 2019 को।

सम्मान- मध्यप्रदेश शासन के जनसंपर्क विभाग द्वारा स्थापित राहुल बारपुते आंचलिक पत्रकारिता सम्मान-2016 से सम्मानित।

विशेष-  भारत सरकार के विदेश मंत्रालय द्वारा 18 से 20 अगस्त तक मॉरीशस में आयोजित 11वें विश्व हिंदी सम्मेलन में सरकारी प्रतिनिधिमंडल में बतौर सदस्य शरीक।

मनोनयन- म.प्र. शासन के जनसंपर्क विभाग की राज्य स्तरीय पत्रकार अधिमान्यता समिति के दो बार सदस्य मनोनीत।

किताबें-इंदौर के सितारे(2014),इंदौर के सितारे भाग-2(2015),इंदौर के सितारे भाग 3(2018), मोदी युग(2014), अंगदान(2016) , युग-युग मोदी(2019) सहित 8 किताबें प्रकाशित ।

भाषा-हिंदी,मराठी,गुजराती,सामान्य अंग्रेजी।

रुचि-मानवीय,सामाजिक,राजनीतिक मुद्दों पर लेखन,साक्षात्कार ।

संप्रति- 2014 से बतौर स्वतंत्र पत्रकार भास्कर, नईदुनिया,प्रभातकिरण,अग्निबाण, चौथा संसार,दबंग दुनिया,पीपुल्स समाचार,आचरण , लोकमत समाचार , राज एक्सप्रेस, वेबदुनिया , मीडियावाला डॉट इन  आदि में लेखन।