न्यायपालिका और प्रशासन तंत्र की प्रतिबद्धता पर टकराव गंभीर

560

न्यायपालिका और प्रशासन तंत्र की प्रतिबद्धता पर टकराव गंभीर

एक बार फिर संविधानिक शक्तियों के अधिकार ,टकराव , समर्पण का विवाद गर्मा गया है | केंद्र की भाजपा सरकार ही नहीं अन्य राज्यों की अन्य दलों के नेता प्रशासन तंत्र पर नियंत्रण और अफसरों से राजनैतिक प्रतिबद्धता की अपेक्षा कर रहे हैं | न्यायपालिका अधिक सक्रिय होकर सरकारों को नए नए दिशा निर्देश तक दे रही है | ऐसा नहीं है कि यह भारत की समस्या है | अमेरिका में तो सर्वोच्च अदालत के जज तक राष्ट्रपति और संसद की स्वीकृति से बनते हैं | पाकिस्तान में तो निचली और उच्चतम अदालत , सत्तारूढ़ नेता और प्रतिपक्ष के नेता तथा सेना के बीच झूल रही है | इसराइल में जनता का एक वर्ग न्यायिक आज़ादी के मुद्दे पर बड़ा आंदोलन कर रहा है | लेकिन भारत की स्थिति सारे विवादों के बावजूद नरम गरम होकर नियंत्रित है | इसलिए केंद्र के कानून मंत्री किरण रिजिजू    को अचानक हटाए जाने और प्रशासनिक राजनैतिक अनुभव वाले अर्जुन राम मेघवाल को मंत्रालय दिए जाने से सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच दिख रहा टकराव थमने की उम्मीद की जा सकती है | वैसे रिजिजू  और मेघवाल को लोक सभा चुनाव के लिए पूर्वोत्तर और राजस्थान में अधिक भूमिका का महत्व भी समझा जाना चाहिए |

अदालत और प्रशासन तंत्र के मुद्दे पर केंद्र शासित प्रदेश  दिल्ली अखाड़ा बन गया है | अभी मंत्री का बदलाव हुआ और अगले दिन केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश के विपरीत अध्यादेश जारी कर सरकार और संसद के अधिकार का उपयोग कर लिया |दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार को अधिकारियों के तबादले का अधिकार मिले अभी आठ दिन ही हुए थे कि केंद्र सरकार ने अध्यादेश के जरिये यह अधिकार फिर उप राज्यपाल को सौंप दिए। इस अध्यादेश के तहत  केंद्र सरकार ने दिल्ली में अफसरों के तबादले-नियुक्ति के लिए राष्ट्रीय राजधानी सिविल सेवा प्राधिकरण का गठन किया है। मुख्यमंत्री प्राधिकरण के पदेन अध्यक्ष होंगे, जबकि दिल्ली के प्रधान गृह सचिव पदेन सदस्य-सचिव होंगे। मुख्य सचिव भी इसके सदस्य होंगे। यही प्राधिकरण सर्वसम्मति या बहुमत के आधार पर तबादले की सिफारिश करेगा, पर आखिरी फैसला दिल्ली के उपराज्यपाल का होगा। मुख्यमंत्री तबादले का फैसला अकेले नहीं कर सकेंगे। मतभेद होने की स्थिति में l g  का फैसला फाइनल होगा।

सुप्रीम कोर्ट ने 11 मई को आदेश दिया था कि अफसरों के ट्रांसफर और पोस्टिंग की पावर दिल्ली सरकार के पास रहेगी। केंद्र ने अध्यादेश के जरिए कोर्ट का फैसला पलट दिया है। बाद में संसद में इससे जुड़ा कानून भी बनाया जाएगा। सुप्रीम कोर्ट में दिल्ली सरकार के वकील रहे अभिषेक मनु सिंघवी ने इस अध्यादेश को बेहद खराब तरीके से बनाया गया करार दिया। उन्होंने लिखा, अध्यादेश जिस व्यक्ति ने तैयार किया है उसने बेहद आसानी से कानून की अवहेलना की है। सिविल सेवा पर दिल्ली सरकार को अधिकार संविधान पीठ ने दिया था जिसे अध्यादेश के जरिये पलट दिया गया। संघवाद संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा है जिसे नुकसान पहुंचाया गया है। चुनी हुई सरकार के प्रति अधिकारियों की जवाबदेही को सिर के बल पलट दिया गया। अब दिल्ली सरकार फिर सुप्रीम कोर्ट की अवमानना के तर्क पर अदालत की शरण ले सकती है |

अदालत से टकराव पिछले महीनों में बढ़ता गया |रिजिजू जजों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम प्रणाली की खुलकर आलोचना करते रहे हैं। उन्होंने इसे संविधान से अलग भी करार दिया। कहा जाने लगा कि केंद्र सरकार जजों की नियुक्ति में अपनी भूमिका चाहती है।  हाल के महीनों में मोदी सरकार के मंत्री रिजिजू जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट पर टिप्पणी कर रहे थे, उसने शायद सरकार को असहज कर दिया। हालात ऐसे बन गए कि सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दाखिल कर केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू द्वारा कॉलेजियम सिस्टम के खिलाफ की गई टिप्पणी पर कार्रवाई की मांग की जाने लगी। हालांकि  सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए याचिका खारिज कर दी कि उसके पास इससे निपटने के लिए व्यापक दृष्टिकोण है। रिजिजू ने कहा था कि जजों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली पारदर्शी नहीं है। न्यायपालिका बनाम  सरकार की बातें जब मीडिया में आतीं तो रिजिजू सफाई भी देते कि लोकतंत्र में मतभेद अपरिहार्य हैं। उन्होंने कहा था कि सरकार और न्यायपालिका के बीच मतभेदों को टकराव नहीं माना जा सकता है।सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जज कोई सरकार नहीं हैं… जजों की नियुक्ति का कॉलेजियम सिस्टम संविधान के लिए एलियन है… जजों के लंबी छुट्टी पर जाने से कोर्ट में मामले लंबित होंगे।’

कॉलेजियम सिस्टम के विरोध में रिजिजू ने दिल्ली हाई कोर्ट के रिटायर्ड जज आर.एस. सोढ़ी के इंटरव्यू का अंश ट्वीट किया। न्यायमूर्ति सोढ़ी (सेवानिवृत्त) कहते हैं कि कानून बनाने का अधिकार संसद के पास है और सुप्रीम कोर्ट कानून नहीं बना सकता क्योंकि उसके पास ऐसा करने का अधिकार नहीं है। सोढ़ी ने कहा था कि क्या आप संविधान में संशोधन कर सकते हैं? केवल संसद ही संविधान में संशोधन करेगी। जब कोई जज बनता है तो उसे चुनाव का सामना नहीं करना पड़ता। जजों के लिए कोई सार्वजनिक जांच भी नहीं होती।

रिजिजू ने  यह भी कहा था कि भारतीय न्यायपालिका में कोई आरक्षण नहीं है। मैंने सभी जजों और विशेष रूप से कॉलेजियम के सदस्यों को याद दिलाया है कि वे पिछड़े समुदायों, महिलाओं और अन्य श्रेणियों के सदस्यों को शामिल करने के लिए नामों की सिफारिश करते समय ध्यान में रखें क्योंकि उनका न्यायपालिका में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज रोहिंटन फली नरीमन ने कॉलेजियम सिस्टम के खिलाफ बोलने पर कानून मंत्री रिजिजू की आलोचना की थी। उन्होंने जजों की नियुक्ति में केंद्र के दखल को लोकतंत्र के लिए घातक बताया। कॉलेजियम के नामों को सरकार द्वारा कथित तौर पर लटकाने पर भी काफी विवाद हुआ। रिजिजू के बयानों को सुनकर विपक्ष कहने लगा कि सरकार की तरफ से सुप्रीम कोर्ट को धमकाया जा रहा है।

संविधान में उच्च न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति में राष्ट्रपति यानी कार्यपालिका (सरकार) को प्राथमिकता दी गई है | संविधान के अनुच्छेद 124 (2) के मुताबिक ‘उच्चतम न्यायालय के और राज्यों के उच्च न्यायालयों के ऐसे न्यायाधीशों से परामर्श करने के पश्चात, जिनसे राष्ट्रपति इस प्रयोजन के लिए परामर्श करना आवश्यक समझे, राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर और मुद्रा सहित अधिपत्र द्वारा उच्चतम न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश को नियुक्त करेगा.’ संवैधानिक भाषा में इस अनुच्छेद में जो लिखा है, उसका मतलब है कि राष्ट्रपति जजों की नियुक्त के लिए जजों से परामर्श ले सकता है | इसमें राष्ट्रपति की सर्वोच्चता निहित है |

ये व्यवस्था 1993 तक चलती रही. हालांकि, इस बीच जजों की नियुक्तियों से संबंधित कई विवाद हुए जिसमें कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच खींचतान भी शामिल है | 1981 में पहले जजेज केस में परामर्श का अर्थ राय-विचार लेना बताया गया, लेकिन 1993 में दूसरे जजेज केस में सुप्रीम कोर्ट ने अपना पुराना फैसला बदल दिया और परामर्श का मतलब ‘सहमति’ बताया | आम भाषा में इसका मतलब ये हुआ कि जजों की नियुक्ति के लिए जजों की सहमति चाहिए यानी जज जिसे कहेंगे, उन्हें राष्ट्रपति जज नियुक्त करेंगे |इसी फैसले से कॉलेजियम सिस्टम अस्तित्व में आया | 1998 में तीसरे जजेज केस में कॉलेजियम सिस्टम की कार्यप्रणाली का निर्धारण हुआ |

ऐसा माना गया कि इस व्यवस्था में न्यायपालिका की स्वतंत्रता और स्वायत्तता की रक्षा होगी और सरकार के हस्तक्षेप से न्यायपालिका को बचाया जा सकेगा. चूंकि इससे पहले, खासकर इंदिरा गांधी के शासनकाल में सरकार द्वारा न्यायपालिका को प्रभावित करने के मामले हुए थे, इसलिए जनमत भी इस पक्ष में था कि न्यायपालिका को सरकार के हस्तक्षेप से बचाया जाए| इसलिए उस दौर में, कॉलेजियम सिस्टम का खास  विरोध भी नहीं हुआ |लेकिन बाद में  कॉलेजियम सिस्टम की बुराइयां सामने आने लगी | राजनेता ही नहीं पूर्व न्यायाधीश और कई बड़े वकील इस व्यवस्था की गड़बड़ियां गिनाने लगे |  न्यायपालिका में फैसले देने की रफ्तार बेहद सुस्त पड़ गई | कई विवाद भी हुए. इस कारण न्यायपालिका की  बदनामी हुई है और  जजों के टकराव से न्यायपालिका कई बार संकट में भी आई  | आलोचकों ने इस व्यवस्था की कमिया गिनाई – ‘कॉलेजियम सिस्टम संविधान की व्यवस्थाओं के खिलाफ है क्योंकि जजों की नियुक्ति जजों का नहीं, सरकार का काम है. जजों द्वारा जजों की नियुक्ति का सिस्टम दुनिया में कहीं और नहीं है | कॉलेजियम सिस्टम के कारण जजों के बीच आपसी पॉलिटिक्स होती है और जज फैसला लिखने से ज्यादा ध्यान इस बात पर लगाते हैं कि कौन जज बने. इस वजह से जजों के बीच गुटबाजी होती है और नियुक्तियों में देरी होती है | इस सिस्टम में भाई-भतीजावाद है क्योंकि ज्यादातर जज अपने रिश्तेदारों और जान-पहचान वालों की ही सिफारिश जज बनाने के लिए करते हैं |  कॉलेजियम सिस्टम आने से पहले यानी 1993 से पहले जो व्यवस्था थी, उससे बेहतर जज बन रहे थे और विवाद भी कम होता था |

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने पहले कार्यकाल की शुरुआत में ही कॉलेजियम सिस्टम को खत्म कर नियुक्ति प्रक्रिया में सरकार, विपक्ष और जानकारों को शामिल करके आयोग बनाने की व्यवस्था लाने की कोशिश की थी, इसके लिए संविधान संशोधन भी किया गया और नेशनल ज्यूडिशियल अपॉइंटमेंट कमीशन कानून, 2014 भी पारित किया गया. लेकिन तब वे नए-नए आए थे और सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून को असंवैधानिक बताते हुए खारिज कर दिया था | अब जबकि कॉलेजियम सिस्टम की बुराइयां उभरकर सामने आ गई हैं, तब सरकार इस मसले पर फिर विचार कर रही है  | संभव है कि उसका  इरादा नेशनल ज्यूडिशियल अपॉइंटमेंट कमीशन कानून को नए सिरे से लाने का हो और संसद में प्रस्ताव लाया जाए | देश के इतिहास में अलग-अलग समय पर न्यायपालिका की अलग-अलग प्रतिक्रिया के बावजूद ये पूरी तरह स्पष्ट है कि उसने भारत में स्वतंत्रता और लोकतंत्र की मज़बूती एवं रक्षा करने में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है | अब समय आ गया है जब हर संस्थान के सामने आने वाली चुनौतियों को लेकर आत्मनिरीक्षण हो और उसका एक समाधान तलाशने की ज़रूरत है |