शिवमंगल सिंह सुमन: मानव प्रेम , देशप्रेम और सौहार्द्रता के रचनाकार रहे और जनकवि का दर्जा प्राप्त किया

1987

शिवमंगल सिंह सुमन: मानव प्रेम , देशप्रेम और सौहार्द्रता के रचनाकार रहे और जनकवि का दर्जा प्राप्त किया

शिवमंगल सिंह सुमन (Shiv Mangal Singh Suman) एक प्रसिद्ध हिंदी कवि थे। समादृत कवि-लेखक शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ का जन्म 5 अगस्त 1915 को उत्तर प्रदेश के उन्नाव ज़िले के झगरपुर गाँव में हुआ था। उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से अपना शोध कार्य पूरा किया। विक्रम विश्वविद्यालय के कुलपति, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के उपाध्यक्ष, भारतीय विश्वविद्यालय संघ के अध्यश, कालिदास अकादेमी के कार्यकारी अध्यक्ष आदि के रूप में उन्होंने अपनी सेवा दी। उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपनी रचनाएँ और कविताएँ लिखकर जनसाधारण के  के दिलों में जगह बनाई .      प्रसिद्धनारायण चौबे के अनुसार, ‘‘अदम्य साहस, ओज और तेजस्विता एक ओर, दूसरी ओर प्रेम, करुणा और रागमयता, तीसरी ओर प्रकृति का निर्मल दृश्यावलोकन, चौथी ओर दलित वर्ग की विकृति और व्यंग्यधर्मी स्वर यानी प्रगतिशील लता की प्रवृत्ति-शिवमंगल सिंह ‘सुमन की कविताओं की यही मुख्य विशेषताएँ हैं।

shivmangal singh suman birth anniversary hindi poet unnao - जयंती विशेष: क्‍या हार में क्‍या जीत में, किंचित नहीं भयभीत मैं

स्वतंत्रता और देशभक्ति पर उनकी रचनाओं में ओज-तेज का बाहुल्य था ।वे स्वाभिमान युक्त प्रसिद्ध कवि और शिक्षाविद थे । उनके अवसान के बाद उस समय के प्रधानमंत्री बोले “डॉ. शिवमंगलसिंह सुमन केवल हिंदी कविता के क्षेत्र में एक शक्तिशाली चिन्ह ही नहीं थे ,बल्कि वह अपने समय की सामूहिक चेतना के संरक्षक भी थे ।उन्होंने न केवल अपनी भावनाओं का दर्द़ व्यक्त किया ,बल्कि युग के मुद्दों पर पर भी निर्भीक रचनात्मक टिप्पणी भी की थी ।” प्रमुख रचनाएं -मिट्टी की बारात,हिल्लोल ,जीवन के गान ।

नका पहला कविता-संग्रह ‘हिल्लोल’ 1939 में प्रकाशित हुआ। उसके बाद ‘जीवन के गान’, ‘युग का मोल’, ‘प्रलय-सृजन’, ‘विश्वास बढ़ता ही गया’, ‘पर आँखें नहीं भरीं’, ‘विंध्य-हिमालय’, ‘मिट्टी की बारात’, ‘वाणी की व्यथा’, ‘कटे अँगूठों की बंदनवारें’ संग्रह आए। इसके अतिरिक्त, उन्होंने ‘प्रकृति पुरुष कालिदास’ नाटक, ‘महादेवी की काव्य साधना’ और ‘गीति काव्य: उद्यम और विकास’ समीक्षा ग्रंथ भी लिखे हैं। ‘सुमन समग्र’ में उनकी कृतियों को संकलित किया गया है।
उन्हें ‘मिट्टी की बारात’ संग्रह के लिए 1974 के साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। भारत सरकार ने उन्हें 1974 में पद्मश्री और 1999 में पद्मभूषण से नवाज़ा।

शिक्षा – ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज से बी.ए.और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से एम.ए ,डी.लिट् की उपाधियां प्राप्त करीं। ग्वालियर ,इंदौर और उज्जैन में अध्यापन कार्य किया ।
विशेष घटना -एक बार उनकी आंखों पर पट्टी बांध कर एक अज्ञात जगह ले गए । जब आंख की पट्टी खोली गई तो उनके सामने चंद्रशेखर आजाद खडे थे । आजाद ने पूछा कि क्या यह रिवाल्वर दिल्ली ले जा सकते हो । सुमन जी ने तुरंत हां कह दी । आजादी के दीवानों के लिए काम करने के आरोप में उनके लिए वारंट जारी हुआ । ऐसे निर्भीक थे सुमन जी ।
वे मानव प्रेम , देशप्रेम और सौहार्द्रता के रचनाकार रहे और जनकवि का दर्जा प्राप्त किया। वे वाद के तर्क -वितर्क और स्थापना में नहीं पड़े ,वर्ना उसमें फंसे रह कर इतना आगे नहीं बढ़ पाते ।
हिंदी साहित्य में प्रगतिशील लेखन के अग्रणी कवि सुमन का जन्म 5 अगस्त 1915 को उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले में हुआ था। सुमन का निधन 27 नवंबर 2002 को हुआ। स्वतंत्रता, देशभक्ति और स्वाभिमान पर सुमन के बोल काफी ओजस्वी रहे हैं।

वरदान मांगूंगा नहीं….

यह हार एक विराम है
जीवन महासंग्राम है
तिल-तिल मिटूंगा पर दया की भीख मैं लूंगा नहीं
वरदान मांगूंगा नहीं।

स्मृति सुखद प्रहरों के लिए
अपने खंडहरों के लिए
यह जान लो मैं विश्व की संपत्ति चाहूंगा नहीं
वरदान मांगूंगा नहीं।

क्या हार में क्या जीत में
किंचित नहीं भयभीत मैं
संधर्ष पथ पर जो मिले यह भी सही वह भी सही
वरदान मांगूंगा नहीं।

लघुता न अब मेरी छुओ
तुम हो महान बने रहो
अपने हृदय की वेदना मैं व्यर्थ त्यागूंगा नहीं
वरदान मांगूंगा नहीं।

चाहे हृदय को ताप दो
चाहे मुझे अभिशाप दो
कुछ भी करो कर्तव्य पथ से किंतु भागूंगा नहीं
वरदान मांगूंगा नहीं।

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मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार…

मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार

पथ ही मुड़ गया था।

गति मिली मैं चल पड़ा
पथ पर कहीं रुकना मना था,
राह अनदेखी, अजाना देश
संगी अनसुना था।
चांद सूरज की तरह चलता
न जाना रात दिन है,
किस तरह हम तुम गए मिल
आज भी कहना कठिन है,
तन न आया मांगने अभिसार
मन ही जुड़ गया था।

देख मेरे पंख चल, गतिमय
लता भी लहलहाई
पत्र आँचल में छिपाए मुख
कली भी मुस्कुराई।
एक क्षण को थम गए डैने
समझ विश्राम का पल
पर प्रबल संघर्ष बनकर
आ गई आंधी सदलबल।
डाल झूमी, पर न टूटी
किंतु पंछी उड़ गया था।

चलना हमारा काम है

गति प्रबल पैरों में भरी
फिर क्यों रहूं दर दर खड़ा
जब आज मेरे सामने
है रास्ता इतना पड़ा
जब तक न मंज़िल पा सकूं,
तब तक मुझे न विराम है,
चलना हमारा काम है।कुछ कह लिया, कुछ सुन लिया
कुछ बोझ अपना बंट गया
अच्छा हुआ, तुम मिल गई
कुछ रास्ता ही कट गया
क्या राह में परिचय कहूंराही हमारा नाम है,
चलना हमारा काम है।जीवन अपूर्ण लिए हुए
पाता कभी खोता कभी
आशा निराशा से घिरा,
हंसता कभी रोता कभी
गति-मति न हो अवरूद्ध,
इसका ध्यान आठो याम है,
चलना हमारा काम है।इस विशद विश्व-प्रहार में
किसको नहीं बहना पडा
सुख-दुख हमारी ही तरह,
किसको नहीं सहना पड़ा
फिर व्यर्थ क्यों कहता फिरूं,
मुझ पर विधाता वाम है,
चलना हमारा काम है।

मैं पूर्णता की खोज में
दर-दर भटकता ही रहा
प्रत्येक पग पर कुछ न कुछ
रोडा अटकता ही रहा
निराशा क्यों मुझे?
जीवन इसी का नाम है,
चलना हमारा काम है।

साथ में चलते रहे
कुछ बीच ही से फिर गए
गति न जीवन की रूकी
जो गिर गए सो गिर गए
रहे हर दम,
उसी की सफलता अभिराम है,
चलना हमारा काम है।

फकत यह जानता
जो मिट गया वह जी गया
मूंदकर पलकें सहज
दो घूंट हंसकर पी गया
सुधा-मिक्ष्रित गरल,
वह साकिया का जाम है,
चलना हमारा काम है।

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प्रस्तुति– नीति अग्निहोत्री,इंदौर (म.प्र.)