Silver Screen : तांगे के पहियों पर सवार फिल्मों का वो जमाना

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सिनेमा का स्वरूप सवा सौ साल में पूरी तरह बदल गया। यह बदलाव केवल फिल्मों के प्रदर्शन तक सीमित नहीं रहा। बल्कि, फिल्मों की पृष्ठभूमि और फिल्मों में दिखाए जाने वाले दृश्यों में भी दिखाई देने लगा है। आने-जाने के जो साधन पहले की फिल्मों में दिखाई देते थे, वे भी बदल गए। इतने बदले कि दृश्य से ही गायब हो गए।
ऐसा ही एक साधन तांगा, जो लम्बे समय तक फिल्मों में कहानी का हिस्सा बना रहा, पर आज कहीं दिखाई नहीं देता। ब्लैक एंड व्हाइट से लगाकर कई हिट रंगीन फिल्मों तक में दर्शकों ने फ़िल्म के कई दृश्यों और गीतों में तांगा देखा होगा! पर, कई सालों से ये अनोखा साधन गायब हो गया।
तांगे पर फिल्मों के कई रोमांटिक दृश्य और गाने फिल्माए गए थे। यहाँ तक कि लड़ाई के दृश्यों में भी फिल्मकारों ने तांगे का उपयोग किया, पर आज इसकी जगह कार रेस ने ले ली। कभी फिल्मों की शान रहने वाला तांगा अब परदे के साथ ही सड़कों से भी नदारद हो गया। पहले जब फ़िल्में पेटियों में बंद होकर सिनेमाघर आती थी, तब भी तांगा ही इन्हें लेकर आता रहा, पर आज ये सब नहीं होता!
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सिनेमा का दौर कोई भी रहा हो, इक्का या तांगा दिखाई दे ही जाता था। ब्लैक एंड व्हाइट के ज़माने में तो तांगा ही आने-जाने का साधन हुआ करता था। फिल्म के परदे के अलावा रियल लाइफ में फिल्मी कलाकारों की दिलचस्पी इक्के की सवारी में देखने को मिलती रही। ज्यादा दिन नहीं हुए जब देश के विभिन्न हिस्सों में इक्को और तांगों का बोलबाला था।
उत्तर प्रदेश के पूर्वी भाग में अगर इक्के खूब चलते थे, तो पश्चिमी क्षेत्र में सवारी के नाम पर तांगे देखे जा सकते थे। लखनऊ में तांगे और इक्के दोनों का प्रचलन था और मुंबई की विक्टोरिया भी तांगे का ही एक आलीशान रूप था। असल जिंदगी मे भी कभी लखनवी तांगे फिल्म अभिनेताओं को इतने पसंद थे कि जब कभी उनको लखनऊ आने का मौका मिलता, वे उन पर सफर करने का मौका नहीं चूकते। मोतीलाल, कुंदनलाल सहगल, किशोर साहू और प्रेम अदीब जैसे दिग्गज कलाकार लखनऊ आने पर आने-जाने के लिए हमेशा इन इक्कों-तांगों का ही इस्तेमाल करते थे।
उस जमाने के प्रसिद्ध कथाकार अमृतलाल नागर इस दिशा में उनके मार्गदर्शक हुआ करते थे। मुंबई प्रवास के दौरान उन्होंने इतने लोगों को अपना प्रियजन बना रखा था, कि जब भी किसी को मौका मिलता, वह नागर जी का सानिध्य पाने लखनऊ पहुंच जाता था। नागरजी भी उसे भांग के गोलों के साथ लखनऊ की गली-कूचों की परिक्रमा कराने में पीछे नहीं रहते! ऐसे मौकों पर नागरजी के सहायक होते थे, संवाद लेखक ब्रजेंद्र गौड़ के बड़े भाई धर्मेंद्र गौड।
नागर जी के साथ ही धर्मेंद्र गौड ने भी अपना काफी समय मुंबई में बिताया था और उस जमाने के करीब सभी कलाकारों के साथ व्यक्तिगत दोस्ती थी। उनका फोटो-अल्बम इस बात की गवाही देता था, कि उन्होंने कितनी फिल्मी हस्तियों को तांगे की सवारी कराई। सुनील दत्त ने भी इस परंपरा को दमखम के साथ जारी रखा।
वे उत्तर प्रदेश के समारोहों में भाग लेने जाने के पहले आयोजकों को सूचित कर देते थे, कि उनके लिए एक तांगे का इंतजाम किया जाए ताकि वे खाली समय में तांगे की सवारी का लुत्फ उठा सके। तांगे की सवारी का लुत्फ उठाने वालों में पृथ्वीराज कपूर से लेकर चेतन आनंद, देव आनंद, सुचित्रा सेन, माला सिन्हा, संजीव कुमार और शशि कपूर जैसे कलाकार भी शामिल है।
    तांगों ने न केवल कलाकारों को ही नहीं घुमाया, बल्कि फिल्मों की कहानियों में भी हिस्सेदारी निभाई। बीआर चोपड़ा की कालजयी फिल्म ‘नया दौर’ इस विषय पर बनी सबसे सशक्त फिल्म थी। इसमें मशीन और इंसान के बीच के मुकाबले में तांगे का ख़ास तौर पर इस्तेमाल किया गया था। इंसान और उसका तांगा मशीनी मोटर गाड़ी को कैसे हराता है, इसका दिलचस्प वाकया ही फिल्म की थीम थी।
इसमें दिलीप कुमार ने तांगे वाले की भूमिका को इतने सशक्त तरीके से निभाया था, कि उनके बाद कई कलाकार तांगे वाला बनकर फिल्मों में आने लगे। इनमें राजेन्द्र कुमार से लेकर महमूद तक शामिल रहे। 1972 में आई फिल्म ‘तांगे वाला’ में राजेन्द्र कुमार ने मुमताज के साथ तांगे पर बैठकर फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाया था। अमिताभ ने ‘मर्द’ में तांगा क्या चलाया बाद में ‘मर्द तांगे वाला’ नाम से भी फिल्म बन गई थी।
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लेकिन, 1975 में आई ‘शोले’ में बसंती का तांगा खूब चला। फिल्म में हेमा मालिनी तांगा चलाती है और धर्मेन्द्र साइकिल चलाते हुए गीत गाते हैं ‘कोई हसीना जब रूठ जाती है तो है, तो और भी हसीन हो जाती है’ के जरिए प्रेमिका को मनाने का प्रयास कर रहे हैं। हेमा मालिनी इस रोल में इतनी लोकप्रिय हुई कि उन्हें बसंती नाम से पहचाना जाने लगा।
    एक जमाना था, जब तांगों पर फिल्माए जाने वाले गीतों ने बहुत लोकप्रियता अर्जित की थी। ओपी नैयर ऐसे संगीतकार थे, जो तांगे और घोड़ों की टॉप पर बने गीतों के कारण अपनी विशिष्ट पहचान बनाने में कामयाब हो गए थे। उनके गीतों में ‘तुमसा नहीं देखा’ और ‘फिर वही दिल लाया हूं’ के टाइटल गीत आज भी याद किए जाते हैं। इन गीतों को बाद में सलमान खान और आमिर खान की फिल्म ‘अंदाज’ में ऐ लो जी सनम हम आ गए में दोहराया गया।
इसके अलावा ओ पी नैयर ने पिया पिया बोले, ये क्या कर डाला तूने में तांगा गीतों की परम्परा को कायम रखा था। तांगे और बग्घी पर फिल्माए गीतों में वैजयंती माला की ‘नया दौर’ का जिक्र न हो, तो बात अधूरी लगती है। इस फिल्म में तांगा चलाते हुए दिलीप कुमार को उनके पास बैठी वैजयंती माला ‘मांग के साथ तुम्हारा मैंने मांग लिया संसार’ गाते हुए अपनी जिंदगी की मनोकामना पूरे होने का अहसास दिलाती हैं।
ऐसा ही एक गीत मनोज कुमार व शर्मिला टैगोर पर ‘सावन की घटा’ में फिल्माया गया था। इस गीत में शर्मिला मनोज कुमार से प्रेम की गाड़ी को हौले हौले चलाने की गुजारिश करती हैं। गीत के बोल थे ‘जरा हौले-हौले चलो मोरे साजना हम भी पीछे हैं तुम्हारे’ था।
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  इसके अलावा 1963 में आई फिल्म ‘प्यार का बंधन’ में राजकुमार पर फिल्माया गया गीत ‘मैं हूं अलबेला तांगेवाला’ भी खूब लोकप्रिय हुआ था। ‘जीत’ में तांगे वाले रणधीर कपूर से मुमताज कहती है ‘चल प्रेम नगर जाएगा बतलाओ तांगे वाले।’ इसके बाद तांगे की सवारी करते हुए गुलजार ने फिल्म ‘परिचय’ में बेहतरीन गीत फिल्माया था।
इस गीत के बोल भी गुलजार ने ही लिखे थे। इस गीत के बोल नायक की जिंदगी के फलसफे को बयां करते हैं, जिसमें नायक कहता है ‘मुसाफिर हूँ यारों ना घर है ना ठिकाना मुझे चलते जाना है।’ यह पूरा गीत गुलजार ने तांगे पर ही फिल्माया था। आज फिल्मों से भले ही तांगे गायब हो गए है लेकिन दर्शकों की यादों में यह हमेशा बने रहेंगे।
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   फिल्मों में जान फूंकने के लिए कई बार स्टंट्स सीन डाले जाते हैं, ये सीन रोमांचक भी बन जाते हैं। लेकिन, इस वजह से कई बार कलाकारों की जान पर भी बन आती है। ऐसा ही कुछ ‘नया दौर’ की शूटिंग के दौरान दिलीप कुमार के साथ हुआ। वे एक सीन में बड़े हादसे का शिकार होने से बचे थे। जब ‘नया दौर’ की शूटिंग हो रही थी और उसमें तांगे पर सवार होकर मोटरगाड़ी से रेस लगानी थी।
इस दौरान दिलीप कुमार के हाथ से घोड़े की लगाम छूट गई! तांगे की रफ्तार भी तेज थी। डायरेक्टर की नजर पड़ी, तो वे चौंक गए। सब दिलीप कुमार की मदद के लिए आगे आए, मगर वे हड़बड़ाए नहीं। उन्होंने सूझबूझ से काम लिया और घोड़े की और झुके और धीरे से मौका पाकर लगाम को पकड़ा लिया, अब तांगा उनके कंट्रोल में था। लेकिन, अब न तांगा बचा और न दिलीप कुमार जैसे जांबाज एक्टर जो विपरीत परिस्थितियों को भांपकर दृश्य को जीवंत बना सकें।
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हेमंत पाल

चार दशक से हिंदी पत्रकारिता से जुड़े हेमंत पाल ने देश के सभी प्रतिष्ठित अख़बारों और पत्रिकाओं में कई विषयों पर अपनी लेखनी चलाई। लेकिन, राजनीति और फिल्म पर लेखन उनके प्रिय विषय हैं। दो दशक से ज्यादा समय तक 'नईदुनिया' में पत्रकारिता की, लम्बे समय तक 'चुनाव डेस्क' के प्रभारी रहे। वे 'जनसत्ता' (मुंबई) में भी रहे और सभी संस्करणों के लिए फिल्म/टीवी पेज के प्रभारी के रूप में काम किया। फ़िलहाल 'सुबह सवेरे' इंदौर संस्करण के स्थानीय संपादक हैं।

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