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Silver Screen: हर नायक में छुपा खलनायक, उसी ने बनाई पहचान!
जब से सिनेमा की शुरूआत हुई, दर्शकों ने परदे पर हमेशा ऐसे कथानक वाली फ़िल्में देखी, जिसका अंत सकारात्मक होता है। बुराइयों से भरा खलनायक मारा जाता है या उसे पुलिस पकड़कर ले जाती है। ये खलनायक कोई भी हो सकता है! नायिका का भाई, पिता या फिर कोई उसे चाहने वाला। लेकिन, यदि किसी फिल्म में दर्शक नायक से ज्यादा खलनायक को पसंद करने लगे, तो उसे कहा जाएगा!
उस कलाकार की अदाकारी या दर्शकों की बदली पसंद! कारण चाहे जो भी समझा जाए, पर हर नायक के उसी किरदार को लम्बे समय तक याद किया गया, जिसमें उसने अपनी तय पहचान से अलग कुछ नया किया हो! हिंदी सिनेमा के हर दौर में ज्यादातर नायकों ने कभी न कभी खलनायक की भूमिका जरूर निभाई। इसकी वजह है कुछ अलग करने की चाह। साथ में एक नई तरह का प्रयोग भी। महाभारत में दुर्योधन और रामायण में रावण के किरदारों को कभी भूला नहीं जा सकता। एक कारण यह भी है कि नायक की ताकत दर्शकों को तभी समझ आती है, जब वो खलनायक को मात देता है।
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नायक का खलनायक बनना नई बात नहीं, पर दिलचस्प ज़रूर है। जब दर्शक नायक को खलनायक की पिटाई करते देखते हैं, ऐसे में खलनायक भी वही काम करता दिखे, तो दर्शकों को ज्यादा ही मज़ा आता है। खलनायक का मतलब सिर्फ बुरा दिखना नहीं है! खूबसूरत चेहरे-मोहरे वाला भी खलनायकी का काम करता दिख सकता है। यही कारण है कि इंडस्ट्री में कई नायक कुछ नया करने के लिए खलनायक जैसे किरदार निभा चुके हैं या फिर ऐसी भूमिकाओं की तलाश में रहते हैं।
संभवतः आज के सभी नायकों ने किसी न किसी फिल्म में निगेटिव किरदार जरूर निभाया। इसलिए कि फिल्म में नायक और नायिका के बाद सबसे अहम किरदार खलनायक ही होता है। इसका कारण यह भी है कि खलनायक की भूमिका नकारात्मक होने के बावजूद उसमें अदाकारी दिखाने के आयाम ज़्यादा होते हैं। नायक से उसकी हार फिल्म के अंत में होती है, पर पूरी फिल्म में वो हीरो पर भारी ही दिखाई देता है।
अमिताभ बच्चन के करियर पर नजर डालें, तो अमिताभ का शुरुआती समय संघर्ष में ही बीता। इस कलाकार का करियर 70 के दशक में कुछ नहीं था। उनकी पहचान चंद फ्लॉप फिल्मों के हीरो के तौर पर थी। ऐसे में अमिताभ ने 1971 में फिल्म ‘परवाना’ की, जिसमें उन्होंने एक तरफा प्रेमी का किरदार निभाया था। फिल्म के हीरो थे नवीन निश्चल और हीरोइन योगिता बाली थी।
फिल्म के अंत में हीरोइन भले ही हीरो के हिस्से में आई हो, पर अभिनय में सबसे ज्यादा तारीफ अमिताभ की हुई। लाल आँखे लिए जब वे शराब का ग्लास उंगलियों से दबाकर तोड़ देते हैं, तो दर्शक सहम सा जाता है। चरित्र अभिनेता ओमप्रकाश ने इस फिल्म में अमिताभ के अभिनय की बहुत तारीफ की थी। जब प्रकाश मेहरा की ‘ज़ंजीर’ के लिए अमिताभ का नाम चला तो उन्होंने उनके नाम की सिफारिश भी की थी। यश चोपड़ा की फिल्म ‘दीवार’ में भी अमिताभ का रोल वास्तव में निगेटिव ही था। फिल्म के असली हीरो तो शशि कपूर थे, पर वे अमिताभ के किरदार के सामने दब से गए थे।
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शत्रुघ्न सिन्हा ने लम्बे समय तक निगेटिव रोल किए! परदे पर हीरो की एंट्री को तालियां मिले या नहीं, पर शत्रुघ्न के आते ही दर्शक तालियां पीटने लगते थे। उनकी डायलॉग डिलीवरी का भी अलग अंदाज होता था। दर्शकों को शत्रु के डायलॉग तक याद रहते थे। ‘मेरे अपने’ में शत्रुघ्न सिन्हा का डायलॉग ‘श्याम से कहना छैनू आया था’ और ‘ख़ामोश’ बोलने की उनकी स्टाइल आज भी लोग नहीं भूले। शत्रुघ्न सिन्हा ऐसे खलनायक थे, जिन्हें लोग एंटी-हीरो मानने लगे थे, उनकी यही सफलता बाद में उन्हें हीरो तक ले आई।
विनोद खन्ना भी इसी तरह के अभिनेता थे, जो 70 के दशक में अमिताभ बच्चन को टक्कर देते थे। लेकिन, इस अभिनेता का शुरूआती दौर भी विलेन का ही रहा। 1970 में विनोद खन्ना की फिल्म ‘आन मिलो सजना’ में राजेश खन्ना जैसे सुपर स्टार के सामने दर्शक विनोद खन्ना को नहीं भूले। 1971 में आई राज खोसला की फिल्म ‘मेरा गाँव मेरा देश’ में उन्होंने ऐसे दुर्दांत डाकू का किरदार निभाया था, जिसके परदे पर आते ही दर्शक सहम जाते थे। धर्मेंद्र जैसे स्टार के बावजूद विनोद खन्ना तारीफ बटोरने में कामयाब रहे। 1973 में आई ‘कच्चे धागे’ में भी वे डाकू ही बने थे। फिर धीरे-धीरे अपनी लोकप्रियता से वे विलेन से हीरो बन गए। इसके बाद उन्होंने नायक की भूमिकाएं की।
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आमिर खान जैसे चॉकलेटी नायक ने भी ‘धूम 3’ में डबल रोल में खलनायक जैसा रोल किया। ख़ास बात ये कि वे दोनों ही रोल में वे चोर बने। उन्होंने फिल्म के हीरो अभिषेक बच्चन और उदय चोपड़ा से कहीं ज्यादा तारीफ भी बटोरी। यश चोपड़ा की इस लोकप्रिय सीरीज ‘धूम’ पर नज़र डाली जाए, तो इसमें दर्शकों की नायक से ज़्यादा उत्सुकता ये जानने की रहती है, कि खलनायक कौन है! ‘धूम-2’ में रितिक रोशन खलनायक थे और उनके साथ थी ऐश्वर्या राय। खलनायक की हार पर यदि दर्शक दुखी हो, तो समझ लीजिए कि फिल्म में सबसे ज्यादा तारीफ किसे मिलेगी। ‘धूम-2’ में रितिक और ऐश्वर्या के साथ ऐसा ही हुआ था।
जॉन अब्राहम के भी नायक बनने का कारण ‘धूम’ ही बनी। वे अभिषेक बच्चन और उदय चोपड़ा के सामने थे। वे उस समय के सबसे हैंडसम विलेन थे, जो बाइक पर चोरियां प्लान करता था। दरअसल, इन खलनायकों ने ही चोरों का अंदाज बदला था। नायक से ज्यादा जॉन अब्राहम जैसे चोर की एंट्री पर तालियां बजी थी। जबकि, वो स्क्रीन पर ही बोलता था ‘मैं चोर हूँ!’ आश्चर्य नहीं कि जॉन को यदि आज जो पहचान मिली, उसका श्रेय ‘धूम’ के उस खलनायक वाले किरदार को ही जाता है। आमिर खान ने ‘गजनी’ में और शाहिद कपूर ने ‘कबीर सिंह’ में भी कुछ ऐसा ही किरदार निभाया था।
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शाहरुख़ खान को आज भले रोमांटिक हीरो माना जाता है, पर उन्होंने दर्शकों के दिल में जगह बनाई अब्बास मस्तान की ‘बाज़ीगर’ और यश चोपड़ा की ‘डर’ से। दोनों ही फिल्मों में वो खलनायक ही थे। शाहरुख़ के करियर से यदि इन दो फिल्मों को हटा दें, तो शायद आज शाहरुख वहां नहीं होते, जहाँ वे आज है। उन्हें ये दोनों फ़िल्में भी तब मिली, जब सलमान ने ‘बाज़ीगर’ और आमिर ने ‘डर’ करने से इंकार कर दिया था। सैफ अली खान के करियर को दूसरी दौर में भी खलनायक का किरदार निभाने के बाद ही लोकप्रियता मिली।
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‘ओंकारा’ में यदि सैफ़ ने लंगड़ा त्यागी का किरदार नहीं किया होता, तो सैफ़ को दर्शक भूल गए होते। लंगड़ा त्यागी का किरदार हिट होने के बाद ही सैफ़ को फिर हीरो के रोल मिले थे। संजय दत्त ने तो ‘खलनायक’ नाम की ही फिल्म की। सुभाष घई की यह फिल्म सुपरहिट भी रही थी। पर, यदि वे फिल्म की रिलीज के बाद जेल न गए होते तो वे आज कहीं ज्यादा सफल होते। अक्षय खन्ना भी अब इसी खलनायक बिरादरी में शरीक हो गए। ‘ढिशुम’ में वे वरुण धवन और जॉन अब्राहम को चुनौती देते नजर आए थे। फिल्म ‘इत्तफाक’ में भी वे खलनायक ही बने। ऐसी भूमिकाओं की लोकप्रियता का एक उदाहरण आशीष शर्मा भी है, जिसका करियर बनाने के सलमान खान ने काफी मेहनत की। पहली फिल्म ‘लवरात्रि’ की जमकर ब्रांडिंग के बाद भी फिल्म ने पानी नहीं मांगा! लेकिन, दूसरी फिल्म ‘अंतिम’ में वे निगेटिव रोल में दिखाई दिए, तो दर्शकों को उनके अभिनय में गुंजाइश दिखी।
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हेमंत पाल
चार दशक से हिंदी पत्रकारिता से जुड़े हेमंत पाल ने देश के सभी प्रतिष्ठित अख़बारों और पत्रिकाओं में कई विषयों पर अपनी लेखनी चलाई। लेकिन, राजनीति और फिल्म पर लेखन उनके प्रिय विषय हैं। दो दशक से ज्यादा समय तक 'नईदुनिया' में पत्रकारिता की, लम्बे समय तक 'चुनाव डेस्क' के प्रभारी रहे। वे 'जनसत्ता' (मुंबई) में भी रहे और सभी संस्करणों के लिए फिल्म/टीवी पेज के प्रभारी के रूप में काम किया। फ़िलहाल 'सुबह सवेरे' इंदौर संस्करण के स्थानीय संपादक हैं।
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