
SIlver Screen: ‘पहला दिन-पहला शो’ और सीट की जुगाड़ जैसी कई यादों से जुड़े हैं पुराने सिनेमाघर
– हेमंत पाल
बदलते समय के साथ बहुत कुछ बदला। जीने का अंदाज, नई जरूरतें, सुविधाएं और यहां तक कि मनोरंजन का तरीका भी नए ज़माने के साथ बदल गया। याद कीजिए दो-तीन दशक पहले फिल्म देखने का आनंद कैसा था! तब आज की तरह घर बैठे टिकट बुक नहीं होते थे और न सीटें आरामदायक होती थीं। उस समय सिनेमाघर की टिकट खिड़की में हाथ घुसाकर मुट्ठी में टिकट थामकर मसले हुए टिकट ऐसे लगते थे जैसे जंग जीतने का प्रमाण पत्र मिल गया हो। उसके बाद हॉल में तीन घंटे तक फिल्म के साथ-साथ कई तरह के मनोरंजन की बात ही अलग थी। आज वो सिर्फ याद बनकर रह गया। अब न वैसे सिनेमाघर बचे न दर्शक। सिंगल स्क्रीन तो करीब-करीब ख़त्म ही हो गए। उनकी जगह ब्रांडेड मल्टीप्लेक्स ने ले ली। पहले 3 रुपए 20 पैसे में दर्शक बॉलकनी में अकड़कर बैठता था, आज वही टिकट 500 रूपए से शुरू होकर एक हजार रूपए से ज्यादा में मिलता है। उसमें भी सुविधा के मुताबिक पैसे लिए जाते हैं। तात्पर्य यह कि अब दर्शकों का फिल्म देखने अंदाज ही नहीं बदला, सुविधाएं भी जेब पर असर डालने लगी।
फिल्में बनना, उनका रिलीज होना और फिर थिएटर में जाकर दर्शकों का उन्हें एंजॉय करना, मनोरंजन की दुनिया में ये सब रोज होता आया है। इसके पीछे सिर्फ एक ही मकसद होता है कि दर्शकों को अपनी फिल्म तक खींचना और उसके जरिए कमाई करना। आज करीब हर शहर में मल्टीप्लेक्स थियेटर हैं, जहां दर्शक आरामदायक सीटें, बेहतर साउंड क्वालिटी के साथ फ़िल्म एंजॉय करते हैं। लेकिन, पीछे मुड़कर देखा जाए, तो एक दौर वह भी था, जब सिर्फ सिंगल स्क्रीन सिनेमाघर हुआ करते थे। फिर भी इनका अलग ही क्रेज था। दर्शकों को थियेटर की सुविधाओं से कोई वास्ता नहीं था। बस बैठने के सीट हो और सामने परदे पर जब फिल्म दिखाई दे कोई अड़चन न आए। पुराने समय में फिल्में बनाना भी कम बड़ी चुनौती नहीं थी। क्योंकि, उस समय काल में फिल्म बनाने की तकनीक आज की तरह विकसित नहीं थी। फिल्म पूरी होने के बाद हर निर्माता-निर्देशक की उम्मीद होती है कि उसे बेहतर ढंग से रिलीज किया जा सके। पहले उनकी इस उम्मीद को सिंगल स्क्रीन पूरा करते थे, आज वही भूमिका मल्टीप्लेक्स निभाते हैं।
अब तो फिल्म का अर्थशास्त्र बदल गया। पहले सिल्वर और गोल्डन जुबली यानी 25 और 50 हफ्ते चलने वाली फिल्म ही सुपर हिट कहलाती थी। आज तो पहले शो से अंदाजा लगा लिया जाता है। दो या तीन हफ्ते चलने वाली फिल्म भी हिट हो जाती है। इसलिए कि अब फिल्म कमाई सिर्फ दर्शकों के टिकट की खरीद पर ही निर्भर नहीं रह गई। फिल्मकारों ने इस कारोबार में ऐसे कई नए विकल्प खोज लिए, जो उनकी कमाई के नए रास्ते खोलती है। फ़िल्मों के डिजिटल, सैटेलाइट और म्यूजिक राइट्स बेचकर भी फिल्म निर्माता पैसे कमाता है। फिल्मों के रीमेक, प्रीक्वल, सीक्वल, और डबिंग राइट्स बेचकर भी कमाई की जाती है। इसके अलावा ओवरसीज राइट्स, म्यूजिक राइट्स से भी पैसा कमाया जाता है। इसके बाद फिल्म के प्रदर्शन पर निर्भर है कि फिल्म से कितना मुनाफा होगा।
कई निर्माता विदेश में शूटिंग करके मिलने वाली छूट से भी कमाई करते हैं। जैसे लंदन में शूटिंग करके। इसके बाद आता है बॉक्स ऑफिस। लेकिन, यह सब फिल्म के प्रदर्शन पर निर्भर होता है। यदि फिल्म दर्शकों की पसंद पर खरी उतरी तो सारे राइट्स से कमाकर देते हैं। यदि ऐसा नहीं हुआ तो सारे राइट्स का कोई मतलब नहीं रह जाता। इस नए ट्रेंड से निर्माता को ये फ़ायदा हुआ कि भले ही उसकी फिल्म नहीं चले पर प्रोडक्शन कास्ट तो निकल ही आती है। याद करें राज कपूर की फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ को। इस फिल्म की असफलता ने उन्हें करीब-करीब बर्बाद कर दिया था। जबकि, आज यह स्थिति किसी निर्माता के सामने होती, तो हालात इतने बुरे नहीं होते।
बड़े परदे पर फ़िल्में देखने की शुरुआत सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों से ही हुई। सिंगल स्क्रीन थिएटर की परिभाषा इसके नाम में ही छुपी है। सिंगल स्क्रीन उन्हें कहा जाता है, जहां एक स्क्रीन हो और उस पर रोज फिल्म के 4 शो दिखाए जाते हैं। अकेला स्क्रीन होने की वजह से इन्हें सिंगल स्क्रीन सिनेमाघर कहा जाता है। कुछ ऐसे थिएटर आज भी बड़े शहरों में मिल जाते हैं। आज के दौर में सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों की तुलना में मल्टीप्लेक्स का क्रेज बढ़ गया। ऐसे सिनेमाघर वे होते है, जहां एक से ज्यादा स्क्रीन होती हैं। कई अलग-अलग फिल्में एक साथ चलती हैं। आज मल्टीप्लेक्स का चलन बहुत ज्यादा बढ़ गया। इनकी बनावट और सीट का दायरा भी अलग रहता है। जहां सिंगल स्क्रीन सिनेमाघर में फर्स्ट क्लास और बालकनी के दो सीटिंग फॉर्मेट होते हैं। वहीं, मल्टीप्लेक्स थिएटर इससे अलग नजर आते हैं। मल्टीप्लेक्स में सीटिंग फॉर्मेट प्लैटिनम, गोल्ड और सिल्वर कैटेगरी के हिसाब से बंटा होता है।
मुंबई में 1947 में लिबर्टी सिनेमाघर बना था। इस सिनेमा हॉल को हबीब हुसैन ने बनाया था और इसका आर्किटेक्चर फ़्रांस से प्रभावित रहा। यह आजादी का साल था, इसलिए इसका नाम ‘लिबर्टी’ रखा गया। ये अपने आप में कुछ खास सिनेमाघर रहा। इस सिनेमाघर में फिल्म का प्रदर्शन खास हुआ करता है। 1960 में फिल्म ‘मुगल ए आजम’ का प्रीमियर हुआ था। यहां ‘मदर इंडिया’ 25 अक्टूबर 1957 को रिलीज हुई थी। यह फिल्म पूरे साल यहां लगी रही, जो अपने आप में उस दौर का 1 रिकॉर्ड था। इसके बाद 1994 में सलमान खान और माधुरी दीक्षित की फिल्म ‘हम आपके हैं कौन’ इस सिनेमाघर में 105 दिनों तक चली थी। राज कपूर भी इस सिनेमाघर के मुरीद रहे। उनकी कई बड़ी फ़िल्में यहां रिलीज हुई, उनमें ‘राम तेरी गंगा मैली’ भी थी। यहां प्रेस प्रीव्यू और प्राइवेट स्क्रीनिंग के लिए इसकी पांचवी मंजिल पर 30 सीट का ‘लिबर्टी मिनी’ भी बनाया गया था।
Silver Screen:बदलते समय के साथ कदमताल करता हिंदी सिनेमा!
इंदौर में ‘सिनेमा म्यूजियम‘
मध्य प्रदेश के सबसे बड़े शहर इंदौर में 20 साल पहले तक 30 से ज्यादा सिंगल स्क्रीन टॉकीज थे। लेकिन, अब वो स्थिति नहीं रही। अब यहां देश के सभी बड़े ब्रांड वाले मल्टीप्लेक्स के साथ ओपन एयर ड्राइव इन थिएटर भी है। इस बीच इंदौर के एक व्यवसायी ने सिंगल स्क्रीन सिनेमा की यादों को धरोहर के रूप में संजो लिया। यह देश का अकेला सिंगल स्क्रीन म्यूजियम है। इसमें इंदौर के 30 से ज्यादा टॉकीज से जुड़े फोटो, टिकट, स्लाइड, प्रोजेक्टर, पोस्टर्स सहित कई चीजें रखी गई हैं। 1917 से लेकर 2000 के दशक तक का कलेक्शन है। विनोद जोशी को सिनेमा से जुड़ी यादें सहेजने का शौक 1983 से था।
2015 में उन्होंने इस शौक को इस तरह पूरा किया। उन्होंने अपने सिनेमा म्यूजियम की टिकट दर भी इतनी ही रखी है, जितनी उस दौर में सिनेमा की टिकट (1 रुपए 60 पैसे) थी। इस थिएटर को देखने में करीब आधा घंटा लगता है। उनके कलेक्शन में किस साल, किस महीने में, किस टॉकीज में कौन सी पिक्चर चली, उसके विज्ञापन, पोस्टर कैसे होते थे वह सब शामिल है। प्रोजेक्टर से परदे पर फिल्म कैसे दिखाई जाती थी, उसे वे खुद प्रोजेक्टर चलाकर बताते हैं। इंटरवल में विज्ञापन के रूप में कौन-कौन सी स्लाइड चलती थी। नई फिल्मों के ट्रेलर की स्लाइड भी दिखाते हैं। उन्होंने इंदौर के पुराने श्रीकृष्ण टॉकीज का भी मॉडल बनवाया। ऐसे ही अन्य टॉकीजों के भी मॉडल हैं।