Silver Scren : दिवाली पर पटाखों का धुंआ और परदे पर जुआं!   

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Silver Scren : दिवाली पर पटाखों का धुंआ और परदे पर जुआं!

 

हमारे समाज में दिवाली की अपनी एक परंपरा है। घरों के बाहर रोशनी करने की, लक्ष्मी पूजन करने की, खुशियां मनाने की और उसी से जुड़ी एक गलत प्रथा है, उस रात जुआ खेलने की। जुआ खेलना सामाजिक रूप से सही नहीं माना जाता और ये गलत परंपरा होने के साथ कानूनन अपराध भी है। फिर भी कुछ लोग जुआ इसलिए खेलते हैं कि इसके पीछे भी कोई पौराणिक कथा जुड़ी है। माना जाता है कि दिवाली के दिन जुआ खेलने का कारण एक कथा है, जो शिव और पार्वती से जुड़ी है। कहा जाता है कि इस रात पूरे ब्रह्माण्ड के तारों और ग्रहों में बदलाव आता है, यह बदलाव शिव और पार्वती के बीच चल रहे पांसे के खेल का ही प्रभाव होता है। सिनेमा भी जुए के प्रभाव से अछूता नहीं रहा। जिस तरह से दुनियाभर में जुआ खेला जाता है, उसी तरह फिल्मों में भी जुए से जुड़े दृश्य भी दिखाई देते रहे हैं।

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जहां तक ‘जुआरी’ शीर्षक से जुड़ी फिल्मों की बात है, तो हमारे यहां इस शीर्षक से दो फिल्में बनी। पहली फिल्म ‘जुआरी’ 1968 में आई थी। सूरज प्रकाश निर्देशित इस फिल्म के नायक थे शशि कपूर। उनके साथ तनुजा, नंदा, मदनपुरी, और रहमान ने भी इस फिल्म में काम किया था। फिल्म का नायक शशि कपूर शराबी होने के साथ जुआरी भी होता है! लेकिन, वो दूसरों की खुशी और जरूरतमंदों की मदद के लिए जुआ खेलता है। लेकिन, कल्याणजी-आनंदजी के संगीत से सजी यह फिल्म औसत साबित हुई थी। 1994 में धर्मेंद्र, अरमान कोहली, शिल्पा शिरोडकर, महमूद, किरण कुमार, रजा मुराद और परेश रावल अभिनीत ‘जुआरी’ प्रदर्शित हुई। इसका निर्देशन जगदीश ए शर्मा ने किया था। इस फिल्म में धर्मेंद्र को जुआरी दिखाया गया था। पर, वो अजीब मकसद के लिए जुआ खेलता है। उसकी प्रेमिका खलनायक के शिकंजे में है। खलनायक की शर्त है, कि यदि उसे प्रेमिका को छुड़ाना है, तो जुआ खेलना पड़ेगा। पर, यह फिल्म भी दर्शकों ने नकार दी।

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देखा जाए तो फिल्म निर्माण भी एक तरह से जुआ ही है। इसमे कभी दांव लग जाता है, तो वारे-न्यारे हो जाते हैं! पर, यदि दांव उल्टा पड़ जाता है, तो सर की छत तक सलामत नहीं रहती। ऐसे कई उदाहरण हैं, जब अपना सबकुछ दांव पर लगाने वाले फिर निर्माता फिल्म के रिलीज होने के बाद सड़क पर आ गए। क्योंकि, दर्शकों ने यदि फिल्म को पसंद नहीं किया, तो फिल्म निर्माण में लगे पैसों की भरपाई होना मुश्किल होता है! आज तो फिल्म बनने से पहले ही अलग-अलग बाजारों में बिक जाती है, पर पहले ऐसा नहीं था। सीधे शब्दों में कहें तो आज फिल्म की निर्माण उसके रिलीज से पहले ही निर्माता की जेब में आ जाती है। प्रकाश मेहरा के लिए वैसे तो फिल्म निर्माण हमेशा फायदे का सौदा रहा! लेकिन, जब उन्होंने ‘जिंदगी एक जुआ’ फिल्म बनाई, तो सारे पांसे पलट गए और उनका दांव उल्टा पड़ गया। अनिल कपूर, माधुरी दीक्षित, सुरेश ओबेराय, शक्ति कपूर, अनुपम खेर और अमरीश पुरी जैसे कलाकारों और बप्पी लहरी का संगीत भी इसे डूबने से नहीं बचा पाया।

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यदि श्वेत और श्याम फिल्मों के दौर में जुए पर आधारित फिल्मों की बात की जाए तो देव आनंद ऐसे सितारे थे, जिन्होंने उस दौर की अपनी हर दूसरी फिल्म में पत्ते फेंकते हुए, मुंह में सिगरेट लगाकर जुए को परदे पर उतारकर सफलता हासिल की। उनकी फिल्म निर्माण कंपनी की पहली फिल्म ‘बाजी’ की कहानी बलराज साहनी ने लिखी थी और निर्देशक गुरुदत्त थे। यह फिल्म ऐसे पत्ते बाज की कहानी थी, जिसके हाथों में जादू था। उसे अपने हाथों पर इतना भरोसा होता है कि वह किसी भी तरह से पत्ते बांटे दांव उसका ही बैठता था। तभी तो गीता बाली उससे गुहार करती है ‘अपने पे भरोसा है तो एक दांव लगा ले।’ यह फिल्म अपने ज़माने की सुपर हिट थी।

इसके बाद देव आनंद ज्यादातर फिल्मों में जुआरी के किरदार में ही दिखाई दिए। जुआरी का चोंगा उतारकर लम्बे समय तक रोमांटिक भूमिकाएं निभाने के बाद 1971 में देव आनंद ने एक बार फिर अपने हाथों में ताश की गड्डी थामी। यह फिल्म ‘गैम्बलर’ थी, जिसमें देव आनंद के किरदार को उसकी मां बचपन में ही त्याग देती है। इस बच्चे की परवरिश एक आपराधिक व्यक्ति करता है। यह बच्चा ताश के पत्तों के खेल में माहिर हो जाता है। इस फिल्म में देव आनंद के साथ जहीदा थीं। ‘गैम्बलर’ में नीरज के गीत और सचिन देव बर्मन का संगीत था, जो बहुत लोकप्रिय हुआ। इसमें शत्रुघ्न सिन्हा भी एक अलग ही अंदाज में दिखाई दिए थे।

सिनेमा के परदे के जुए ने भोली-भाली इमेज वाले राज कपूर को भी अपने आगोश में लेने से गुरेज नहीं किया। ‘श्री 420’ में जब काली कमाई कर फिल्म का नायक मालामाल हो जाता है, तो नादिरा उसे अपने मायाजाल में फंसाकर पत्तों की दुनिया में ले जाती है। लेकिन, फिल्म समाप्त होते-होते वह फिर से अपनी प्रेमिका नरगिस के पास लौटकर कह ही देते हैं मैने दिल तुझको दिया! याद नहीं आता कि हिन्दी सिनेमा की त्रिमूर्ति के तीसरे नायक दिलीप कुमार ने किसी फिल्म में जुआरी की भूमिका निभाई हो। लेकिन, असल जिंदगी में दिलीप कुमार पत्ते खेलने में उस्ताद माने जाते थे। जब उनके हाथों में ताश की गड्डी होती, तो वे पत्ते फेंटकर बांटते हुए यह जान जाते थे, कि किस व्यक्ति के पास कौन से पत्ते हैं। इस सदी के महानायक का तमगा लगाए बैठे अमिताभ ने भी परदे पर जुए को अपनाया। 1979 में शक्ति सामंत के निर्देशन में बनी फिल्म ‘द ग्रेट गैम्बलर’ में अमिताभ एक ऐसे बड़े जुआरी की भूमिका में थे, जिसने कभी कोई खेल नहीं हारा था। ‘ग्रेट गैम्बलर’ एक्शन थ्रिलर थी जिसमें अमिताभ दोहरी भूमिका में थे। एक अमिताभ गैम्बलर होता है, जिसकी बांहों में जीनत अमान थी तो दूसरा पुलिसवाला जिसकी बांहों में नीतू सिंह। यह फिल्म अपनी विदेशी लोकेशंस और गीतों के कारण खासी चर्चित हुई थी।

बॉलीवुड ही नहीं हॉलीवुड में भी आपराधिक पृष्ठभूमि वाली फिल्मों में भी जुए के दृश्य आम होते है। जेम्स बांड की फिल्मों में इस तरह के दृश्य दर्शकों ने हमेशा ही देखे होंगे। ‘कसीनो रॉयल’ ऐसी ही फिल्म थी। वहां कैसिनो नाम से दो बार फिल्में चुकी है। 1995 में आई मार्टिन स्कॉर्सेसी की फिल्म ‘कसीनो’ में रॉबर्ट डे नीरो और शेरोन स्टोन मुख्य भूमिकाओं में थे। इसकी कहानी सैम नाम के एक आदमी की है, जो लास वेगास जाकर एक कैसीनो चलाता है, पर बाद में अंडरवर्ल्ड का हिस्सा बन जाता है। 1999 में आई फिल्म ‘क्रूपर’ एक लेखक की कहानी थी, जो पैसे कमाने के लिए एक कसीनो में क्रूपर (यानी जुए) के खेल में सहयोगी का काम करने लगता है। लेकिन, यह काम उसकी पूरी जिंदगी को इस कदर अपने कब्जे में ले लेता है कि वह लेखक से अपराधी बन जाता है। माइक हॉज के निर्देशन में बनी इस फिल्म में क्लाइव ओवेन, केट हार्डी और एलेक्स किंग्स्टन मुख्य भूमिकाओं में थे।

2014 में आई ‘द गैम्बलर’ एक अमेरिकी क्राइम ड्रामा फिल्म थी। इसके निर्देशक रुपर्ट वायट थे, जो एक प्रोफेसर होते हैं, जिसको जुआ खेलने की बहुत लत होती है। मार्क वॉलबर्ग इस फिल्म में मुख्य भूमिका में थे। ‘हाई रोलर’ एक बायोपिक फिल्म थी, जो अमेरिका के प्रोफेशनल पोकर खिलाड़ी स्टू उंगार के जीवन पर बनी थी। 2003 में रिलीज हुई इस फिल्म की कहानी एक फ्लैशबैक में चलती है। एक बुकी का बेटा जो कई तरह के ड्रग्स की लत से निकलकर एक बड़ा पोकर खिलाड़ी बन जाता है। लेकिन, हिंदी फिल्मों में जुआरी ऐसा विषय नहीं रहा, जो हमेशा बिकाऊ रहा हो! 70 और 80 के दशक की फिल्मों में अकसर ऐसे दृश्य जरूर दिखाई दिए, जब नायक किसी मज़बूरी में जुआखाना जाता है। पर, पूरी फिल्म का कथानक जुआरी पर टिका हो, ऐसा बहुत कम हुआ है।