Silver Screen: सिनेमा की अनूठी डगर … गांव, कस्बे और शहर!

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Silver Screen: सिनेमा की अनूठी डगर … गांव, कस्बे और शहर!

फिल्म बनाते समय फिल्मकारों की कोशिश रहती है, कि वे फिल्म में नए-नए कारणों से रोचकता लाएं, ताकि दर्शक आकर्षित हों! इसलिए वे अपनी फिल्म के शीर्षकों, गीतों या फिल्म के कथानकों में उन जगहों को शामिल करते हैं, जो दर्शकों के जाने-पहचाने हों या जिन्हें देखने की दर्शकों को तमन्ना हो। यही वजह है कि फिल्म निर्माण से लेकर आज तक फिल्मों में जब भी जहां भी फ़िल्मकार को मौका मिलता है, वे शहरों, गांवों, कस्बों या प्रदेशों के नाम शामिल करते हैं। फिल्म में जाने-पहचाने शहरों, गांवों, स्थानों के नाम का इस्तेमाल किए जाने से वे चर्चित हो जाते हैं। कई बार छोटे कस्बे के दर्शक अपने कस्बे या गांव का नाम आने पर इतने गदगद होते हैं कि वे फिल्म को बार-बार देखकर लोकप्रिय बना देते हैं। फिल्मों में रियलिज्म का दौर भी तेजी से प्रचलन में आ रहा है। रियल स्टोरी और रियल लोकेशन की चाह में कई निर्देशक शहरों के असली नामों का इस्तेमाल भी करते हैं। खास बात ये है कि ये नाम सिर्फ फिल्मों की स्क्रिप्ट ही नहीं, बल्कि कभी-कभी फिल्म के टाइटल तक भी जगह बना लेते हैं।

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फिल्मों के शीर्षक की बात की जाए तो पहले दर्शकों में बंबई और दिल्ली का बहुत क्रेज था। अधिकतर लोग इन बड़ी जगहों पर जाने से कतराते थे। कोई कभी दिल्ली या मुंबई देख आता तो महीनों तक वहां के किस्से सुनाया करता था। इसी बात को भुनाते हुए कई निर्माता निर्देशकों ने इन शहरों के नाम अपनी फिल्मों के शहरों में इस्तेमाल किए है। सबसे पहले बंबई, बाम्बे या आज की मुंबई की बात की जाए तो मरीन ड्राइव (1955) मिस बॉम्बे (1957) क्या ये बॉम्बे है (1959) बॉम्बे का बाबू (1960), बॉम्बे का चोर (1962),हॉलिडे इन बॉम्बे (1963) मिस्टर एक्स इन बॉम्बे (1964), बॉम्बे रेसकोर्स (1965) बम्बई रात की बाहों में (1967 ) बाम्बे टू गोवा (1972),बॉम्बे बाय नाइट (1979), बॉम्बे 405 मील (1980), ), सलाम बॉम्बे (1988) बॉम्बे (1995) , बॉम्बे बॉयज़ (1998) मुंबई से आया मेरा दोस्त (2003) मुंबई मैटिनी (2003),शूटआउट एट लोखंडवाला (2007) मुंबई सालसा (2007), मुंबई मेरी जान (2008), बाम्बे टू बैंकॉक (2008), वंस अपॉन ए टाइम इन मुंबई (2010), मुंबई कनेक्शन (2011),मुंबई मिरर (2013) ,लव इन बॉम्बे (2013) वन्स अपॉन ए टाइम इन मुंबई दोबारा! (2013) शूटआउट एट वडाला (2013), बॉम्बे टॉकीज (2013), मुंबई दिल्ली मुंबई (2014),मुंबई कैन डांस साला (2014), मिडसमर मिडनाइट मुंबई (2014) जैसी फिल्में बनी और चली भी।

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बंबई (या मुंबई) के बाद नंबर आता है दिल्ली का। इस शहर को लेकर भी कई सफल-असफल फिल्मों का निर्माण हुआ है। सबसे पहले दिल्ली शहर पर आधारित फिल्म थी चांदनी चौक (1954) इसके बाद 1957 में राज कपूर की फिल्म ‘अब दिल्ली दूर नहीं’ आई। फिर आई किशोर कुमार और वैजयंती माला की शंकर जयकिशन के संगीत से सजी सफल फिल्म ‘नई दिल्ली।’ 1956 में प्रदर्शित इस फिल्म के दो साल बाद फिर किशोर कुमार ने ही ‘दिल्ली का ठग’ में काम किया। यह फिल्म भी सफल रहीं। इसी क्रम में न्यू दिल्ली टाइम्स (1986), नई दिल्ली (1988), दिल्ली हाइट्स (2007), दिल्ली-6 (2009) चांदनी चौक टू चाइना (2009), दिल्ली बेली (2011), दिल्ली चलो (2011), दिल्ली सफारी (2012), क्या दिल्ली क्या लाहौर (2014) जैसी फिल्मों ने दिल्ली का नाम मशहूर किया।

यही सिलसिला बनाते हुए पंजाब मेल (1939), हैदराबाद की नाज़नीन (1952) झाँसी की रानी (1956), हावड़ा ब्रिज (1958), लव इन शिमला (1960) बनारसी ठग (19620), कश्मीर की कली (1964) जौहर इन बॉम्बे (1967), रोड टू सिक्किम (1969), हैदराबाद ब्लूज़ (1998), पंचवटी (1986), बनारसी बाबू (1997), भोपाल एक्सप्रेस (1999), मिशन कश्मीर (2000), कलकत्ता मेल (2003), वेलकम टू सज्जनपुर (2008), गैंग्स ऑफ वासेपुर (2012), चेन्नई एक्सप्रेस (2013), देहरादून डायरी (2013), मद्रास कैफे (2013), गो गोवा गॉन (2013), जिला गाजियाबाद (2013), बदलापुर (2015), लखनऊ इश्क (2015) और बॉम्बे वेलवेट (2015) फिल्मों ने ऐसे ऐसे शहरों से दर्शकों को वाकिफ कराया, जिसका नाम उन्होने पहले कभी सुना नहीं था। अर्जुन कपूर और संजय दत्त की फिल्म ‘पानीपत’ भी इसका उदाहरण है।

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अब कुछ ऐसी फ़िल्में जिन्हें उनके ऐसे ही शीर्षकों ने लोकप्रिय बनाया। 90 के दशक में कश्मीर में बढ़ती आतंकियों घटनाओं के बीच ‘मिशन कश्मीर’ फिल्म आई। इस फिल्म में ऋतिक रोशन, संजय दत्त और प्रीति जिंटा मुख्य मुख्य भूमिका में नजर आए थे। ‘मुंबई मेरी जान’ इस शहर के मिडिल क्लास लोगों के अनुभवों पर आधारित फिल्म थी। इसमें मुंबई की स्पिरिट को पेश किया गया था। फिल्म में केके मेनन, सोहा अली खान और आर माधवन जैसे कलाकार थे। राकेश ओमप्रकाश द्वारा निर्देशित फिल्म ‘दिल्ली-6’ में अभिषेक बच्चन और सोनम कपूर ने मुख्य भूमिका निभाई थी। इस फिल्म में पुरानी दिल्ली और नई दिल्ली के कई हिस्सों को दिखाया गया था। एआर रहमान के संगीतबद्ध किए ‘ये दिल्ली है मेरे यार’ गीत ने लोकप्रियता निभाने में मदद की थी। ‘लखनऊ सेंट्रल’ फिल्म में कैदी फरहान को म्यूजिक का काफी क्रेज होता है। वो जेल में मौजूद बाकी लोगों के साथ बैंड बनाता है और जेल को तोड़ने की कोशिश करता है। ‘जिला गाजियाबाद’ गैंगस्टर बबलू श्रीवास्तव की जिंदगी पर आधारित थी। फिल्म में दो दुश्मन ग्रुप दिखाए गए थे। फिल्म के प्लॉट से स्पष्ट है कि इस फिल्म से लोगों के दिल में गाजियाबाद शहर को लेकर अच्छी छवि नहीं बनी थी। आयुष्मान खुराना, कृति सेनन और राजकुमार राव की फिल्म ‘बरेली की बर्फी’ कामयाब फिल्मों में एक थी। इस फिल्म में बरेली की गलियों को दिखाकर छोटे शहर की लाइफ को हल्के-फुल्के अंदाज में पेश किया गया था।

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अनुराग कश्यप निर्देशित फिल्म ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ को देश के साथ विदेशों में ही सराहा गया। वासेपुर की अंतड़ियों में शूट किए हिंसक और विवादित दृश्यों के चलते कुछ संगठन ने ये भी कहा था कि कश्यप की फिल्म से उनके शहर की इमेज इमेज पर नेगेटिव प्रभाव पड़ा है। ‘बॉम्बे’ फिल्म हिंदू-मुस्लिम के बीच मोहब्बत पर आधारित थी। फिल्म में एक कपल बेहतर जीवन की तलाश में मुंबई पहुंचता है, जहां उन्हें नई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इसे डायरेक्टर मणिरत्नम की शानदार फिल्मों में गिना जाता है। फिल्मों में ही नहीं वेब सीरीज में भी अब यही फार्मूला आजमाया जाने लगा है। पंकज त्रिपाठी की वेब सीरीज ‘मिर्जापुर’ ने अपने हिंसक और बोल्ड डायलॉग से लोगों का ध्यान आकर्षित किया। इस वेब सीरीज की कहानी भी काफी पसंद की गई है और सीरीज के बाद से मिर्जापुर शहर चर्चा में आया। देश ही नहीं विदेशों के कई शहरों को भी हिन्दी फिल्मों ने सेल्यूलाइड पर उतारा। इनमें लव इन टोक्यो, नाइट इन लंदन, सिंगापुर, चाइना टाउन, चाइना गेट, चांदनी चौक टू चाइना, हांगकांग, लंबू इन हांगकांग, जौहर महमूद इन हांगकांग, जौहर महमूद इन गोवा और ‘गो गोवा’ जैसी फिल्में शामिल है।

फिल्मी शीर्षकों के अलावा फिल्मी गानों में भी देश-विदेश के शहरों के तराने खूब गूंजे। पुरानी फिल्मों से लेकर नई फिल्मों तक में ऐसे कई गाने बने, जिनमें शहरों के नाम आए हैं। कुछ गाने पूरी तरह उन शहरों पर ही आधारित हैं, तो कुछ में बस थोड़ा सा जिक्र भर हुआ। अशोक कुमार की ‘आर्शीवाद’ ऐसी फिल्म है जिसके गीत रेल गाड़ी में सबसे ज्यादा शहरों के नामों को शामिल किया गया। ऐसे ही शहरों को लोकप्रिय करने वाले गीतों में ये दिल्ली है मेरे यार (दिल्ली 6), काट कलेजा दिल्ली (नो वन किल्ड जेसिका), तुझसे मिलना पुरानी दिल्ली में (बंटी-बबली का कजरारे कजरारे), दिल्ली की सर्दी (जमीन), बंबई से आया मेरा दोस्त (आप की खातिर), ये है बंबई मेरी जान, ई है बंबई नगरिया तू देख बबुआ (डॉन), शोला है या है बिजुरिया, दिल की बजरिया मुंहई नगरिया (टैक्सी नं 9211),अपना बॉम्बे टॉकीज (बॉम्बे टॉकीज), केरल में गरमी है नैनीताल से सर्दी भेजो जो ‘सिर्फ तुम’ फिल्म के गीत ‘पहली पहली बार मोहब्ब्त की है’ का अंतरा है।

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इसके अलावा टिकट खरीद के बैठ जा सीट पे निकल न जाए कहीं चेन्नई एक्सप्रेस (चेन्नई एक्सप्रेस), कश्मीर मैं तू कन्याकुमारी (चेन्नई एक्सप्रेस), काश्मीर की कली हूं मैं (जंगली), हाय रे मेरा घाघरा, बगदाद से लेके दिल्ली वाया आगरा (ये जवानी है दीवानी), टाइम फॉर कैलकटा किस (ब्योमकेश बक्शी), पंजाब द पुत्तर है पिंड जलंधर (2 स्टेट्स), झुमका गिरा रे बरेली के बाजार में (मेरा साया), बंबई से गई पूना पूना से गई दिल्ली दिल्ली से गई पटना (हम हैं राही प्यार के), शिरडी वाले साईं बाबा (अमर अकबर एंथोनी), खईके पान बनारस वाला (डॉन), ये लखनऊ की सरजमीं (चौदहवीं का चांद), ए शहर-ए-लखनऊ तुझे मेरा सलाम है (पालकी) मैं बंबई का बाबू (नया दौर ) ये है बॉम्बे मेरी जान (सीआयडी) को दर्शक बड़े चाव से गुनगुनाते हैं।

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अन्य शहरों की तरह इंदौर और भोपाल का भी फिल्मों में समय-समय पर अच्छा उपयोग किया गया। किशोर कुमार और मीना कुमारी की फिल्म ‘नया अंदाज’ में नायक-नायिका की नाटक मंडली जिन शहरों में जाती है उनमें इंदौर भी होता है। ‘बरसात की रात’ में केएन सिंह की बेटी मधुबाला और फक्कड़ गायक भारत भूषण घर से भागकर इंदौर की रानी सराय में ठहरते हैं। एक दिन केएन सिंह को रेडियो पर भारत भूषण का गीत सुनाई देता है ‘जिंदगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात’ और गाने के तुरंत बाद जब उद्घोषक कहता है यह इंदौर रेडियो स्टेशन है और अभी आप जाने-माने गायक से गीत सुन रहे थे। इस पर केएन सिंह अपने गुर्गों को बुलाकर कहता है इंदौर जाओ और दोनो को पकड़कर लाओ। फिल्म ‘धर्मा’ के क्लाइमेक्स में तवायफ बिंदू खलनायक प्राण से कहती है ‘दिवाली की रात में इंदौर के राज दरबार से मुजरा करके आ रही थी, तो रास्ते में उसे एक बच्चा मिला।’ फिल्म ‘हमारे तुम्हारे’ फिल्म में संजीव कुमार इंदौर, भोपाल वालों के उच्चारण दोष पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं तुम इंदौर भोपाल वाले गोरी को गौरी कहते हो।

सदी के महानायक अमिताभ के मुंह से भी फिल्म ‘डॉन’ में इंदौर का जिक्र हुआ। डॉन का अमिताभ बड़बोला है, वो अपने आपको हर क्षेत्र का उस्ताद बताता है। एक दृश्य में जब वह पहलवानों से घिर जाता है, तब एक पहलवान को धोबी पछाड़ मारकर कहता है ‘हम भी विजय बहादुर पहलवान इंदौर वाले के चेले रह चुके हैं।’ फिल्म ‘नौ दो ग्यारह’ में देवानंद इंदौर से गुजरते हुए इंदौर रेलवे स्टेशन पर जाकर चलो महू महू चलो की आवाज लगाते हैं। ‘चोरी मेरा काम’ में भी जीनत अमान इंदौर का हवाला देती है, तो ‘शोले’ में सुरमा भोपाली जगदीप गप्पे मारते हुए कहता है अपना भोपाल होता तो …! किशोर कुमार दुनिया में कहीं भी शो करते तो शुरुआत में अपना परिचय देते हुए कहते थे ‘मेरे बहनों भाइयों लोगों और लुगाइयों आप सभी को किशोर कुमार खंडवे वाले का नमस्कारम।

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हेमंत पाल

चार दशक से हिंदी पत्रकारिता से जुड़े हेमंत पाल ने देश के सभी प्रतिष्ठित अख़बारों और पत्रिकाओं में कई विषयों पर अपनी लेखनी चलाई। लेकिन, राजनीति और फिल्म पर लेखन उनके प्रिय विषय हैं। दो दशक से ज्यादा समय तक 'नईदुनिया' में पत्रकारिता की, लम्बे समय तक 'चुनाव डेस्क' के प्रभारी रहे। वे 'जनसत्ता' (मुंबई) में भी रहे और सभी संस्करणों के लिए फिल्म/टीवी पेज के प्रभारी के रूप में काम किया। फ़िलहाल 'सुबह सवेरे' इंदौर संस्करण के स्थानीय संपादक हैं।

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