मतदान में निरंतर कमी पार्टियों या स्थानीय नेताओं पर तमाचा

1587

प्रचार पर करोड़ों खर्च हुआ | आत्म प्रशंसा या नेताओं के गुणगान या विरोधियों की निंदा के लिए अब तो डिजिटल मीडिया यानी मोबाइल , फेसबुक , यूट्यूब , ट्वीटर , इंस्टाग्राम , मेसेंजर , कू , स्थानीय , प्रादेशिक से राष्ट्रीय टी वी चैनल , वेबसाइट  इस्तेमाल होने लगी | पुराने ढर्रे पर लेकिन अधिक चमकदार और बड़े होर्डिंग , पोस्टर , अख़बारों में पूरे पूरे पेज के विज्ञापन , रोशनी , पूजा पाठ , जुलुस ( रोड शो नया रूप ) , खाने पीने के साथ अपनी अपनी हैसियत से रूपये , थोड़ा बहुत डंडे का डर भी चला |

पश्चिमी देशों और देशी विदेशी कंपनियों की मार्केटिंग के लिए किये जाने वाले सर्वे की कुछ पेशेवर कंपनियां उत्पाद और खपत की तरह चुनावी मूड का मोटा अनुमान दो तीन दशकों से देती रहीं हैं | कभी सही निकालता है और कई बार गलत साबित होता रहा | लेकिन अब तो ऐसी कंपनियों के अलावा पार्टियों की अथवा फर्जी कागजी कंपनी को भी राजनीतिक पार्टियां करोड़ों रुपया देकर वोटर का मूड और चुनावी जीत हार का निष्कर्ष निकलवाकर अपने बिगुल ढोल बजाते रहते हैं |

रही सही कसर प्रशांत किशोर जैसे प्रबंधक / ठेकेदार नेताओं या पार्टियों के समीकरण पर एक दो हजार करोड़ बना लेते हैं | हाँ , आधुनिकतम भारत और आर्थिक क्रांति के बावजूद ज्योतिष बताने और चुनावी परिणाम की भविष्यवाणी के लिए भी कम खर्च नहीं हो रहा | दुनिया का कोई कानून हमारे सट्टा  बाजार में चुनावों की हवा बनाने या विरोधी की बिगाड़ने पर करोड़ों का खर्च नहीं रोक सका है |

इतना सब होते हुए भी उत्तर प्रदेश  विधान सभा के के सबसे प्रमुख कहे जाने वाले चुनाव क्षेत्रों – अमेठी , रायबरेली , अयोध्या , गोरखपुर में भी करीब 52 प्रतिशत मतदान होना क्या खतरे की घंटी नहीं है ? जागरूक शहरी इलाके में यदि 48 प्रतिशत मतदाता वोट डालने के लिए दिल दिमाग नहीं बना पा रहे , तो क्या  कुछ निराशा या नाराजगी होगी ? फिर यह केवल इन चुनाव क्षेत्रों की बात नहीं है |

क्या नेता और पार्टियां यह उत्तर देकर संतुष्ट कर सकती हैं कि प्रदेश के अन्य चुनाव क्षेत्रों में  औसतन 58 या 65 प्रतिशत तक मतदान हुआ है ? मतलब जो गरीब या मध्यम वर्ग या अमीर 30 – 40 प्रतिशत वोट नहीं दे तो क्या फर्क पड़ता है , किसी समय  कश्मीर और कुछ अन्य इलाकों में 20 – 25 प्रतिशत वोट पड़ने पर भी सरकार बन जाती थी | यदि उदासीनता नहीं है , तो जिस तरह वोट देने के लिए गुपचुप गरीब मतदाताओं को नोट बांटने की कोशिश होती रही है , अब लाठी बन्दुक के भय के बजाय नोट देकर वोट नहीं देने के फॉर्मूले से चुनावों को प्रभावित किया जा रहा है ?

यह मेरी निजी आशंका नहीं है , भारत के योग्य अनुभवी पूर्व प्रमुख चुनाव आयुक्त एस वाई  कुरैशी  ने सात साल पहले अपनी किताब में अवैध चुनावी खर्च के तरीकों में पांचवा तरीका वोट नहीं देने के लिए खर्च के रूप में बताया हुआ है | श्री कुरैशी के अनुसार इस तरीके में किसी पार्टी या उम्मीदवार के प्रतिबद्ध वोटर को वोट न करने के लिए विरोधी पक्ष / प्रत्याशी द्वारा मतदाताओं को दी गई राशि को अवैध चुनावी खर्च माना जाएगा |

वैसे , वोट काटने के लिए डमी प्रत्याशी खड़े करने पर होने वाला खर्च भी क़ानूनी रूप से अवैधानिक है | मैंने कुछ क्षेत्रों का उल्लेख केवल उनके बहुचर्चित और प्रतिष्ठित होने के कारण किया है , अन्यथा वोटर को प्रभावित करने के लिए इस बार भी उत्तर प्रदेश , पंजाब , उत्तराखंड , गोवा , मणिपुर में नेताओं और पार्टियों ने वैध या अवैध तरीके अपनाने के प्रयास किए हैं |

 वास्तव में पार्टियों के जमीनी नेता मतदाताओं की नब्ज पहचानते हैं  , वे मतदाताओं से जीवित संपर्क में विश्वास करते हैं | पहले साधन सुविधाएं कम थी , लेकिन पार्टी के नेता ही नहीं उनके कार्यकर्ता गली मोहल्लों और घरों में नियमित रूप से आते जाते थे |  पार्टियों को सहयोग देने वाले संगठन किसी न किसी रूप में जुड़े रहते थे | आज भी भाजपा  के लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के स्वयंसेवकों की सक्रियता का लाभ मिलता है |

कांग्रेस , समाजवादी , कम्युनिस्ट पार्टियों के पास भी संगठन और कार्यकर्त्ता होते थे | संगठन की शक्ति समझने के कारण अपनी लोकप्रियता रहते हुए बार बार संगठन और कार्यकर्ताओं को सक्रिय रहने का आग्रह करते रहे हैं | कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी भी संगठन को मजबूत करने की बात वर्षों तक करती रही हैं | लेकिन भाजपा , कांग्रेस , समाजवादी , आम आदमी पार्टी या शिव सेना या कमजोर कम्युनिस्ट पार्टियों या उनके समर्थक संगठनों में कुछ ऐसे प्रभावशाली लोग आ गए हैं , जो डिजिटल सोशल मीडिया से सम्पर्क , लड़ने और जीतने की ग़लतफ़हमी पाले हुए हैं |

इसलिए जहाँ  कार्यकर्ता सरकारी   विज्ञापनों की तरह कागजी हवाई संपर्क अभियान करने लगे , वहां वे सीधे मतदाताओं से कटते चले गए हैं | जिन इलाकों में जीवंत संपर्क होता रहा , वहां लोगों ने मतदान किया | मणिपुर सबसे ताजा प्रमाण है , जहाँ इस बार विधान सभा के पहले चरण में भी 78 से 80 प्रतिशत तक मतदान हुआ | इम्फाल और कांगपोकपी  में तो 82 प्रतिशत तक मतदान हुआ | उत्तराखंड और गोवा में भी अधिक मतदान होता है | ग्रामीण क्षेत्रों में मतदान के प्रति उत्साह लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत है | लेकिन शहरी और युवा वर्ग में पार्टियों और नेताओं के प्रति बढ़ रही नाराजगी या उदासीनता लोकतंत्र के लिए घातक है |

इस सन्दर्भ में चुनाव आयोग और अदालतों द्वारा चुनाव सुधारों के लिए वर्षों से विचाराधीन सिफारिशों पर सरकारों और सभी राजनैतिक दलों को सर्वानुमति बनानी चाहिये | उम्मीदवारों के चयन में धन , बाहुबल का तात्कालिक लाभ उन्हें भले ही मिलता हो , व्यवस्था की विश्वसनीयता कम होती जा रही है |

किराए पर ली गई कंपनियों के कर्मचारियों के बजाय संगठनों के समर्पित कार्यकर्ताओं को महत्व मिलना चाहिये | डंडे के बल पर राज अधिक समय नहीं चलाया जा सकता है | फिर हर कार्यकर्ता बेईमान नहीं होता और सामान्य नागरिक – मतदाता अपने छोटे मोटे काम समस्या लेकर जाते हैं | उनको सुनना मिलना और यथासंभव सहायता करने से वे चुनाव में भी रूचि लेते हैं | पश्चिमी देशों के मतदाताओं और सर्वेक्षणों की सामाजिक आर्थिक परिस्थितियां भिन्न हैं | भारत और भारतीयों के लोकतंत्र के लिए जमीनी काम अभी कई वर्षों तक जरुरी होगा |

( लेखक आई टी वी नेटवर्क – इंडिया न्यूज़ और आज समाज दैनिक के संपादकीय निदेशक हैं )