स्मृति शेष: सबसे अलग थे महेश पांडे जी (Mahesh Pandey Ji);

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स्मृति शेष: सबसे अलग थे महेश पांडे जी (Mahesh Pandey Ji);

अपने जमाने के धाकड़ पत्रकार महेश पांडे जी आज लम्बी बीमारी के बाद भूलोक से प्रस्थान कर गए. सबको जाना होता है, लेकिन जैसे वे गए वैसे कोई नहीं जाता. महेश जी न आपने पीछे कोई चिन्हार छोड़ गए और न कोई वसीयत. उनकी छवियां हम जैसे लोगों के दिल में हैं लेकिन कैमरे से खींचा उनका एक फोटो हमारे पास नहीं है. हम तो हम, गूगल के पास नहीं है. गूगल तो छोड़िये उनके भतीजे पत्रकार ऋषिकुमार पांडे की फेसबुक में नहीं है. अब आप हम सब उन्हें खोजते रहेंगे लेकिन वे नहीं मिलेंगे.

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महेश पांडे पैदायशी पत्रकार नहीं थे, उन्होंने पत्रकार बनने के बारे में शायद कभी सोचा भी न होगा. वे तो प्राध्यापक थे, अच्छी खासी नौकरी थी लेकिन अचानक पत्रकारिता में अवतरित हुए तो धूमकेतु की तरह चमके और अपनी रौशनी बिखेरकर नीलाकाश में कहीं समा गए. मैं उनसे साल 1983 के अंत में मिला था. ये साल हिंदी पत्रकारिता में एक नए युग का श्रीगणेश करने वाला था. हिंदी पत्रकारिता को नयी दिशा देने वाले इंडियन एक्सप्रेस समूह के हिंदी अखबार ‘जनसत्ता’ के लिए वे भोपाल के प्रमुख बनाये गए और मै ग्वालियर अंचल से संवाददाता बनाया गया.

पहली बैठक भोपाल में हुई. अखबार के प्रधान सम्पादक श्री प्रभाष जोशी जी ने सभी का एक दूसरे से परिचय कराया. परिचय को प्रगाढ़ता में बदलने में बहुत देर लगी. ग्वालियर दिल्ली के सबसे नजदीक का प्रदेश का सबसे बड़ा शहर था सो ग्वालियर को जनसत्ता में पूरे प्रदेश के दूसरे शहरों से ज्यादा स्थान मिलता था. कभी-कभी भोपाल से भी ज्यादा. अखबार प्रदेश के किसी भी शहर में सबसे पहले ग्वालियर ही आता था सो भोपाल की खबरें देखने के लिए अक्सर महेश जी सुबह-सुबह मुझे फोन करते थे. महेश जी खतरनाक ब्यूरो चीफ थे. सबकी खबरों पर बारीक नजर रखते थे, मेरे ऊपर उनकी ख़ास नजर रहती थी. तब न टीवी था, न मोबाइल सो कभी-कभी पुराने फोटे खबरों के साथ भेजने की हिमाकत भी हो जाती थी. वे फौरन गलती पकड़ते, खत लिखते, डांटते फिर समझाइश देते. ऐसे ही गर्मी की एक खबर में मैंने ऐसा फोटो भेज दिया जिसमें लोग स्वेटर पहने थे. पांडे जी ने पकड़ा, डांटा फिर सब भूल गए.

साल दर साल बीतते गए और प्रगाढ़ता बढ़ती गयी, कभी-कभी अदावत भी हुई लेकिन मनमुटाव कभी नहीं हुआ. मैं प्रभाष जी का प्रिय था इसलिए भी पांडे जी मुझ पर ख़ास नजर रखते थे. साल 1984 में हुए आम चुनाव और बाद में ग्वालियर में हुई दो शाही शादियों के समय जनसत्ता के कव्हरेज की प्रामाणिकता ने पांडे जी को मेरे प्रति दयालु बना दिया. वे खुद ग्वालियर कव्हरेज के लिए आते. स्टेशन पर इंडिया होटल के सबसे सस्ते कमरे में ठहरते और मेरी मोपेड पर ही पूरा शहर घूमते. कभी एक कप चाय मेरे पैसे से नहीं पी. हाँ बाद में घर जाकर भोजन करने में उन्होंने कोई संकोच नहीं किया.

जनसत्ता के दस साल की दसियों कहानियां हैं, उन्हें छोड़िये, लेकिन जब मैंने जनसत्ता छोड़ा तो उसकी वजह भी पांडे जी ही बने. मैं निजी कारणों से जनसत्ता को पूरा वक्त नहीं दे पा रहा था सो उन्होंने मुझे मुक्ति दिलाते हुए मेरे एक कनिष्ठ साथी को संवाददाता बनवा दिया, लेकिन जनसत्ता से मुक्ति के बाद हमारे रिश्ते अचानक प्रगाढ़ हो गए. ऐसा कोई सप्ताह न होता जब वे मुझसे फोन पर लम्बी बात न करते और ऐसा कोई महीना न होता जब मै भोपाल जाकर उनसे न मिलता होऊं.. वे बेहद अंतर्मुखी और निर्मोही स्वभाव के पत्रकार थे. उनके हिस्से में भोपाल के एक सरकारी मकान के अलावा और कुछ नहीं आया था.

वे मितभाषी भी थे और धन कमाने में भी उनकी कोई खास रूचि नहीं थी. वे अपनी दोनों बेटियों को अच्छा पढ़ा-लिखा सके ये ही सबसे बड़ा संतोष था उन्हें. बीबीसी के लिए काम करते हुए भी मैं सदैव उनका संवाद सूत्र रहा. मुझे पॉन्ड्स में अनेक भुगतान उन्होंने ही कराये. उन्हें शायद अतीत में मेरे साथ बरती गयी बेरहमी पर क्षोभ रहा होगा, जिसकी भारपाई वे अपना भ्रातृत्व उड़ेलकर कर देना चाहते थे. वे आदरणीय प्रभाष जोशी का आगाध सम्मान करते थे, उनके सामने कभी ऊंची आवाज में नहीं बोले लेकिन उन्होंने अपनी बात रखने में कभी कोई कोताही नहीं की.

बात 2008 की है जब उन्होंने मध्य प्रदेश में सूचना आयुक्त बनने का प्रस्ताव स्वीकार किया तो मैंने उन्हें टोका, टोका क्या उलाहना दिया कि गुरु जी ताउम्र मुझे सत्ता सुख से दूर रखने की सलाह देने वाले आप ये सब क्या कर रहे हैं? तो वे मुस्कराकर बोले थे- ‘सरकार ने अपनी तरफ से ऑफर भेजा है, मैंने अपनी ओर से आवेदन नहीं किया. शायद यही सच्चाई थी, उनका आवेदन बाद में मंगाया गया.

संयोग से उन्हें ग्वालियर अंचल का ही प्रभार मिला था. उन्होंने एक बार भी मुझे अपने काम में झाँकने नहीं दिया बल्कि एक-दो प्रकरणों में उन अधिकारियों को समझाइश देने के लिए जरूर संकेत दिए जो हितग्राही को सूचना के अधिकार से वंचित रखना चाहते थे.

ये तय है कि यदि उन्हें ये मौक़ा न मिलता तो वे गंभीर आर्थिक परेशानियों में घिर जाते. उनके पास सीमित जमा पूँजी थी. लेकिन असीमित मालवीय आत्मसम्मान भी था.

महेश जी भयंकर मेहनती पत्रकार थे. भाषा पर तो उनका नियन्त्रण था ही साथ ही वे खबरों को लेकर बेहद निर्मम भी थे. उन्होंने कभी मुझे ऐसी खबर नहीं भेजने दी जिसका की उन्हें खंडन करना पड़ा हो. उन दस सालों में महेश जी ही थे जिनकी वजह से मेरा डंका जमकर बजता रहा. अखबार में हमारे अनेक मित्र ही हमारे प्रतिद्वंदी थे लेकिन महेश जी ने हमेशा मेरा साथ दिया और हर स्तर पर दिया. वे सादगी पसंद थे और शायद मेरा रहन-सहन, खान-पान ही उन्हें मेरा प्रिय बनाये रही. एक दशक से वे भोपाल से बेंगलूर क्या गए. संवाद ही ठहर गया. एक-दो मर्तबा बात गई लेकिन वे बेहद थके और निराश लगे. बाद में मैंने उनका सम्पर्क सूत्र खोजने की बहुत कोशिश की लेकिन बात नहीं हो सकी. 2019 में मैंने उनके भतीजे ऋषि से भी उनका नंबर माँगा लेकिन निराशा ही हाथ लगी.

आज महेश जी के जाने से मैं बहुत आहत हूँ, क्योंकि उनके जैसे लोग अब बचे ही कितने हैं जो खुद्दार हों, जो आत्मसम्मान से समझौता न करते हों और जो दूसरों को गिरने से सम्हालने का जोखिम भी लेते हों. मेरे लिए महेश पांडे कभी नहीं मरने वाले, वे हमेशा सुधियों में जीवित रहेंगे. उनकी फोन पर पैनी आवाज़ हमेशा गूंजती रहेगी मुझे केवल यही अफ़सोस है कि आज उनके बारे में स्मृतियाँ लिखते हुए मेरे पास उनका एक अदद चित्र तक नहीं है. हमने कभी साथ-साथ तस्वीरें उतरवाई नहीं और जहाँ वे काम करते थे वहां उनकी तस्वीरें खोजने पर भी नहीं मिलीं. महेश जी जहाँ भी रहें शांति से रहें और स्मृतियों में आते-जाते रहें.