कोरोना काल (Corona Kal)ने दिखा दी ‘अपने घर’ की अहमियत

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कोरोना काल (Corona Kal) ने दिखा दी ‘अपने घर’ की अहमियत;

याद कीजिए जब कोरोना महामारी अपने चरम पर थी और चारों तरह सब कुछ बंद हो गया था। महानगरों और बड़े शहरों में रहने वाले लोग भयभीत थे कि अब कहां जाएं, क्या करें और कैसे किसी को अपनी व्यथा बताएं, तो उन्हें सबसे पहले अपना घर याद आया होगा। वो घर जिसे वो किसी छोटे शहर या गांव में छोड़ आए थे। उस घर में माँ, पिता, बहन या छोटा भाई होगा! हो सकता है चाचा, चाची और ताऊ जी भी हों! निश्चित रूप से उन्हें वो सब याद आए होंगे! अहसास हुआ होगा कि यहां अकेले डर डरकर रहने से अच्छा है हम घर में होते या घर के वो सारे लोग साथ होते, जिन्हें हम अकेला छोड़ आए! ये पीड़ा तब और बढ़ी होगी, जब उन्होंने महानगरों में काम करने वाले मजदूरों को सर पर गठरी बांधकर पैदल ही घर जाते देखा होगा। उस सफर पर जिसकी मंजिल उन्हें मिलेगी भी नहीं, पता नहीं था! पर, एक जिद थी, अपने घर जाने की। दरअसल, ये कोरोना त्रासदी का सबसे सकारात्मक पक्ष है कि इसने लोगों को संयुक्त परिवार यानी अपने घर की अहमियत बता दी। जो लोग समय पर अपने घर-परिवार में पहुंच गए उनसे उनका सुकून पूछिए! वो अहसास पूछिए जो उन्हें ‘अपने घर’ जा कर महसूस हुआ!                                                            IMG 20220427 WA0040

देखा गया है कि जो लोग संयुक्त परिवार में रहते हैं, वे मानसिक अवसाद का शिकार नहीं होते। क्योंकि, किसी को समस्या को लेकर उनका सोच होता है कि घर वाले साथ हैं, जो होगा निपट लेंगे! जबकि, महानगरों में एक बेडरूम वाले फ्लैट में रहने वाले पति-पत्नी और एक बच्चे वाली कैप्सूल फैमिली हर वक़्त तनाव में घिरे रहते हैं। ऐसे में कोरोना काल ने उनकी परेशानियां ज्यादा बढ़ाई थी! महामारी के दौरान जब घर से काम करने का विकल्प सामने आया तो कई लोगों ने ‘घर’ नहीं छोड़ा! क्योंकि, वे संयुक्त परिवार का हिस्सा बन चुके थे। जब कोरोना का असर कम हुआ तो कई लोग अपना परिवार छोड़कर नहीं लौटे! ये स्थिति मजदूर वर्ग में ज्यादा दिखाई दी! बताते हैं कि 30 से 35 प्रतिशत मजदूर वापस काम करने महानगर नहीं लौटे और अपने गांव में ही छोटा-मोटा काम करके बस गए! ये वो सच्चाई है, जिसने भारतीय समाज का ढांचा बदल दिया।                            IMG 20220427 WA0039

गौतमबुद्ध विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान एवं मानसिक स्वास्थ्य विभाग के एक सर्वे में यह तथ्य सामने आया कि कोरोना महामारी के चलते अकेले रह रहे लोगों में परिवार के साथ रहने की इच्छा बढ़ी है। परिवार के साथ घर पर लम्बा समय बिताने के बाद लोगों ने पहले से अच्छा महसूस किया। यहां तक कि लोग मानसिक तनाव जैसी बीमारी से भी उबर गए। विश्वविद्यालय के इस विभाग ने करीब दो हज़ार लोगों से इस मसले पर टेलीफोन पर लम्बी बातचीत की, तो कई चौंकाने वाले तथ्य उनके सामने आए। विभाग के एचओडी डॉ एपी सिंह के मुताबिक करीब 700 लोगों ने माना कि वे चाहते हैं, कि संयुक्त परिवार में परिजनों के साथ ही रहें, ताकि बेहतर और सुरक्षित रह सकें। जो लोग अक्सर छुट्टियों में अपने घर जाते थे, उनमें जल्दी घर जाने की इच्छा हो रही है। यह सारा बदलाव कोरोना महामारी के चलते हुआ। वे परिवार के साथ समय बिताकर अच्छा महसूस कर रहे हैं। इसका सकारात्मक प्रभाव बच्चों पर भी पड़ा है। कोरोना महामारी के कदम रखने के साथ लोगों में बीमारी को लेकर डर बैठ गया था, वो भी घट गया। करीब 400 लोगों ने माना रोग प्रतिरोधक क्षमता ठीक होने और बचाव करने से किस बीमारी से बचा जा सकता है।            IMG 20220427 WA0041

यह सच है कि परिवार के अस्तित्व के बिना भारतीय समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। बाजारवाद के इस दौर में भले ही हमारे रिश्तों के बंधन कमजोर पड़ गए हों, पर परिवार में प्रेम आज भी बरक़रार है। आधुनिकता की दौड़ में हमने भले ही खुद को बदल लिया है, पर हमारी संस्कृति के मूल में परिवार की जड़ें अभी बरक़रार है, जो हमें संस्कारों से जोड़कर रखती है। हमारी छोटी-बड़ी खुशियां, क़ामयाबी यहां तक कि हमारी उदासियों में भी हमारा परिवार हमारे साथ होता है। एकल परिवार का चलन जरूर बढ़ा, पर इनमें वह प्रेम नहीं, जो संयुक्त परिवार में होता है। बीते दो साल में कोरोना के कहर ने मानव प्रजाति के अस्तित्व को ही संकट में डाल दिया था। लेकिन, इस कहर ने संयुक्त परिवार की अहमियत का बख़ूबी अहसास करा दिया। कई टूटे परिवार फिर से जुड़ गए और लोग परिवार के महत्व को समझने लगे।

महामारी ने लोगों को जता दिया कि अपना घर यानी संयुक्त परिवार क्या होता है। कई बिखरे परिवारों में रिश्तों की महक फिर लौट आई। ये सच है कि संयुक्त परिवार की जो तस्वीर 60 और 70 के दशक में दिखाई देती थी, वह कुछ हद तक फिर दिखाई देने लगी। कई बच्चे जो माता-पिता को छोड़कर विदेशों में बस गए थे, वे भी अपने वतन लौट आए। एक तरफ जहां कोरोना काल ने सोशल डिस्टेंस को बढ़ावा दिया, दूसरी तरफ परिवारों के बीच नज़दीकियां बढ़ा दी। लोग पारिवारिक रिश्तों की कद्र करना सीख गए और ‘बड़े घर’ का चलन फिर शुरू हो गया।

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट इंदौर के सर्वे के मुताबिक कोरोना काल में परिवार के साथ समय बिताने हंसने-मुस्कुराने से न केवल कोरोना का खतरा कम हुआ, बल्कि परिवारों में आपसी स्नेह और अपनापन भी बढ़ गया। कोरोना भले महामारी बनकर दुनिया के लिए संकट लेकर आई हो, पर उसने रिश्तों को मजबूती जरूर दी। कोरोना की कड़वाहट ने निराशा के जो बीज मानव मन में रूप दिए थे, उन्हें परिवार की मिठास ने दूर कर दिया। आज के दौर में शहरों के साथ गांव में भी संयुक्त परिवार दरक रहे हैं। क्योंकि, जो नई पीढ़ी पढ़ने के लिए शहर में आई, वो वापस गांव नहीं गई! वे ये भूल गए कि बच्चों को जो संस्कार परिवार के सानिध्य में मिलते थे, उन्हें कहीं और नहीं सीखा जा सकता। सभी बिखरे परिवार फिर से शायद न भी जुड़े, पर रिश्तों के बीच प्रेम और अपनापन बनाए रखना जरुरी है और कोरोना ने उसका अहसास करवा दिया। आने वाली पीढ़ी को साथ रहकर चलने की सीख देनी होगी, क्योंकि जो टहनियां शाखों से टूट जाती है उनका कोई वजूद नहीं रहता है। हमें अपनी आने वाली पीढ़ी को जोड़े रखने के लिए संयुक्त परिवार की ओर लौटना होगा। तभी हम अपना वर्तमान और आने वाला भविष्य बेहतर कर सकता है। कवि लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’ ने संयुक्त परिवार की अहमियत बताते हुए कहा है ‘एकाकी जीवन सदा, बैठा दुःख की छांव। पड़ जाते परिवार में, बरबस सुख के पांव!’

संयुक्त परिवार के कारण लोगों को तनाव, अवसाद, चिंता, अकेलेपन से भी निजात मिली। अमेरिकी मनोविश्लेषक डेल कारनेगी ने एक किताब लिखी थी, जिसका हिंदी टाइटल है ‘चिंता छोड़ो, सुख से जिओ।’ इस किताब में बार- बार कहा गया है, कि कुछ लाइलाज बीमारियों को छोड़ दें तो कई बीमारियों के मूल में अवसाद, चिंता, अकेलापन और कुछ अन्य मनोविकार होते हैं। यह सब इसीलिए कि लोग अकेले रहने लगे। ‘एम्स’ के निदेशक डॉ रणदीप गुलेरिया भी कह चुके हैं, कि कोरोना की दूसरी लहार के दौरान हालात काबू से इसलिए बाहर जा रहे थे कि लोग जरा सी बात में चिंतित हो रहे थे, आतंकित हो रहे थे और भागदौड़ कर रहे थे। क्योंकि, मौत से बढ़कर होता है मौत का डर। अब यदि पुरातन संयुक्त परिवार प्रथा की समाज में जगह बन रही तो इसे कोरोना के विरूद्ध उम्मीदों भरा आकाश भी कहा जा सकता है।

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सोनम लववंशी

पत्रकारिता में स्नातकोत्तर होने के साथ महिलाओं और सामाजिक मुद्दों की बेबाक लेखिका है। उन्होंने पत्रकारिता के कई संस्थानों में कार्य किया है।