विशेष आलेख – शहीदों को मिले सम्मान – वर्तमान और भावी पीढ़ी को बताएं त्याग और बलिदान

विशेष आलेख – शहीदों को मिले सम्मान – वर्तमान और भावी पीढ़ी को बताएं त्याग और बलिदान

डॉ घनश्याम बटवाल , मंदसौर 

आज़ादी के पिचहत्तर साल ओर नई पीढ़ी में अधिकांश को पता ही नहीं कि स्वतंत्रता कैसे मिली ? आमचुनाव की प्रक्रिया चल रही है और नेताओं अभिनेताओं के साथ मंत्री संत्री सब अपनी ढफली अपना राग गा – बजा रहे हैं । आप सोच रहे होंगे कि दो चरणों के मतदान के बाद शहीदों और बलिदानियों के बारे में चर्चा अप्रांसगिक है ? पर देश के लिए मर खप जाने वालों को यह देश कभी विस्मृत नहीं कर पायेगा । यह धारणा प्रबल है और अटल है ।

अब जब चार जून को मतगणना के साथ परिणाम सामने होंगे , नई सरकार गठित होगी पर देश के त्यागी बलिदानी पीढ़ी और शहीदों को याद भी नहीं किया जाएगा ओर क्यों कोई याद करे , वर्तमान पीढ़ी को संघर्षों की गाथाएं पता ही नहीं जो हैं ।

1857 से पहले भी हिंदुस्तान में स्वतंत्रता का बीजारोपण होचुका था और त्याग बलिदान के साथ संघर्ष का सूत्रपात भी । पर कौन जानता है और कौन मानता है आज आज़ादी के जश्न में पुरातन संघर्षों को भुलाकर आगे बढ़ रहे हैं ।

 

कहने को हमारे देश भारत का इतिहास उन वीर बलिदानी भारत के बेटे-बेटियों से भरा है जिन्होंने स्वतंत्रता पाने के लिए देश हित में बलिदान दिया। इसके साथ ही असंख्य ऐसे हैं जिन्हें कभी न इतिहास में स्थान मिला है, न लोक गाथाओं में, और शिक्षा जगत में तो उनको कभी स्थान मिला ही नहीं। चुनिंदा नाम से आगे जान ही नहीं पाया है यह देश ,

अन्यथा न लें लेखक स्वयं भी बलिदानी पीढ़ी के त्याग और संघर्ष से अनभिज्ञ है ।

पर , देश जानना चाहता है कि किन और किस परिस्थितियों में किस प्रकार का संघर्ष रहा और तत्कालीन पीढ़ी ने की दृढ़ता से सामना किया और आज़ाद भारत के लिए मशाल प्रज्वलित रखी ।

 

देश में शायद ही कोई होगा जो नहीं जानता कि 1857 के संग्राम में यह देखा-सुना गया कि अंग्रेजों ने 1857 की क्रांति विफल होने के बाद गांवों में, शहरों में असंख्य लोगों को फांसी पर लटकाया। यह भी बताया जाता है कि गांवों में जब वृक्षों पर लटकाकर फांसियां दी गईं तो जितनी बड़ी शाखाएं थीं उसके साथ उतने ही व्यक्तियों को फांसी के लिए लटकाया गया। 1857 से लेकर दो वर्ष तक यह दमनचक्र चला। अगर देश उसे ही नहीं जानता ? तो क्या आशा रखी जा सकती है कि उससे पहले के इतिहास की सही जानकारी कभी स्वतंत्र भारत की सरकारों से देशवासियों को मिलेगी ?

 

इसके पश्चात फिर इस सदी की ताजी घटना है कि अंडमान निकोबार की जेल, जिसे काला पानी कहते थे, वहां कितने लोग शहीद हुए, कितने बैलों की तरह कोल्हू में जोते गए। कितने लोगों को फांसी देकर बिना किसी अंतिम संस्कार के सागर में फेंक दिया गया। आज तक देश को इन सारे शहीदों की जानकारी नहीं दी गई। ऐसे में शहीदों की चिताओं पर मेले लगने की बात तो बहुत दूर है, बेमानी है ।

 

स्वतंत्रता के पश्चात जब हम लोगों ने स्कूल में शिक्षा प्राप्त की, स्कूलों की दीवारों पर, हर कक्षा में शहीदों के चित्र लगाए जाते थे, यद्यपि उनकी संख्या सीमित थी। शहीदों के दिन मनाए जाते थे और पाठ्यक्रम में भी इन ज्ञात-अज्ञात वीरों की कहानियां पढ़ाई जाती थीं। बंग भंग आंदोलन जो 1905 से लेकर 1911 तक चला और फिर कलकत्ता से चलकर दिल्ली राजधानी बनाई गई, उस बंग भंग आंदोलन में खुदीराम, कन्हाई, नरेंद्र जैसे कितने वीर हाथ में गीता लिए अंग्रेज सरकार से जूझते हुए फांसी पर चढ़ गए। उनके संबंध में भी देशवासी अधिक नहीं जानते। बहुत दूर की बात क्या की जाए, अमृतसर से दो बेटे 1906 से 1909 के बीच श्री मदनलाल ढींगरा और उसके बाद 1940 में शहीद ऊधम सिंह ने भारत में भारतीय स्वाभिमान और देश भक्ति का जो उदाहरण प्रस्तुत किया वह भी विश्व में अतुलनीय है, लेकिन दुखद सत्य यह है कि इन हुतात्माओं की जन्मभूमि, कर्मभूमि अमृतसर और पंजाब के लोग ही इन वीरों के विषय में अधिक नहीं जानते।

 

देश के विभिन्न हिस्सों के कई अनछुए किस्से ओर पहेली हैं जो अज्ञात है । प्रेरणादायक हो सकते हैं , पर सब ओर सच पता तो चले !

 

यह अच्छी बात है कि 1973 में पहले शहीद ऊधम सिंह की और उसके बाद शहीद मदनलाल ढींगरा की अस्थियां लंदन की पैटन विले जेल से भारत लाई गईं। उनको उचित सम्मान भी दिया गया, पर मदनलाल ढींगरा के साथ न्याय नहीं हुआ, क्योंकि किसी भी सरकार ने उसकी अपनी ही जन्मभूमि अमृतसर में उसको कोई स्थान नहीं दिया। उसका स्मारक नहीं बना और लंबे संघर्ष के बाद जो अब बनाया जा रहा है, वहां भी भवन तो बन गया, लेकिन उसकी आत्मा ढींगरा से संबद्ध साहित्य इंग्लैंड में उसके बलिदान के चिन्ह आज तक भारत नहीं लाए गए, यद्यपि सरकारों को बार-बार आग्रह किया, जगाने का प्रयास किया, पर त्रेता में एक कुंभकरण था, आज हर सरकार में, हर विभाग में कुंभकरण से भी बड़े कुंभकरण विद्यमान हैं। कई अन्य शहीद भी सम्मान से वंचित हैं। शहीदों को पाठ्यक्रम में स्थान मिले, यह उनको सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

शहीद भगतसिंह , राजगुरु सुखदेव चंद्रशेखर आज़ाद , बाल पाल लाल ही नहीं अन्य अनेक नाम हैं ।

मांग की जाती है कि अमर शहीदों को भारतरत्न से अलंकृत किया जाय , पर सरकार है कि मानती नहीं । उनके मापदंडों में आजादी के दिवाने सांचे में नहीं आते ?

 

हाल में कुछ राज्यों में पाठ्यक्रम में बदलाव के साथ अमर शहीदों की जीवनी शामिल करने की बात की है पर यह भी चुनावी घोषणा ही बनकर नहीं रह जाए । गंभीरता से शहीदों को यादकर जोड़ने की जरूरत है ।

हम देख – सुन रहे हैं चुनावी रैलियों में प्रधानमंत्री से लेकर तमाम पक्ष – विपक्ष के नेता जिस अंचल ओर राज्यों में जाते हैं उस क्षेत्र के शहीदों , स्वतंत्रता सेनानियों , त्यागी बलिदानी पुरुषों महिलाओं को सम्मान से याद कर रहे हैं । इन सभी हुतात्माओं को शिक्षा पाठ्यक्रमों में जोड़ कर वर्तमान और भावी पीढ़ी को प्रेरित किया जा सकता है । उम्मीद है 2024 में हम आप शहीदों के जीवन चरित को पढ़ देख पाएंगे ।

जय हिन्द ।

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Ghanshyam Batwal
डॉ . घनश्याम बटवाल