महासमाधि दिवस पर विशेष:मानव मन में ईश्वरीय प्रेम जगाने वाले संत परमहंस योगानंद!
डॉ मधुसूदन शर्मा
1952 के मार्च महीने की 7 तारीख थी। हिन्दू पंचांग के अनुसार अमेरिका के लॉस एंजिलिस में इस दिन गोविंद द्वादशी थी। गोविंद द्वादशी जगत पालक भगवान विष्णु को समर्पित होती है और इस दिन मुख्य रूप से उनके कृष्ण स्वरूप की पूजा की जाती है। गोविंद द्वादशी के दिन ही भगवान विष्णु के नरसिंह अवतार की ॐ नमो भगवते वासुदेवाय मंत्र के साथ पूजा-आराधना की जाती है। ऐसे विशेष पवित्र दिन को पश्चिम में क्रिया योग के जनक माने जाने वाले जगद्गुरु परमहंस योगानंद जी ने अपनी महासमाधि के लिए चुना।
ईश्वर प्राप्त संत त्रिकालदर्शी होते हैं। त्रिकालज्ञ परमहंस योगानंद जी ने भी अपने अंतरंग शिष्यों को अपने महाप्रयाण से तीन महीने पहले ही अपने ब्रह्मलीन होने की तिथि बता दी थी। यह सुनते ही उनके शिष्यों में शोक की लहर दौड़ गई। परमहंस जी ने शिष्यों को आश्वस्त करते हुए कहा था कि मेरा शरीर चला जाएगा, लेकिन मेरा काम जारी रहेगा। मेरी आत्मा जीवित रहेगी। मैं ईश्वर के संदेश के साथ दुनिया के उद्धार के लिए आप सभी के साथ काम करूंगा।
7 मार्च 1952 को संयुक्त राज्य अमेरिका में स्वतंत्र भारत के पहले राजदूत डॉ विनय आर सेन के सम्मान में लॉस एंजिलिस के बिल्टमोर होटल में एक रात्रि भोज का आयोजन किया गया था। इस अवसर का उल्लेख करते हुए परमहंस योगानंद जी की प्रमुख शिष्या श्री दया माता जो बाद में सेल्फ-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप की अध्यक्ष बनीं ने अपनी पुस्तक ‘फाइंडिंग द जॉय विदइन’ में लिखा कि मेरे गुरु ने रात्रिभोज से कुछ घंटों पहले ही कहा था आइए हम सैर करे। क्या आपको पता है कि बस कुछ ही घंटों की बात है और मैं इस धरती से चला जाऊंगा! यह सुनते ही दया मां को गहरा आघात लगा और उनकी आँखों से आंसू छलक पड़े। वह जानती थी कि गुरुदेव ने जो कहा वह तो पूरा होगा ही। दया मां ने रोते हुए अपने गुरु से पूछा ‘गुरुजी आप ही हमारे सब कुछ हैं, आपके जाने के बाद हमारा क्या होगा?’ परमहंस जी ने कहा ‘इस बात को याद रखो,जब मैं चला जाऊँगा, तो केवल प्रेम ही मेरा स्थान ले सकता है। दिन-रात ईश्वर के प्रेम में तल्लीन रहो और यही प्रेम सबको दो। इस प्रेम की कमी के कारण ही संसार दुखों से भर गया है।
मां ने अपने आपको संभाला। पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार रात्रि भोज प्रारंभ हुआ। अंतिम वक्ता के तौर पर परमहंस जी ने अपना यादगार भाषण दिया और कहा ‘मुझे गर्व है कि मैं भारत में पैदा हुआ। मुझे गर्व है कि हमारे पास मेरे आध्यात्मिक भारत का प्रतिनिधित्व करने वाला एक महान राजदूत है। कुशल अमेरिका और आध्यात्मिक भारत की दो महान सभ्यताओं के बीच कहीं एक आदर्श विश्व सभ्यता का उत्तर निहित है।अपने व्याख्यान के अंत में उन्होंने दिल में गहरे से उतरने वाली अपनी कविता ‘माई इंडिया’ से कई पंक्तियाँ पढ़ीं और अंत मे इन शब्दों के साथ समापन किया ‘जहाँ गंगा, वन, हिमालय की गुफायें और जहाँ मानव ईश-चिन्तन में डुबा हुआ। मैं पवित्र हुआ, मेरे शरीर ने उस वतन को छू लिया। इन शब्दों के साथ परमहंस जी चेहरे पर एक सुंदर मुस्कान के लिए महासमाधि में प्रवेश कर गए। परमहंस जी अक्सर कहा करते थे कि मैं इस संसार को बिस्तर पर लेटकर अलविदा नहीं कहना चाहता बल्कि बूट पहने और ईश्वर व अपने भारत को याद करते हुए यह शरीर छोड़ना चाहता हूं। और ऐसा ही हुआ भी।
‘फ़ॉरेस्ट लॉन मेमोरियल पार्क’ के निदेशक ने एक पत्र में कहा योगानंद के शरीर में उनके महाप्रयाण के 20 दिन बीतने के बाद भी क्षय का कोई संकेत नहीं है। इस असाधारण घटना को ‘टाइम पत्रिका’ सहित विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रिपोर्ट किया गया था। योगानंद के अंतिम क्षणों के साक्षी बने भारतीय राजदूत विनय रंजन सेन ने महान गुरु को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा था उनका जन्म भारत में हुआ था, वे भारत के लिए जिए और उनकी मृत्यु उनके होठों पर भारत का नाम लेकर हुई।
मार्च 1977 में परमहंस योगानंद जी के सम्मान में एक स्मारक डाक टिकट जारी करते हुए सरकारी प्रतिनिधि ने उदगार व्यक्त किए थे कि भगवान के प्रति प्रेम और मानवता की सेवा के आदर्श को परमहंस योगानंद के जीवन में पूर्ण अभिव्यक्ति मिली। यद्यपि उनके जीवन का अधिकांश भाग भारत से बाहर व्यतीत हुआ, फिर भी वे हमारे महान संतों में अपना स्थान रखते हैं। उनके काम ने लोगों को आत्मा की तीर्थयात्रा के मार्ग पर चलने के लिये प्रेरित किया है। 7 मार्च 2017 को भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने परमहंस जी द्वारा स्थापित योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ इंडिया की 100 वीं वर्षगांठ के उपलक्ष और विदेशी तटों पर भारत की आध्यात्मिकता का संदेश फैलाने में योगानंद के काम की सराहना करने के लिए एक और स्मारक डाक टिकट जारी किया।
परमहंस योगानंद जी का जन्म 5 जनवरी 1893 में उत्तर प्रदेश के पवित्र शहर गोरखपुर में हुआ था। मान्यता है कि क्रिया योग के प्राचीन विज्ञान को दुनियाभर में ले जाने के लिए मृत्युंजय महावतार बाबाजी द्वारा उन्हें चुना था। उन्हीं के निर्देशों के अनुसार, वह पश्चिम चले गए और अपनी महासमाधि तक वहीं रहे। अपने भौतिक जीवनकाल में उन्होंने हजारों लोगों को क्रिया योग में दीक्षित किया। वह पश्चिम में इतने प्रसिद्ध हैं कि संयुक्त राष्ट्र ने उन्हें पहले अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के लिए योग के प्रतीक के रूप में चुना।
उनकी विश्व प्रसिद्ध पुस्तक ‘ऑटोबायोग्राफी ऑफ ए योगी’ पाठकों का प्राचीन क्रिया योग विज्ञान से परिचय कराती है। यह पवित्र ग्रंथ मन औऱ आत्मा के द्वार खोल देता है। इसमें उन्होंने भारतीय योग विज्ञान और ऋषियों के चमत्कार और रहस्यों से परिचित कराया। परमहंस योगानन्द जी अपने शिष्यों से अक्सर कहा करते थे कि अगर मैं ईश्वर द्वारा मुझे दी गई शक्तियों का प्रदर्शन करूं, तो मैं हजारों लोगों को आकर्षित कर सकता हूं। लेकिन, ईश्वर तक पहुंचने का रास्ता कोई सर्कस नहीं है। मैंने शक्तियाँ ईश्वर को वापस दे दीं, और जब तक वह मुझसे नहीं कहते, मैं उनका कभी उपयोग नहीं करता। मेरा मिशन मनुष्य की आत्मा में ईश्वर के प्रति प्रेम जगाना है।
परमहंस योगानन्द जी ‘द डिवाइन रोमांस’ पुस्तक में ईश्वर साक्षात्कार को ही जीवन का एकमात्र लक्ष्य बताते हुए लिखते हैं कि आप एक सपने की तरह पृथ्वी पर चल रहे हैं। हमारी दुनिया एक सपना है; आपको यह महसूस करना चाहिए कि ईश्वर को पाना ही एकमात्र लक्ष्य है, एकमात्र उद्देश्य है, जिसके लिए आप यहां हैं। केवल उसी के लिए आपका अस्तित्व है। उसे तुम्हें अवश्य खोजना होगा।
परमहंस योगानंद जी का अपने शिष्यों के लिए संदेश होता था ‘गॉड फर्स्ट’ वह अपने शिष्यों से कहते थे सर्वप्रथम ईश्वर को प्रसन्न करने का प्रयत्न कीजिए। सबको प्रसन्न करना असंभव है। मेरा प्रथम लक्ष्य ईश्वर को प्रसन्न करना है। मैं अपने हाथों का उपयोग उनके आगे श्रद्धा के साथ प्रार्थना करने में मेरे पैरों का उन्हें सर्वत्र खोजने में, मेरे मन का उनकी नित्य उपस्थिति के चिंतन में उपयोग करता हूं। विचार के हर सिंहासन पर प्रभु ही विराजित होने चाहिए शांति के रूप में प्रभु, प्रेम के रूप में प्रभु, दया के रूप में प्रभु, समझ के रूप में प्रभू, करुणा के रूप में प्रभु, ज्ञान के रूप में प्रभु। मैं आपको बस यही बताने आया हूं और कुछ नहीं।