Special on Vijayadashami: दशहरे पर किस रथ का पूजन हो?
राघवेंद्र दुबे
दशहरे पर शस्त्र के साथ रथ पूजन भी किया जाता है। वर्तमान में रथ का स्वरूप बदल गया है। लोग अपने वाहन कार स्कूटर आदि को कुमकुम चावल हार फूल चढ़ाकर पूजन करते है।
समय के साथ भौतिक रूप से रथ का स्वरूप बदला है परंतु वास्तव में रथ वही है जिसका गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में उल्लेख किया है। लगभग 500 वर्षों से यह ग्रंथ हमारे मानस को, धर्म को, दर्शन को और हमारी संस्कृति को दिशा दिखाता रहा है ।लंका कांड के अंत में निर्णायक युद्ध की स्थिति है।
महाबली रावण दिव्य अस्त्रों से संपन्न होकर दिव्य रथ पर आरूढ़ है। रावण के बल शक्ति और साधनों से भली-भांति परिचित विभीषण व्याकुल और अधीर है ।वह देख रहा है कि राम के चरणों में तो पादुका भी नहीं है।
रावण रथी बिरथ रघुवीरा ।
देखी विभीषण भयऊ आधीरा ।।
विभीषण की शंका का समाधान करने हेतु राम वास्तव में विजय रथ क्या होता है यह बताते हैं। भौतिक रूप से रावण का रथ कितना ही सुसज्जित हो ,परंतु जिस रथ पर बैठकर विजय प्राप्त की जा सकती है वह कुछ और तरह का होता है। साधन हीन का रथ साधन संपन्न के रथ से किस प्रकार अधिक अच्छा हो सकता है इसका अद्भुत वर्णन तुलसीदास ने राम के मुख से करवाया है।
सौरज धीरज तेहि रथ चाका
सत्य शील दृढ़ ध्वजा पताका।
बल विवेक दम पर हित घोरे
क्षमा कृपा समता रजु जोरे ।
ईस भजन सारथी सुजाना
बिरति चर्म संतोष कृपाना ।
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा
बर बिज्ञान कठिन कोदंडा ।
अचल अमन अमन त्रोन समाना
समजम नियम सिली मुख नाना।
कवच अभेद विप्र गुरु पूजा
एहि सम विजय उपाय न दूजा।
सखा धर्म मय अस रथ जाके
जीतन कहं न कतहुँ रिपु ताकें ।
राम जिस रथ की बात कर रहे हैं उसके दो पहिए हैं पहला शौर्य और दूसरा धैर्य ।शौर्य का अभिप्राय है उद्यमी या साहसी स्वभाव ।कोई भी समस्या का सामना करने हेतु वीर भाव। समस्या के समाधान का संकल्प मन में होना। धैर्य दूसरा पहिया है ।कठिन समस्या के समाधान के लिए साहस के साथ साथ धीरज का भी होना आवश्यक है। स्थिरता, धीरज के अभाव में कई बार हम साहस होते हुए भी समाधान के मार्ग से भटक जाते हैं। रथी की पहचान उसकी ध्वजा से होती है।
ध्वजा और पताका इस बात का प्रमाण होते थे कि रथ में रथी है। स्वभाव की कोमलता को शील कहा गया है। सत्य और शील ऐसे गुण हैं जो हमारे आचरण को प्रकट करते हैं। व्यवहार में कोमलता और चित् में सत्य का आग्रह यही इस रथ की ध्वजा पताका है ।इस रथ के जो चार घोड़े हैं उनमें पहला है बल। बल कई तरह के हैं धन बल ,जनबल , शस्त्र बल ,बुद्धि बल ।सबसे बड़ा होता है आत्मबल ।आत्मबल कारण है और बाहरी बल कार्य है। भीतरी बल होने पर ही बाहरी बल पुष्ट हो पाते हैं।
विवेक से अभिप्राय हैं सही निर्णय लेने की क्षमता ।तीसरा घोड़ा परहित है। परहित से तात्पर्य है पुण्य ।पुण्य कमाने का तरीका है परहित या परोपकार ।चौथा घोड़ा है दम ।दम से तात्पर्य है इंद्रिय निग्रह। दम से अभिप्राय हैं मर्यादित आचरण। वाणी और आचरण को मर्यादा में रखने का नाम ही दम है। यह चारों जीवन मूल्य मानव जीवन को गति प्रदान करते हैं।
घोड़ों को नियंत्रित करने के लिए लगाम की आवश्यकता होती है ।क्षमा कृपा को लगाम कहा गया है ।परोपकार के साथ कृपा की भावना होना चाहिए ।कृपा परहित रूपी घोड़े की लगाम है ।क्षमता भी लगाम है ।चित्तमें क्षमता होने से विवेक प्रबल हो जाता है ।क्षमता आने से चित्त और उदार हो जाता है।
बल क्षमा से ,परहित कृपा से, और विवेक नियंत्रित होता है क्षमता की लगाम से ।दम के लिए अलग से लगाम की आवश्यकता नहीं है। दम स्वयं में ही नियंत्रण की वृत्ति है।.
सारथी का भी अच्छा होना आवश्यक है। भजन से अनुग्रहित बुद्धि सारथी है। वैराग्य को ढाल और संतोष को तलवार कहा गया है ।जब जीवन में वैराग्य की ढाल होती है तो तब विषयों के आकर्षण का आक्रमण आपका बचाव करता है। रागी मनुष्य की दुर्बलता वैराग्य की ढाल से दूर हो सकती है। तलवार का काम काटना है और संतोष प्रलोभन को काटता है। इसलिए संतोष को कृपाण कहा गया है। दान को परसु कहा गया है ।परशु का काम भी काटना है ।दान भी द्रव्य दोष को काटता है। सात्विक बुद्धि भविष्य में आने वाले दुखद परिणामों से बचाव कर सकती है ।यह सब योद्धा की शक्ति होते हैं। त्रोन याने तरकस ।जीवन संग्राम के योद्धा का तरकस उसका मन होता है ।इसलिए कहा गया है कि मन निर्मल और अचल होना चाहिए।
तरकस के अमोघ बाणों में शांति को भी बताया गया है। कई दुश्मन शांति रखने से शांत हो जाते हैं। चित्त के विकार नष्ट हो जाते हैं। यम व्यवहार की आचार संहिता है। सत्य ,अहिंसा, ब्रह्मचर्य ,अस्तेय, अपरिग्रह यह सब यम के अंतर्गत आते हैं। शौच, संतोष ,तप स्वाध्याय और ईश्वर प्रतिदान यह 5 नियम के अंतर्गत आते हैं। जीवन संग्राम में उतरने वाले योद्धा के लिए यह सब बाण का काम करते हैं । परिपक्व समझ के धनुष पर इन सद्गुणों के बाण चढ़ा कर विजय प्राप्त्त करना सुनिश्चित हो जाता है ।
योद्धा में कवच भी जरूरी है। विप्रगुरु पूजा को कवच कहां गया है ।विप्र से आशय हैं संस्कारी सदाचारी विद्वान ।बड़े और पूजनीय आदरणीय लोगों का मार्गदर्शन उनकी रोक-टोक कवच की भांति रक्षक का कार्य करती है ।इन सब के बिना विजय पाने का कोई दूसरा उपाय नहीं है।
जो जीवन संग्राम के लिए वास्तविक रथ है उसे सहेज कर उसकी पूजा करना अधिक सार्थक है।
राघवेंद्र दुबे,इंदौर
Rtd. Addl. Commissioner, COMMERCIAL TAX DEPARTMENT