कहानी: टुकड़ा-टुकड़ा ज़िंदगी

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कहानी: टुकड़ा-टुकड़ा ज़िंदगी

नीलिमा शर्मा

“मम्मा, इंडिया में तो लॉकडाउन सख़्ती से लागू कर रहे हैं, अभी एयरपोर्ट पर विदेश से आने वाले सभी यात्रियों को रोका गया है।” उर्वशी ने दिल्ली एयरपोर्ट के टर्मिनल थ्री के इमीग्रेशन काउंटर के सामने लम्बी लाइन देखकर अपनी मम्मी को कॉल मिलाया। उर्वशी एक सप्ताह बाद दुबई से लौट रही थी। उसकी बड़ी बहन शताक्षी ने शादी के तीन बरस बाद बेटे को जन्म दिया था। पोस्ट डिलीवरी केयर के लिए उसकी मम्मा दो माह के लिए बड़ी बेटी के घर गई थी।

दीदी के घर एक सप्ताह कब बीत गया पता ही नहीं चला था। एयरपोर्ट से ही उसने अपने सहकर्मियों के लिए ख़रीददारी की थी। कोविड 19 हर तरफ़ फैल रहा था, यह बात तो सब जानते थे लेकिन अब वो सबके इतना क़रीब आ गया है इसका एहसास किसी को भी नहीं था। तभी इमीग्रेशन काउंटर से एक घोषणा हुई कि विदेश से लौटने वाले सभी यात्रियों को 14 दिन के लिए क्वारंटाइन किया जाएगा। अब उर्वशी को घबराहट होने लगी थी।

वो भीड़ भरे एयरपोर्ट से आ रही है। हर देश के नागरिक दुबई आते-जाते हैं। ना जाने वायरस कहाँ से कहाँ तक पहुँच गया होगा। उसने पर्स से सेनेटाइजर निकाला और दोनों हाथों पर अच्छे से रगड़ दिया। अपना स्कार्फ अपने चेहरे पर अच्छे से हिजाब की तरह बाँध लिया।
उर्वशी ने मम्मा को फिर से फोन मिलाया- ‘फोन आउट ऑफ कवरेज एरिया में है… उफ़्फ़! ये मम्मा भी न जाने कहाँ चली गई।’
तभी उसके फोन की घंटी बजी। पर्स से फोन को टटोलकर बाहर निकाला तो मम्मा का कॉल था। ‘मम्मा’ कहते ही उसके आँसू निकल आए। आवाज़ भारी हो गई लेकिन उसने भरसक कोशिश की कि ख़ुद को ज़रा भी कमज़ोर न दिखाए। दूसरी तरफ़ मम्मा भी ख़ुद को मज़बूत बनाए हुए दिखना चाहती थी, “बेटा, कुछ नहीं होगा, तुम्हारी इम्युनिटी बहुत अच्छी है। ख़ुद पर विश्वास रखो। बस अपना ख़याल रखना, बाबाजी सब ठीक करेंगे।”

“मम्मा, आप किसी को भी अभी कुछ भी नहीं बताइएगा। ठीक हो जाने के बाद ही किसी को बताएँगे।” उर्वशी ने माँ को दिलासा देते हुए समझाने की कोशिश की लेकिन आँखों में नमी आ गई थी।
मम्मा से कुछ देर बात करके उसका दिल थोड़ा मज़बूत हुआ। एक सुरक्षित-सा औरा जैसे उसके चारों तरफ़ से मज़बूती से उसे घेरे हुए था। फिर उसने अपने बॉस को कॉल मिलाया। वो सिर्फ़ एक सप्ताह की छुट्टी लेकर दुबई गई थी। उसका खड़ूस-सा बॉस पाँच मिनट की देरी को भी काउंट कर लेता था।

अब उसको अगले चौदह दिन की छुट्टी चाहिए तो सूचना तो देनी ही होगी। बॉस ने दो बार घंटी जाने के बावजूद कॉल नहीं उठाया। फिर तीसरी बार जैसे ही उसने कॉल मिलाना चाहा बॉस का ही कॉल आ गया। “सर, मैं दुबई से तो लौट आई हूँ लेकिन अभी मुझे क्वारंटाइन में ले जा रहे हैं।”
“अरे! अपना ख़याल रखिएगा, अभी आपका जाना ज़रूरी है, सभी एहतियात रखिएगा। आप स्वस्थ होकर लौटेंगी।”
“सर, जल्द ही वापस आकर ऑफिस ज्वॉइन करती हूँ।” बॉस ने तो उसका वाक्य पूरा भी नहीं होने दिया।
“नहीं, उसके बाद भी आप कुछ दिन आराम कीजिए। हम आपको ऑनलाइन सम्पर्क करते रहेंगे।” उनकी आवाज़ में बहुत घबराहट थी।
“जब तक ठीक न हो जाओ, ऑफिस मत आना। अब तो शायद घर से ही काम होगा।” कहकर बॉस ने फोन रख दिया। बॉस के शब्द तेज़ गर्म हवाओं के बीच चलती मंद समीर की तरह लग रहे थे। कितने अच्छे और अपने से लग रहे थे बॉस।
गौरव उसका सबसे ख़ास मित्र, जो उसके दुबई जाने की बात सुनकर ही उदास हो गया था। रोज़ाना उसको प्रेम भरे कोट्स और शायरी भेजता रहता था, उसको तो बताना होगा कि वो इंडिया लौट आई है। उसने गौरव को अपने वापस आने की तिथि जान-बूझकर नहीं बताई थी। उर्वशी अचानक आकर उसको सरप्राइज करना चाहती थी। गौरव ने दूसरी बेल बजते ही फोन उठा लिया।
“बेबी कहाँ हो? बुर्ज ख़लीफ़ा या बेबी सिटिंग कर रही हो।”
“गौरव, मैं मानेसर में हूँ… क्वारंटाइन… मैं इंडिया लौट आई हूँ।”
“व्हॉट?”
“यस!”
“टेक केयर बेबी, लेट मी चेक मैं क्या कर सकता हूँ। तुम अपना बहुत-बहुत ख़याल रखना, जब तक ठीक ना हो जाओ। परेशान मत होना। तुमसे मिलना तो शायद पॉसिबल नहीं है सो…” गौरव की बात से उसको लगा कि जैसे वो किसी राष्ट्रद्रोह के केस में फँसी है और कोई भी उसको अब मिलना नहीं चाहता है। कहीं उसके जान-पहचान वालों की भी धर-पकड़ शुरू न हो जाए।
“फोन पर तो बात कर सकते हैं न?” फोन सुनने वाले का दूसरी तरफ़ से फोन ही कट गया था। पता नहीं फोन नेटवर्क से बाहर हो गया था या वो या गौरव…
उर्वशी के बाहर भीतर एक कोलाहल-सा मच गया। अभी उसकी चौबीस वर्ष की उम्र थी। अभी एमबीए का फाइनल एग्जाम भी नहीं हुआ था कि कैंपस सिलेक्शन में उसको जॉब मिल गई थी। तीन बरस पहले दीदी का विवाह हुआ था। अब वो मम्मा के साथ नोएडा की क्राउन प्लेस बिल्डिंग में रहती थी।
उर्वशी को अचानक नसरीन की याद आ गई। वो भी तो उसके दुबई से आने का इंतज़ार कर रही होगी। उसने अपनी मेड नसरीन को कॉल मिलाया। उसको वो अक्सर नैस कहकर पुकारा करती थी। नैस ने उसका फोन दूसरी बार बजने पर उठा लिया।

कथा कहानी - कामवाली बाई "आँचल मे छुपाकर रखा है कब तक छुपाऊँ आँचल में " यह शब्द एक अनपढ़ कामवाली बाई के मुख से सुनकर रेखा के होश उड़ गए। मन
“नैस, कहाँ थी तुम? दो बार फोन बजने के बाद तुमने फोन उठाया। अच्छा सुनो, मैं अभी दो वीक के बाद ही आऊँगी, देखो घबराना मत। घर में सब खाने-पीने का सामान भरा हुआ है। किसी चीज़ की कमी नहीं होगी। फिर भी कुछ ज़रूरत हो तो गार्ड से बात करके मँगवा लेना। वैसे मैं वर्माजी को भी कह दूँगी कि तुम्हारा ध्यान रखेंगे। और हाँ नैस, अपने ख़ुदा से दुआ करना कि मैं हमेशा ठीक ही रहूँ… करोगी न?”
कहते-कहते उर्वशी का गला भर आया। आँखों में आँसू भर आए। मन बहुत कमज़ोर हो गया था।
‘क्या मैं भी पापा की तरह अचानक ही मर जाऊँगी? उनको तो हार्ट अटैक आया था। क्या मैं भी… क्या मेरा टेस्ट पॉजिटिव आएगा? ईश्वर न करे मेरा टेस्ट ऐसा आए, मैं किसी वायरस की गिरफ़्त में नहीं… पर यदि आ गई तो क्या मेरा शरीर इस घात को सह सकेगा? मम्मा हमेशा न्यूट्रिशल फूड खाने को कहती थी लेकिन घर के खाने के साथ अक्सर बाहर का खाना भी हो ही जाता था।’ चुपचाप बैठी आँसू बहाती उर्वशी खिड़की के शीशे के पास सन्नाटे की भयावहता को महसूस कर पा रही थी।

फोन की घंटी बज रही थी। पोंछा लगाती नसरीन ने दुपट्टे के कोने से हाथ पोंछा और माथे पर झूलते बालों को कलाई से साइड करके अपना मोबाइल उठाया। ‘छोटी दीदी’ नाम चमक रहा था। बहुत डरती थी वो छोटी दीदी से। फोन एक बार बजकर बंद हो गया था। आज उर्वशी दीदी ने दुबई से वापस आना था। आंटीजी ने वादा किया था कि दुबई से उसके लिए काजल और पर्स लेकर भेजेंगी। अगले दो महीने उसको दीदी के साथ घर पर रहना था। आंटीजी सब समझाकर गई थीं, फिर भी उसको डर लगता था कि कहीं कोई भूल न हो जाए और दीदी नाराज़ हो जाएँ। जब फोन दुबारा बजा तो नसरीन ने पहली ही बेल पर फोन उठा लिया।
“नैस कहाँ थी? टीवी में ही घुसी होगी न, जब देखो नागिन देखती रहती है।” ग़ुस्से में छोटी दीदी फुफकार रही थीं फिर अचानक उनका लहजा मुलायम हो गया।
“अच्छा सुनो, मुझे घर आने में अभी पंद्रह दिन लग जाएँगे, तुम रह लोगी न?”
‘रह लोगी’ कहते-कहते छोटी दीदी का गला भरा हुआ महसूस हुआ।
“दीदी, मैं आपके बिना, आंटीजी के बिना कैसे रहूँगी? मुझे वापस गाँव छोड़ आओ, टीवी वाले कह रहे हैं कोई कोरोना कीड़ा आ गया है, जल्दी ही सब मर जाएँगे। मुझे भी गाँव की याद आ रही है।” नसरीन भी रोने लगी थी।
“देख नैस, सब बस-ट्रेन बंद हो गई हैं न, तुमने टीवी में सुना है न कि सबको घरों में बंद रहकर सुरक्षित रहना है। मैं भी क्वारंटाइन में नहीं रहना चाहती लेकिन नैस यह ज़रूरी भी है, मुझे ठीक-ठाक वापस आना है, मम्मा को मेरी ज़रूरत है।” उर्वशी के मन में जैसे ग़म की झील बन गई।
नसरीन के पास कोई और चारा भी नहीं था। सत्रह बरस की उसकी उम्र थी। अकेले रहना कोई मुश्किल नहीं था लेकिन यह बीमारी वाला समय… घर में सब ज़रूरत का सामान था। उसको तो घर के भीतर बंद रहना था। लेकिन अगर वो वायरस घर के अंदर आ गया तो वो बाहर कैसे और कहाँ भागेगी? छोटी दीदी को अगर यह बीमारी लग गई तो… बीमारी तो बहुत भयानक है। विदेश में तो बहुत ज़्यादा मृत्यु हो रही है। पता नहीं दीदी वापस आए या न आए।
“थू-थू-थू! ऐसी ग़लत बात ज़़बान पर भी नहीं लाते हैं।” कहकर नसरीन ने अपने मन और ज़़बान को धिक्कारा।
दीदी का फोन रखकर वह देर तक टीवी पर चैनल बदल-बदलकर समाचार सुनती रही। टीवी पर लोगों की बातें सुनकर मन को सुकून तो क्या ही मिलता उसका, मन अपनी ही ज़िंदगी के प्रति आशंकित हो उठा। अब नसरीन हर दस मिनट बाद साबुन से हाथ धोने लगी। कभी खिड़की से बाहर की तरफ़ झाँकने की कोशिश भी करती तो सामने जैन साहेब या श्रीवास्तवजी आते-जाते हुए नज़र आते। उफ़्फ़ ये बूढ़े लोग सैर करने से बाज नहीं आते। कहीं दूर से बच्चों का शोर भी सुनाई दे रहा था।
छोटी दीदी जब आएगी तो ख़ुद तो दवा की वजह से ठीक हो जाएँगी लेकिन पक्का मुझे वो वायरस कीड़ा पकड़ लेगा। पूरी शाम अपने मरहूम अम्मी-अब्बू को याद करके नसरीन ख़ूब रोई। उस दिन उसने कुछ भी खाना नहीं पकाया, न खाया। भूख जैसे ग़ायब हो गई थी। उसको उर्वशी दीदी से बहुत डाँट पड़ती थी फिर भी उनके इस तरह बीमार होने की बात से उसको अच्छा नहीं लग रहा था। आंटीजी भी थोड़ी देर पहले फोन पर कह रही थीं कि उर्वशी दीदी बीमार नहीं हैं, बस डॉक्टर ने परहेज़ और जाँच के लिए कुछ दिन के लिए अपने पास रखा है। नसरीन उस रात बस पानी पीकर वही सोफे पर रोते-रोते सो गई।
सुबह खिड़की से धूप ने दस्तक दी तो उसकी नींद खुली। ‘अरे नौ बज गए! छोटी दीदी के लिए नीम्बू पानी बनाना है’, सोचकर झटके से उठी, फिर अचानक उसके पाँव ठिठक गए… ‘छोटी दीदी तो…’ उसका मन फिर उदास हो गया।
अब उसके पेट में कुलबुलाहट हो रही थी। कल से नसरीन ने कुछ नहीं खाया था। रसोई में जाकर उसने चाय का पानी चढ़ाया और फ्रिज में रखे मिल्क टेट्रा पैक और सब्ज़ियों को देखा।

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जाने से पहले आंटीजी सब्ज़ियाँ और बाक़ी सामान लेकर रख गई थीं। नसरीन ने चाय बनाकर अपना कप उठाया… सामने उसकी नज़र नए टी सेट पर चली गई। उस टी सेट पर सुनहरे तार से फूल बने थे और नीचे सुनहरे फूलों वाली तश्तरी। आह कितना सुंदर सेट है! बड़ी दीदी दुबई से लाई थीं। जब मर ही जाना है तो कुछ दिन अपने मन की भी करनी चाहिए।
नसरीन ने महँगे कप को बढ़िया बोनचाइना वाली ट्रे में रखकर साथ में थोड़े-से काजू, बादाम कुकीज और दो मिनट मैग्गी का बाउल लेकर खाने की टेबल पर आ बैठी। आज दूसरा दिन है, छोटी दीदी तो अभी कई दिन बाद आएँगी। जब जीना ही है तो नसरीन खुलकर मनमाफ़िक जीएगी। अब तेरह दिन तक वो अकेली इस मकान की मालकिन है। कोई नहीं पूछेगा कि नसरीन ये क्यों नहीं किया, वो क्यों नहीं किया। उसने अपनी टाँग-पर-टाँग चढ़ाई और एकदम उर्वशी दीदी की कॉपी करते हुए चाय का सिप लिया। उसका मन बोल उठा- ‘अ‍हा! कितना स्वाद आ रहा इस कप में चाय पीने का!’
उसने आज दीदी के लिए बनाया जाने वाला खाना अपने लिए बनाया। पनीर के साथ लच्छा पराँठा, साथ में सलाद विथ ऑलिव ड्रेसिंग, पानी की जगह ठंडा कोक। ज़िंदगी परियों की-सी लग रही थी। आज से रोज़ाना वो एकदम दीदी की तरह नाश्ता खाना खाया करेगी, हर बार अलग क्रॉकरी, हर बार अलग मग।
डस्टिंग-कपड़े आदि करने के बाद नहाना उसका एक रुटीन था और आज तो वो छोटी दीदी के बाथरूम में नहाएगी। क्या हर बार लॉबी वाले छोटे से गुसलख़ाने में नहाना होता है। दीदी का महँगा शैम्पू करके उसने बाल धोए और बोतल में थोड़ा-सा पानी मिलाकर वापस रख दिया। ख़ुशबू वाले साबुन से नहाकर उसको ख़ुद को बहुत अच्छा लग रहा था। गुलाबी मुलायम तौलिया सर पर बाँधकर उसने एक बड़ा-सा तौलिया अपने सीने पर ठीक उर्वशी दीदी की तरह बाँध लिया। अभी टब से उसने क़दम बाहर निकाला ही था कि उसकी नज़र सामने शेल्फ पर गई जहाँ दीदी के अंडरगारमेंट्स रखे रहते थे। उफ़्फ़ कितने रेशमी मुलायम लेस वाले अंदरूनी कपड़े पहनती हैं दीदी!

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पूरे एक सप्ताह तक उसने अपने कपड़ों को हाथ भी नहीं लगाया। पूरा समय कभी दीदी की टी-शर्ट लोअर के साथ तो कभी स्कर्ट तो कभी उनका कुरता प्लाजो तो कभी मैक्सी पहनकर घर में रहती थी। कई बार फिल्मी गानों की तर्ज़ पर स्कर्ट के साथ— पहनकर डांस करती नसरीन ख़ुद पर ही रश्क करने लगती और फिर ख़ुद को कोसती कि ख़ुदा ने उसको क्यों कंगला पैदा किया? किसी रईस घर की बेटी बना देता न। अब तो उसकी चाल भी एकदम दीदी जैसी होने लगी थी। पेंसिल हील की बैली पहनकर वो कई बार गिरी थी लेकिन दो दिन में उसको संतुलन साधना आ गया था। दीदी के मुलायम बिस्तर पर दो दिन तक तो उसको नींद भी नहीं आई थी। फिर उसको वो रेशमी बिस्तर माँ की मुलायम आग़ोश-सा लगने लगा था।
कल उसने ग़ज़ब ही कर दिया। दीदी की अलमारी खोलकर उसने उनका बिना बाँह का ब्लाउज पहना और लाल सिल्क वाला लहँगा, गहरे लाल रंग की लिपस्टिक लगाकर उसने वही रखे नकली चमकते गहने भी पहन लिए। दुल्हन की तरह सजकर नसरीन टीवी के सामने आ बैठी और ‘लब पे आवे हैं दुआ बनके तमन्ना मेरी’ जैसे गीत सुनने लगी। सर पर पल्लू रखकर अपने ही को देख आत्ममुग्ध नसरीन ख़ूब रोई भी थी। वो माहिरा ख़ान से कहाँ कम गोरी थी! उसकी मोटी काली आँखें काजल लगाकर कितनी प्यारी लगती हैं! अगर उसकी अम्मी ज़िंदा होती तो उसकी फ़िक्र करती, उसके लिए दुआ कराती। उसके दहेज के लिए कपड़े जोड़ रही होती।
कोई कितना भी कहे कि घर में नौकरानी को अपने घर के सदस्य की तरह रखते हैं लेकिन फ़र्क़ तो होता ही है। नसरीन हमेशा आंटीजी के कमरे में नीचे बिस्तर बिछाकर सोती थी। उसको पूजाघर को छूने की इजाज़त नहीं थी। भोग का प्रसाद आंटीजी या ख़ुद बनाती थी। कभी-कभार दीदी जब बाज़ार से कुछ खाना मँगवाती तो बहुत छोटा-सा हिस्सा उसको भी दिया जाता था। सब लोग घूमने जाते तो अधिकतर उसको घर में बंद कर जाते कि आने तक सब बर्तन करके रखना, घर साफ़ करके रखना। उसके गोरे रंग और बड़ी-काली आँखों की वजह से सब उसको घर का कोई सदस्य या रिश्तेदार ही मानते थे। तब आंटीजी सबको ‘हमारी हेल्पर है’ कहकर बताया करती थीं।
आज उसको बहुत रोना आ रहा था। आंटीजी दिन में दो बार दो मिनट का कॉल करतीं- “नसरीन, घर ठीक है न? नसरीन खाना खा लेना। घर का ध्यान रखना। नसरीन दुआ करना छोटी जल्दी घर आ जाए।”
लेकिन किसी ने कभी ये नहीं पूछा कि तू निपट अकेली है, तुझे कोई तकलीफ़ तो नहीं? तू क़ैद में है, तेरा दम तो नहीं घुटता? तेरा मन बाहर जाने को नहीं करता? उसको मालूम था आंटीजी ने घर और अलमारी की सब चाबियाँ कहाँ छिपाकर रखी हैं। वो चाहे तो अलमारी खोलकर सब समेटकर भाग सकती थी। लेकिन वो चोर नहीं थी। आंटीजी ने चाहे जैसे भी हो एक सुरक्षित छत और इज़्ज़त का खाना तो उसको मुहैया कराया ही था।
तेरह दिन हो गए थे नसरीन को मैडम बनकर रहते हुए। दीदी के कमरे में उनकी तरह रहते हुए, उनकी पसंद का खाना उनके ही अंदाज़ में खाते हुए उसका मन नहीं भरा था। कल किसने देखा है, कल हो न हो बस आज पूरा जीना है। उसको कई बार सपने में लगता कि दीदी के मर जाने की ख़बर आ रही है। फिर जागकर ख़ुद ही ख़ुद पर गुनाह करने का इलज़ाम लगाकर उसी वक़्त दुआ में ख़ुदा से दीदी की लम्बी उम्र की सलामती चाहती।
चौदहवें दिन दीदी की फ्रॉक पहन भूरे रंग की लिपस्टिक काजल लगाकर उसने गाने लगाए और ‘लगदी लाहौर दी’ पर झाड़ू हाथ में लिए उसने डांस करना शुरू कर दिया। बर्तनों की सफ़ाई के समय ‘डीजे वाले बाबू मेरे गाना चला दो’ के साथ-साथ सब गिलास-कप भी साफ़ होते जा रहे थे।
बर्तनों के बाद गाना बदलने के लिए रिमोट उठाया तो साथ ही रखे अपने फोन पर उसकी नज़र गई। छोटी दीदी की दो कॉल आंटीजी की पाँच कॉल। बड़ी दीदी की एक कॉल…

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नसरीन बुरी तरह डर गई- “या ख़ुदा! यह छोटी दीदी मर गई क्या! तभी सबके इतने फोन आए हैं।” वो धम्म से वहीं बैठ गई। तभी उसका फोन फिर से बज उठा। दूसरी तरफ़ आंटीजी थीं- “नसरीन, बाबाजी का प्रसाद बनाओ आज। उर्वशी का कोरोना टेस्ट नेगेटिव आया है। सबकी अरदास का फल है। उर्वशी आज शाम तक घर आएगी। उसका बहुत सारा ख़याल रखना। उसकी पसंद की चीज़ें बनाना। उसका कमरा साफ़ है न? सब जगह डस्टिंग करना।”
उसकी भी आँखों से आँसू बह उठे। अब वो दीदी के ख़ुश होने पर थे या किसी को उसकी फ़िक्र न होने के दुख के कारण, यह नसरीन नहीं जानती थी।
“आंटीजी, प्रसाद तो हमेशा आप बनाती थीं, आप कहती थीं कि तुम बाबाजी का कोई काम नहीं करोगी, किसी चीज़ को हाथ नहीं लगाओगी। अब हलवा कैसे?” नसरीन ने हिचकते हुए कहा।
“मेरी बच्ची, शायद तेरी भी दुआ शामिल थी न जो उर्वशी घर लौट रही है। जब यह बीमारी अमीर-ग़रीब, हिंदू-मुस्लिम का फ़र्क़ नहीं कर रही तो हम कौन होते हैं। तुम शुकराना अदा करो, हलवा बनाकर बाबाजी को भोग भी लगाना।” आंटीजी के प्यार भरे शब्द उस घर को एक अपनेपन की आभा से रोशन कर गए।
हलवा बनाकर उसने कैसरोल में रख दिया। आंटीजी को उसने अक्सर पूजा की थाली लगाते देखा था तो आज उसने आरती का थाल लगाकर दरवाज़े के पास रख दिया और घर में एक नज़र घुमाते हुए एक स्वप्न के ख़त्म होने की ठंडी आह भरी। बाहर दीदी को छोड़ने एम्बुलेंस आ चुकी थी। सब बिल्डिंग वाले ताली बजाकर दीदी को चीयर वेलकम कर रहे थे। दीदी पहले से कमज़ोर लग रही थी। दीदी ने नसरीन को आरती उतारते देखकर गले से लगाया और ख़ूब ज़ोर से रोने लगी। उसके भी आँसू नहीं रुक रहे थे।
“दीदी, मेरा ख़ुदा आपको मेरी भी उम्र लगा दे। आप ठीक ही रहो बस।”
कोई सोशल डिस्टेंस उस वक़्त उनको याद नहीं था। दीदी बाबाजी के कमरे में माथा टेककर अपने कमरे में न जाकर आंटीजी के कमरे में चली गईं और बिस्तर पर लेटकर उनको वीडियो कॉल मिलाने लगीं। नसरीन ने बाबाजी को हलवे का भोग लगाया और दीदी को एक कटोरी हलवा देकर उनके लिए कॉफी बनाने लगी।

“नैस यहाँ आओ।”
रसोई के तौलिए से हाथ पोंछते हुए वो दीदी के पास उनके कमरे में थी। उनके सामने जाकर उसको काटो तो ख़ून नहीं था वाली हालत हो गई।
दीदी अपनी अलमारी से बहुत सारे कपड़े निकालकर बिस्तर पर रख रही थीं। दीदी ने उसका हाथ पकड़ा और बोला, “नैस, तुमको मेरे कपड़े बहुत पसंद आते हैं न? कौन से सबसे ज़्यादा पसंद हैं?”
नसरीन बहुत बुरी तरह डर गई। उसकी टाँगें कँपकँपाने लगी। चेहरा ज़र्द हो गया। आँखों से आँसू की अविरल धारा बहने लगी। अब इन कपड़ों को तो पहनकर देख चुकी थी। उसने दीदी के हाथ पकड़े और ख़ूब ज़ोर से रो दी- “दीदी, आप ऐसे नहीं करो। ख़ुदा आपको लम्बी उम्र दे। आपके कपड़े कैसे ले सकती हूँ?”
“जानती हो, मैंने उदासी के एक दिन अपने कमरे को देखना चाहा तो घर के वाईफाई से जुड़े कैमरे से घर को देखा। तुम मेरे कपड़े पहने हुए घर में सब काम करते हुए मस्त नाच रही थी… मुझे उस वक़्त तुम पर ग़ुस्सा आना चाहिए था लेकिन न जाने क्यों मुझे ज़रा भी ग़ुस्सा नहीं आया। मैं तुमको देखती ही रही। मुझे उस वक़्त तुम्हारी ज़िंदादिली ने बहुत हिम्मत दी।”
“दीदी, आपको सच्ची में मुझ पर ग़ुस्सा नहीं आया?” नसरीन ने डरते हुए हौले से पूछा।
“नहीं, तुम भी अकेली थी ठीक मेरी तरह। तुम भी तो डिप्रेशन में जा सकती थी लेकिन तुमने ख़ुद को सम्भाले रखा… बस फिर रोज़ाना तुमको देखती, तुम कैसे ख़ुद को ख़ुश रखने की कोशिश कर रही हो। तुम अपने मन की छोटी-छोटी ख़ुशियाँ और फंतासियाँ जी रही थी।”
“दीदी, सॉरी हमसे ग़लती हो गई, आगे से ऐसा कुछ नहीं करेंगे।” नसरीन ने माफ़ी माँगते हुए कहा।
“हर अगले दिन फिर उत्सुक होकर कैमरा खोलती थी कि तुमने आज क्या किया? तुमने आज क्या पहना? तुमने आज क्या पकाया? बस इसी उत्सुकता और ज़िंदादिली से मैंने भी दिन काटने शुरू किए। तुमने लौंग लाची पर डांस किया न तो मैंने भी उस दिन से लगातार रोज़ाना डांस और योग किया।”
“नसरीन, माँगो जो तुम चाहती हो, आज मैं तुमको वो सब दूँगी जो माँगोगी।”
उर्वशी ने आज पहली बार नैस को नसरीन कहकर पुकारा था।
नसरीन की आँखों से ख़ामोश आँसू बह रहे थे लेकिन मन चीख़ रहा था- ‘दीदी फिर से लम्बे समय के लिए क्वारंटाइन नहीं हो सकती क्या?’

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—नीलिमा शर्मा

चर्चित कहानीकार नीलिमा शर्मा का जन्म 26 सितंबर को मुज़फ़्फ़र नगर, उत्तर प्रदेश में हुआ. हिंदी साहित्य के प्रथम डिजिटल साझा उपन्यास ‘आईना सच नही बोलता’ की अवधारणा, संयोजन संपादन सहलेखन भी किया है जो कि www.matrubharati.com पर उपलब्ध है। नीलिमा शर्मा की कविताएं 25 से अधिक संकलनों और प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में सम्मिलित की जा चुकी हैं। उनकी लघुकथाएं भी 20 से अधिक संकलनों /पत्रिकाओं में स्थान प्राप्त कर चुकी हैं। कहानीकार के तौर पर भी नीलिमा शर्मा ने अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई है। कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में उनकी कहानियाँ/कविताएँ /लघुकथाएँ प्रकाशित हुई है। *उनकी कहानी टुकड़ा टुकड़ा जिंदगी का अनुवाद पंजाबी उर्दू के साथ जापानी भाषा मे भी किया गया , जापानी अनुवाद टोक्यो विश्वविद्यालय की पत्रिका में शामिल किया गया है ।

सम्मान :-
: मातृभारती’साहित्य के उभरते सितारे’सम्मान 2016
: लघुकथाओं के लिए आचार्य रत्नलाल विद्यानुग स्मृति लघुकथा प्रतियोगिता सम्मान 2017
:मेरठ लिट् फेस्ट 2018 में ‘साहित्यश्री सम्मान “प्राप्त
: साहित्य समर्थ कुमुद टिक्कू कहानी प्रतियोगिता ( प्रशंसनीय कहानी )पुरस्कार 2019
:राधा अवधेश स्मृति कथा पुरस्कार (कोई ख़ुशबू उदास करती है कहानी संग्रह के लिए)
रामदेवी वागेश्वरी सम्मान (कहानी संग्रह कोई ख़ुशबू उदास करती है के लिए )

: दो वर्ष तक मातृभारती.कॉम की हिंदी संपादक रही

वर्तमान में –  पुरवाई ई पत्रिका की उपसंपादक

व्यंग्य : स्मृति चिह्न का मिलना और उसके बाद 

Swati Tiwari की kahani :‘कोई परिचित’