Street Dogs– Friends or Terror: स्ट्रीट डॉग या आवारा कुत्ते- दोस्त या आतंक

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Street Dogs– Friends or Terror: स्ट्रीट डॉग या आवारा कुत्ते- दोस्त या आतंक

भोपाल के मीनाल रेजिडेंसी क्षेत्र में एक छह माह के शिशु को कुछ कुत्तों ने हमला करके मार दिया और वीभत्स तरीक़े से उसका एक हाथ खा लिया। शिशु का दोष यह था कि वह एक ग़रीब श्रमिक महिला की बेटी थी जिसे मज़दूरी करते समय उसकी माँ ने उसे दूर रख दिया था। उसका यह भी दोष था कि उसने ऐसे देश में जन्म लिया, जहाँ नागरिकों की सुरक्षा से स्थानीय निकायों को कोई सरोकार नहीं रहता है। एक अन्य पॉश इलाक़े में एक शाम को ही एक कुत्ते ने 20 लोगों को काट लिया। ये कोई अनोखी घटनाएँ नहीं थी। भारत के सभी शहरों में ये कुत्ते, जिन्हें स्ट्रीट डॉग या आवारा कुत्ते कहा जाता है, अनियंत्रित हो गए हैं तथा उनके हमलों में अनेक लोगों ने जान गँवाई है या घायल हुए हैं। इनमें 20% छोटे बच्चे होते है। आवारा मवेशी की तरह कुत्तों पर भी भारत की कोई भी स्थानीय निकाय इनका उन्मूलन नहीं कर सकी है। वास्तव में ये कुत्ते भी दुर्भाग्यशाली हैं। यद्यपि स्मार्ट सिटी बनाने के प्रयास हो रहे हैं, लेकिन इन दुर्भाग्यशाली जानवरों के लिए लचर कार्रवाई उसी प्रकार होती है जैसे शहरी नालों की सफ़ाई, शहर के अनेक क्षेत्रों में लाइट व्यवस्था, भारत के अधिकांश शहरों की सफ़ाई तथा हर घर को स्वच्छ जल प्रदाय करने की कार्रवाई होती है। स्मार्ट सिटी का अर्थ केवल दो चार सौ एकड़ में बिल्डर की तरह काम करना है। एकांत पार्क के कुत्तों से भयभीत होकर मैंने सोशल मीडिया में एक खुला पत्र प्रशासन के नाम लिखा था, जिस पर तनिक भी कार्रवाई नहीं हुई।

लगभग साढ़े सात लाख वर्ष पहले जब वनमानुष से मानव जैसे बने हमारे पूर्वजों ने पेड़ों से उतरकर भूमि पर चलना प्रारंभ किया तब सबसे पहला उसका मित्र कुत्ता था। कुत्ता उसे शिकार तथा सुरक्षा दोनों में विश्वस्त मित्र और सेवक की तरह काम करता था। इतनी पुरानी अवधि की कल्पना करना बहुत कठिन है, क्योंकि घोड़ा तथा अन्य मवेशी केवल चार से आठ हज़ार वर्ष से ही मनुष्य के साथ है। कुत्ते की स्वामी भक्ति की अनेक कहानियां किंवदंती बन चुकी है। पालतु और आज्ञाकारी कुत्ता बहुत प्यारा लगता है।

भोपाल में डेढ़ से ढाई लाख आवारा कुत्तों का अनुमान किया गया है। पूरे भारत के शहरों और कस्बों में छह करोड़ से अधिक आवारा कुत्ते हैं। पालतू कुत्तों की संख्या इनसे आधी है। आवारा कुत्तों की जनसंख्या का विस्फोट कुछ ही दशक पहले तब हुआ, जब भारत के आकाश से गिद्ध विलुप्त होने लगे और मृत जानवरों और पक्षियों को खाने का पूरा अवसर केवल इन कुत्तों को प्राप्त हुआ। इस वातावरण में इनकी एक मादा वर्ष में 20 तक बच्चे दे सकती है। शहरों की बढ़ती आबादी में होटल और खाने पीने के ठेले से फेंका गया खाना भी इन्हें उपलब्ध हो रहा है। इसके अतिरिक्त कुछ पैट लवर भी कुत्तों को भोजन कराते हैं। अधिकांश कुत्तों के झुंड इन भोजन के इन स्रोतों के आस पास ही मंडराते रहते हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार विश्व के 36 पर्सेंट लोगों की मृत्यु रैबीज़ से केवल भारत में होती है। हमारे नैशनल रैबीज़ कंट्रोल प्रोग्राम के एक प्रतिवेदन में कहा गया है कि 2012 से 2022 के बीच में 6,644 लोगों की रैबीज़ से मृत्यु हुई है। इतना कम आँकड़ा अविश्वसनीय है। कुत्तों की ये सामान्य प्रवृत्ति है कि वे अपना भोजन इधर उधर घूमते हुए ढूँढ कर करते हैं।शहरों में इसके लिए वे दो-तीन किलोमीटर घूमते रहते थे। अब भरपूर भोजन एक ही स्थान पर मिल जाने से इन्हें बिना परिश्रम किये भोजन मिलता रहता है, जिससे इनका मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है। पैट लवर की वजह से यह समस्या और बढ़ गई है। ये कुत्ते अपने छोटे से क्षेत्र की रखवाली के लिए इतने आक्रामक हो जाते हैं कि प्रत्येक हिलती चीज़ पर अनावश्यक हमला कर बैठते है।

आवारा कुत्तों की समस्या विश्वव्यापी है। 2001 के नियमों के अनुसार भारत में अब किसी भी कुत्ते को जान बूझकर मारा नहीं जा सकता है। पाकिस्तान में अनेकों कुत्तों को मारने के बाद भी उनकी समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है। यहाँ तक कि अमेरिका जैसे उन्नत और जागरूक देश में भी वर्ष 2016 में 8,66,366 कुत्तों को बेहोश करके दया मृत्यु दे दी गई। भारत के शहरों में इन्हें कम करने का सर्वोत्तम उपाय इनकी नसबंदी तथा उसके बाद टीकाकरण करने की है। इससे कुत्ते हिंसक भी नहीं रह जाते हैं। यह काम बहुत श्रम साध्य और अत्यधिक तकनीकी है। नसबंदी की गति भी इनके पैदा होने की गति से अधिक होनी चाहिए, जो हमारे नगर निगमों के बूते के बाहर है। तकनीकी समस्या यह है कि कुत्तों का अपना एक झुंड होता है और वे एक क्षेत्र पर एकाधिकार करके रहते हैं। नसबंदी के लिए ऐसे छोटे छोटे झुन्डों के सभी कुत्तों को एक साथ पकड़ कर नसबंदी करनी होगी और इसके बाद उन्हें उसी क्षेत्र में ही छोड़ना होगा। दूसरे शब्दों में शहर के विभिन्न क्षेत्रों से बेतरतीब तरीक़े से पकड़कर लाए गए कुत्तों की नसबंदी से किसी प्रकार का कोई लाभ नहीं होने वाला है। इसलिए छोटे-छोटे क्षेत्रों के एक बड़े समूह को लेकर यह कार्यक्रम चलाया जाना आवश्यक है। भोपाल में नसबंदी और टीकाकरण के लिए कुछ सुविधाएँ बनायी गई हैं। ये अपर्याप्त हैं। दबे स्वरों में यह भी शिकायत आती है कि इन अपर्याप्त सुविधाओं का भी प्रयोग फ़र्ज़ी आंकड़ों के आधार पर हो रहा है। नगर निगम की प्राथमिकताओं में कुत्ते का स्थान बहुत नीचे है।

शहरों और मोहल्लों को साफ़ रखने के लिए प्रधानमंत्री मोदी को राष्ट्रीय आह्वान करना पड़ा था। हर्ष का विषय है कि मध्य प्रदेश ने इस क्षेत्र में सराहनीय कार्य किया है।लेकिन भारत का विशाल भूभाग उनके कार्यक्रम से बहुत दूर है। बंगाल ने तो गंदगी दूर करने के लिए कोई प्रयास ही नहीं किया है। फिर भी, कुत्तों के लिए शायद मोदी को ही एक नये अभियान का बिगुल फूँकने की आवश्यकता है।