

रविवारीय गपशप :पदोन्नति से इंकार करने वाले रणबांकुरों के अपने अलग ही तर्क!
आनंद शर्मा
मध्यप्रदेश के उच्च न्यायालय ने पिछले दिनों यह फैसला दिया कि ऐसे अधिकारी या कर्मचारी जो पदोन्नति स्वीकार करने से इनकार करते हैं, वे भविष्य में समयमान वेतनमान या उससे मिलने वाली वेतनवृद्धि के पात्र नहीं होंगे। नौकरी की शुरुआत में मैं भी यही सोचता था कि भला ऐसा कौन मानुष होगा जो पदोन्नति से भी इनकार करे , पर शनै शनै समझ आया कि ऐसे भी बहुतेरे लोग हैं। उदाहरण के लिए सरकारी विभागों के लिपिक या बैंक के बाबू अक्सर पदोन्नति लेने से इंकार कर देते हैं क्योंकि उन्हें इसके कारण अपना शहर छोड़ कर बाहर जाना पड़ता है।
यही हालात इसी तरह की अन्य वित्तीय संस्था के लोगों की है, मसलन बीमा। मेरे बचपन के एक मित्र ही जो नेशनल इंश्योरेंस में बतौर लिपिक भर्ती हुए, कई दिनों तक बाबूजी ही कहलाना पसन्द किए। आख़िरकार कई वर्षों बाद मैं उनको समझा पाया कि साहब बनने का अलग मजा है और फिर वे साहब बनते ही अपने गृह नगर से बाहर चले गए, अलबत्ता अंततः सुखी होकर अपने गृह नगर की ब्रांच से ही बतौर अफसर रिटायर हुए।
नौकरी में आने के बाद मैंने ऐसे कई अफसर देखे जो थानेदारी छोड़कर डिप्टी एसपी और तहसीलदारी छोड़कर डिप्टी कलेक्टर नहीं बनना चाहते थे। उनकी छोड़ें तो अखिल भारतीय सेवा के भी कुछ रणबांकुरे ऐसे हुए, जिनका दिल पदोन्नति के लिए पुलिस कप्तानी से लेकर कलेक्टरी और कमिश्नरी छोड़ने में आँसता था। लेकिन, पदोन्नति न पाकर उसी पोस्ट में बने रहने की चाहत कितनी व्यग्र हो सकती है, ये मैंने तब जाना जब मैं परिवहन विभाग में उपायुक्त प्रशासन पदस्थ हुआ। उपायुक्त प्रशासन होने के नाते स्थापना का काम मेरे जिम्मे था, हमारे नए आयुक्त एनके त्रिपाठी जी का मानना था कि नौकरी में किसी भी अधिकारी या कर्मचारी को उसके मान्य अधिकारों से वंचित नहीं किया जाना चाहिए। समीक्षा में जब ये पाया गया कि विभाग में बरसों से पद रिक्त हैं और पदोन्नति नहीं हो रही है तो उन्होंने रोस्टर पूरे करवाए और अभियान चालू किया कि जिसका जो भी वाजिब हक है वो उसको मिले। इसके लिए बेवजह की जांचें बंद कीं और जो गंभीर मुद्दे थे उन पर दण्ड भी दिए और पदोन्नति की तैयारियाँ शुरू हो गईं।
विभाग में इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ा और सभी लोग खुश हुए। हम लगातार विभागीय पदोन्नति समिति की बैठकें कर रहे थे और चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों से लेकर अफसर तक सभी संवर्गों की एक के बाद एक डीपीसी की बैठकें हो रही थीं, तभी आरटीआई से एआरटीओ यानी परिवहन निरीक्षक से सहायक परिवहन अधिकारी की डीपीसी की तैयारी के बीच एक इंस्पेक्टर साहब मोतीमहल के मेरे दफ्तर में मिलने आए और मुझसे कहने लगे कि मुझे पदोन्नति नहीं चाहिए। कृपया मेरा नाम पदोन्नति के लिए विचार में मत लीजिएगा। मैंने उन्हें समझाना चाहा और कहा भाई पदोन्नति तो अच्छे के लिए होती है और अब इस स्टेज पर ये संभव नहीं है कि आपको छोड़ कर बाकियों को पदोन्नत कर दिया जाए, इससे तो कोर्ट केस हो जाएगा।
मेरे सामने बैठे भले मानुष ने जेब से एक कागज निकाल कर मुझे देते हुए कहा सर कोर्ट केस तो तब होगा, जब आप मुझे पदोन्नत कर दोगे , ये मेरे पक्ष में कोर्ट का स्टे है कि मुझे पदोन्नत न किया जाए। मैंने आदेश पढ़ा, बंदा सही कह रहा था। इस प्राणी ने कोर्ट में बाकायदा अर्जी लगा रखी थी कि वो एक पिछड़े समुदाय से है और उसे विभाग जबरन पदोन्नति दे रहा है जिससे उसे वाजिब हक से वंचित होना पड़ेगा। यह भी कि निरीक्षक के पद पर उसे ज़्यादा समय नहीं हुआ है, तो उसे पदोन्नत न किया जाए।
कोर्ट ने स्टे ऑर्डर में कहा था कि इनके अभ्यावेदन का निराकरण करने के बाद ही इन्हें पदोन्नत किया जाए। मैंने त्रिपाठी साहब से बात की और उन्हें सहमत कराया कि कल की डीपीसी तो हम कर लेते हैं और इनका अभ्यावेदन लेकर इनका पद रोक लेते हैं। फिर अभ्यावेदन के निराकरण बाद इस पर फैसला ले लेंगे। ऐसा ही हुआ और बाद में जब निराकरण के पश्चात उन सज्जन को बुलाकर बताया गया कि अब आपको पदोन्नत किया जाना आवश्यक है,वरना आगे और पीछे दो पदों को आप रोक लेंगे तो बेमन से ही सही, वो भी सहमत हो गए।
जब वे चलने लगे तो मैंने पूछा आखिर आप क्यों पदोन्नति नहीं चाहते हो, तो वे बोले आरटीओ बनने के बाद कोई और प्रमोशन ही नहीं है, मुझसे कई बरस सीनियर लोग भी जीवनभर से इसी पद पर हैं। मुझे पीड़ा सही लगी और जब मैंने त्रिपाठी साहब से इसका जिक्र किया तो उन्होंने कहा इसका उपाय काडर रिव्यू ही है। त्रिपाठी साहब के मार्गदर्शन में लगभग दो वर्ष की मेहनत के बाद शासन ने विभाग में नए सेटअप की मंजूरी दी और आज परिवहन विभाग में आरटीओ के ऊपर उपायुक्त और अपर आयुक्त तक की पद शृंखला हो गई है।