

आतंकियों के साथ शहरी नक्सलियों पर नियंत्रण का अभियान
आलोक मेहता
लंदन में विदेश मंत्री एस जयशंकर पर खालिस्तान समर्थक समूह द्वारा हमले की कोशिश पर भारत सरकार ने गंभीर चिंता व्यक्त की है। कथित खलिस्तान के नाम पर ब्रिटेन, कनाडा और अमेरिका जैसे देशों में कुछ आतांकवादी समूह न केवल सक्रिय हैं बल्कि कथित मानव अधिकार के नाम पर कुछ अंतरराष्ट्रीय संगठन और राजनीतिक दल के नेता भी उनका समर्थन करते हैं। ब्रिटेन में लेबर पार्टी के वरिष्ठ नेता प्रतिपक्ष में रहकर वोट बैंक के लिए या भारत को कमजोर देखने के लिए उनका समर्थन करते रहे हैं। अब लेबर पार्टी सत्ता में हैं और वह भारत के साथ अच्छे संबंधों के लिए प्रयासरत है। ऐसी स्थिति में भारत का कड़ा विरोध आवश्यक है। लेकिन भारत में भी पाकिस्तान तथा अन्य देशों के माध्यम से फन्डिंग पा रहे कथित खालिस्तानी आतंकी अथवा नक्सली अब भी कुछ इलाकों में समय समय पर हमले की कोशिश करते हैं। उत्तर प्रदेश और पंजाब पुलिस के समूह ने इसी सप्ताह खालिस्तानी आतंकी संगठन बब्बर खालसा इंटरनेशनल तथा पाकिस्तानी आई एस आई के सदस्य लजर मसीह को महाकुंभ में आतंकी वारदात की साजिश के सबूतों के साथ गिरफ्तार किया है। यहाँ भी चिंता कि बात यही है कि मानव अधिकार के नाम पर कुछ राजनीतिक दल भी आतंक के आरोपियों और नक्सली गतिविधियों में सक्रिय अथवा अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग दे रहे लोगों का समर्थन करते हैं।
इसी संदर्भ में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने इस बात पर देश का ध्यान दिलाया है कि कुछ प्रदेशों के जंगलों में सक्रिय नक्सलियों पर नियंत्रण और उनके आत्मसमर्पण में सरकार और सुरक्षा बालों को बहुत हद तक सफलता मिली है। जहां पहले देश के करीब सौ जिलों में नक्सली आतंक था, वहाँ अब करीब दो दर्जन जिलों तक सीमित रह गया है। लेकिन अब अर्बन नक्सल के खतरे अधीक बढ़ गए हैं। आतंकी और नक्सल गतिविधियों में शामिल तत्वों को उन राजनीतिक दलों का समर्थन मिल रहा है जो स्वयं उनकी गतिविधियों के शिकार रहे हैं। वे कभी महात्मा गांधी की विचारधारा को आदर्श मानते रहे लेकिन अब वे हिंसक गतिविधियों वाले तत्वों का समर्थन करने लगे हैं। यहाँ तक कि ऐसे राजनीतिक दलों के नेता अथवा प्रगतिशील कहने वाले बुद्धिजीवियों के समूह उनसे सहानुभूति रख रहे हैं। जबकि हिंसा और अलगाववाद में सक्रिय लोग विकास और विरासत के घोर विरोधी हैं। प्रधानमंत्री की यह चिंता स्वाभाविक हैं क्योंकि अमेरिका तथा अन्य देश आतंक और हिंसा के खिलाफ विश्व अभियान में भारत को आदर्श भूमि की तरह देखना चाहते हैं। अंतर राष्ट्रीय शांति प्रयासों में भारत के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की भूमिका को महत्वपूर्ण माना जाता है।
शहरी नक्सल पर चिंता का मुद्दा पहली बार नहीं उठा है। कॉंग्रेस राज में गृह मंत्री रहे पी चिदंबरम ने पश्चिम बंगाल में नक्सलवादियों द्वारा सुरक्षा बलों के शिविर पर कातिले हमले के बाद स्वयं कहा था कि “मानवधिकारवादी ऐसी नक्सली हिंसा की निंदा तो करें। किसी भी नागरिक अधिकार संगठन या वामपंथी बुद्धिजीवियों की जमात ने इस गंभीर हत्या की घटना पर भी एक शब्द आलोचना का नहीं कहा।“ इस दृष्टि से अब काँग्रेस पार्टी प्रतिपक्ष में रहकर ऐसे तत्वों का समर्थन कर रही है। गृह मंत्री अमित शाह ने पिछले दिनों स्पष्ट रूप से यह घोषणा भी कर दी है कि भारत सरकार 2026 तक नक्सलियों के आतंक को पूरी तरह समाप्त करने के लिए प्रतिबद्ध है। दूसरी तरफ राहुल गांधी न केवल भारत में बल्कि अमेरिका और यूरोप तक की यात्राओं के दौरान भारतीय संविधान और मानव अधिकार हनन कि स्थिति के आरोप लगा रहे हैं। वे तो उन मंचों पर भारत में सिक्खों के पगड़ी या कड़ा पहनने पर संकट तक के बेबुनियाद आरोप लगाते हैं। इस तरह के बयानों का लाभ कनाडा, अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में सक्रिय भारत विरोधी आतंकी संगठनों को मिलता है। वहीं भारत में कुछ लेखक, वकील और पत्रकार प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से हिंसक गतिविधियों में शामिल लोगों तक की गिरफ़्तारी पर आपत्ति व्यक्त करते हैं। उनके लिए धन और कानूनी सहायता जुटाई जाती है। निश्चित रूप से इन आरोपों पर निर्णय अदालत तय करती है लेकिन कानूनी कार्रवाई महीनों और वर्षों तक चलती हैं।
आतंकी संगठन इस सहनुभूति का लाभ उठाकर शहरों मे अपने अड्डे बनाने लगे हैं। माववादी पहले छपी हुई सामग्री का इस्तेमाल करते रहे और अब टीवी चैनलों और सोशल मीडिया पर भारत विरोधी गतिविधियों को सही ठहराने लगे हैं। वर्षों पहले देश के एक वरिष्ठ पत्रकार अमूल्य गांगुली ने कहा था कि “ऐसे बुद्धिजीवियों को लेनिन कि परिभाषा के अनुसार “यूजफुल ईडियट” कहा था, जो यह जानते हुए भी कम्युनिष्टों के प्रति व्याकुल रहते है कि उनका लक्ष्य कथित सड़ चुकी बुरजुवा व्ययस्था को उखाड़ फेंकना है।“ दुर्भाग्य की बात यह है कि दिल्ली, मुंबई से लेकर पंजाब, हिमाचल जैसे क्षेत्रों में फैले ऐसे अर्बन नक्सल हथियारबंद हिंसा को भी आतंककवादी गतिविधि नहीं मानते हैं। वे इस हिंसा को सुरक्षाबलों को “खाकी आतंकवाद” की संज्ञा देते हैं। अर्बन नक्सल के समर्थन और शरण मिलने से नक्सली सरकारी गवाह बने पूर्व साथियों, पुलिस और सुरक्षा बालों को वर्ग शत्रु कहकर निशाना बनाते हैं। अर्बन नक्सल समूह वास्तव में भारतीय संस्कृति और विरासत का ही विरोध नहीं करते, वरन विकास का भी विरोध करते हैं। इसीलिए छत्तीसगढ़, झारखंड, उत्तराखंड, हिमाचल जैसे प्रदेशों में औद्योगिक विकास के विरुद्ध आंदोलनों को प्रोत्साहित किया जाता है। महाराष्ट्र और तमिलनाडु में परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के विरुद्ध धरने और आंदोलन चलाए जाते हैं। आदिवासी महिलाओं के हितों की बात करने वाले संभवतः इस बात पर भी ध्यान नहीं देते कि माववादी नक्सली अथवा खालिस्तानी आतंकवादी कुछ मासूम महिलाओं को बर्गलाकार अपने गिरोह में शामिल करते हैं और उनके साथ बाद में बलात्कार तक होता है। छतीसगढ़ में आत्मसमर्पण करने वाले ऐसे आदिवासी युवक युवतियों ने स्वयं कुछ वर्ष पहले एक इंटरव्यू के दौरान मुझे इन ज्यादतियों की वीभत्स दास्तान सुनाई थी। सरकार जहां अब भी नक्सलियों से आत्मसमर्पण की अपील भी कर रही है वहाँ एन जी ओ के नाम पर फन्डिंग पर नियंत्रण के प्रयासों को अदालतों में चुनौती दी जा रही है। पिछले दो-तीन वर्षों में अर्बन नक्सल भारतीय चुनाव व्यवस्था पर भी प्रश्न चिन्ह लगा रहे हैं और पराजित होने वाले राजनेता भी उनकी भाषा बोलने लगे हैं। पूर्व प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह ने भी देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए नक्सलियों को सबसे बड़ा खतरा बताया था। विडंबना यह है कि झारखंड मुक्ति मोर्चा कभी नक्सली हिंसा से परेशान था और सख्ती से निपटने की बात करता था लेकिन सत्ता में आने के बाद शिबू सोरेन और हेमंत सोरेन परिवार तथा पार्टी कहने लगी कि शिव शक्ति से मुकाबला नहीं किया जा सकता। नक्सलियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जाएगी। पश्चिम बंगाल और झारखंड में तो नक्सली खुद ही सत्ता में शामिल हो गए। चुनावी बहिष्कार के नक्सली प्रयासों और अर्बन नक्सल के दुष्प्रचार के बावजूद छत्तीसगढ़ और जम्मू कश्मीर जैसे राज्यों में चुनाव के दौरान भारी मतदान हुआ। बहरहाल यह लड़ाई लंबी है और इस पर नियंत्रण के लिए सरकार और समाज को हरसंभव अभियान चलाने होंगे।