साँच कहे ता! गणतंत्र के मुडे़र पर बैठे महाजनों से रामराज्य की बात!

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गणतंत्र के मुडे़र पर बैठे महाजनों से रामराज्य की बात!

देश में कुछ समूह खुद को संविधान से ऊपर या संविधान को ही नहीं मानते। इन्हें संसद समेत अन्य लोकतांत्रिक संस्थाओं पर विश्वास नहीं। इन्हें न्यायपालिका पर भी अँगुली उठाने से परहेज़ नहीं। यह सरकारों की उदात्तता है या लोकतंत्र की महत्ता कि हम ऐसे समूहों को बर्दाश्त करते रहते हैं, या फिर सरकार की सहमति.. कि आप लोग कुछ भी करिए हम आँखें मूँदे रहेंगे। ये स्थितियाँ हमारे गणतंत्र को संक्रमित करने वाली हैं।

 

आखिर यह क्यों? जवाब हर विवेकवान नागरिक के पास है। सरकारें राजनीतिक दलों की बनती हैं। उस तख्त-ए-ताऊस पर कब्जा करने के लिए वोट की जरूरत पड़ती है और ऐसे अराजक समूहों को साधना अब वोटबैंक सुनिश्चित करना होता है।

 

निर्वाचित सरकारों को इसके लिए कास्ट-क्रीड-रेस के भेदभाव से ऊपर उठकर लोकमंगल के लिए ली गई शपथ को भूलना पड़े तो वह भी चलेगा। गणतंत्र इन सब भेदभावों से ऊपर ऐसी समदर्शी व्यवस्था है जिस पर चलने में दुनिया के अधिसंख्य राष्ट्र खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं।

 

क्या अपना गणतंत्र आज ऐसी स्थिति में है? ध्यान रखियेगा पैदा किए गए प्रेतों को जब शिकार नहीं मिलता तो वे पैदाकरने वाले का ही शिकार करने लगते हैं।

 

मनुस्मृति के सातवें अध्याय में राज्य की व्यवस्था और राजा के कर्तव्यों का वृतांत है। इसमें एक श्लोक है जिसका भावार्थ है- ‘यदि राजा दंडित करने योग्य व्यक्तियों के ऊपर दंड का प्रयोग नहीं करता है, तो बलशाली व्यक्ति दुर्बल लोगों को वैसे ही पकाएंगे जैसे शूल अथवा सींक की मदद से मछली पकाई जाती है’।

 

बढ़ते हुए हुड़दंग और राष्ट्रद्रोह की घटनाओं का सिलसिला यह बताता है कि दंड का भय समाप्त होता जा रहा है इसलिए अब कोई कानून की परवाह नहीं करता। लेकिन यह अर्धसत्य है। सत्य यह है कि दंड समदर्शी नहीं है। उसमें आँखें उग आई हैं तथा वह भी अब चीन्ह-चीन्ह कर व्यवहार करना शुरू कर दिया है। कानून की व्याख्या वोटीय सुविधा के हिसाब से होने लगी है।

 

समारोहों में कास्ट-क्रीड और रेस से ऊपर उठकर लोकमंगल के लिए काम करने की जो संवैधानिक शपथें ली जाती हैं वे दिखावटी हैं। इसीलिये हमारे गणतंत्र की पीठपर बैठकर अराजक हुड़दंगतंत्र अट्टहास कर रहा है और हमारा लोकतंत्र प्रौढ़ होने के पहले ही क्षयरोग का शिकार होकर हाँफने सा लगा है।

 

यदि हम गणतंत्र की गरिमा, उसके आदर्श और उसकी अभिलाषा के सम्मान की रक्षा में असमर्थ हैं तो फिर राजपथ में और तमाम जगह-जगह छब्बीस जनवरी का कर्मकाण्ड किसको दिखाने के लिए हर साल रचाते हैं?

क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि रोशन रंगीनियों के जमाने में अपने देश की तस्वीर कुछ ज्यादा ही श्वेत-श्याम बनकर उभर रही है?

 

भारत के आँगन में ताड़ के पेड़ की तरह एक इण्डिया तेजी से पनप रहा है और वही इण्डिया अपने गणतंत्र की मुंडेर पर बैठकर भारत को हांकने की कोशिश कर रहा है।

 

भारत के खाद-पानी से पनपे इस इण्डिया की उज्जवल व चमकदार छवि देख-देख कर हम निहाल हैं और दुनिया हमें उभरती हुई महाशक्ति की उपाधि से उसी तरह अलंकृत कर रही है जैसे कभी कम्पनी बहादुर अंग्रेज लोग हममें से ही किसी को रायबहादुर, दीवान साहब की उपाधियां बांटते थे।

 

आजाद होने और गणतंत्र का जामा ओढ़ने के साठवें-सत्तरवें दशक में हम ऐसे विरोधाभासी मुकाम पर आकर खड़े हो गए हैं, जहां तथ्यों को स्वीकार या अस्वीकार करना भी असमंजस भरा है।

 

भारत की व्यथा का बखान करना शुरू करें तो इण्डिया सिरे से खारिज कर देता है, इण्डिया की चमक-दमक और कामयाबी की बात करें तो भारत के तन-बदन में आग लगने लगती है। एक ही आंगन में दो पाले हो गए हैं।

 

हालात ऐसे बन रहे हैं कि तटस्थ रह पाना मुमकिन नहीं, यदि पूरे पराक्रम के बाद भी इण्डिया के पाले में नहीं जा पाए तो भारत के पाले में बने रहना नियति है।

 

क्या आपको इस बात की चिंता है कि यह यशस्वी देश के इस तरह के आभासी बंटवारे का भविष्य क्या होगा? इस बंटवारे के पीछे जो ताकते हैं क्या आपने उन्हें व उनके गुप्त मसौदे को जानने-पहचानने की कोशिश की है? परिवर्तन प्रकृति का नियम है पर हर परिवर्तन प्रगतिशील नहीं होता।

 

इस सत्तर दशक में परिवर्तन-दर-परिवर्तन हुए। कह सकते हैं कि जिस देश में सुई तक नहीं बनती थी आज वहां जहाज बनती है। क्षमता और संख्याबल में हमारी फौज की धाक है। कारखानों की चिमनियों से निकलने वाले धुएं का कार्बन बताता है कि औद्योगिक प्रगति के मामले में भी हम अगली कतार पर बैठे हैं।

 

फोर्ब्स की सूची के धनिकों में हमारे उद्योगपति तेजी से स्थान बनाते जा रहे हैं। वॉलीवुड की चमक के सामने हॉलीवुड की रोशनी मंदी पड़ती जा रही है। साल-दो साल में एक विश्व सुन्दरी हमारे देश की होती है जो हमारे रहन-सहन, जीवन स्तर के ग्लोबल पैमाने तय करती है।

 

महानगरों के सेज व मॉलों की श्रृंखला,नगरों, कस्बों तक पहुंच रही है। चमचमाते एक्सप्रेस हाइवे से लम्बी कारों की कानवाय गुजरती हैं। माल लदे बड़े-बड़े ट्राले हमारी उत्पादकता का ऐलान करते हुए फर्राटे भरते हैं।

 

हमारे बच्चे अंग्रेजों से ज्यादा अच्छी अंग्रेजी बोलते हैं। युवाओं के लिए पब डिस्कोथेक क्या-क्या नहीं है। शाइनिंग इण्डिया की चमत्कृत करती इस तस्वीर को लेकर जब भी हम मुदित होने की चेष्टा करते हैं तभी जबड़े भींचे और मुट्ठियां ताने भारत सामने आ जाता है।

 

वो भारत जो अम्बानी के 4 हजार करोड़ के भव्य महल वाले शहर मुम्बई में अखबार दसा कर फुटपाथ पर सोता है। वो भारत जिसके 84 करोड़ लोगों के पास एक दिन में खर्च करने को 20 रुपये भी नहीं।

 

वो भारत जिसका अन्नदाता किसान कर्ज व भूमि अधिग्रहण से त्रस्त आकर जीते जी चिताएं सजा कर आत्महत्याएं करता है। वो भारत जहां हर एक मिनट में एक आदमी भूख से मर जाता है।

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वो भारत जहां के नौजवान उच्च शिक्षा की डिग्री लेकर बेकारी व हताशा में सड़क की अराजक भीड़ हिस्सा बन जाता है।

गणतंत्र की मुंडेर पर बैठे रिपब्लिक इण्डिया के महाजनों को क्या भारत की जमीनी हकीकत पता है?

 

क्या वे जानना चाहेंगे, कि आहत भारत जो कि उनका भी जन्मदाता है उसकी क्या ख्वाहिश है.. क्या गुजारिश है। समय के संकेतों को समझिए…विषमता, शोषण और अन्याय के खिलाफ आक्रोश की अभिव्यक्तियां अभी टुकड़ों-टुकड़ों मेंअलग-अलग प्रगट हो रही है।

कल ये एक हो सकती हैं…। और जब ये अग्निपुंज का रूप लेंगी तब इनसे चेहरा मिलाना भी मुश्किल हो जायेगा।

जय हिन्द-जय भारत

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Jayram shukla
जयराम शुक्ल