भील जनजाति में सहयोग की भावना यानी ‘हलमा!’

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भील जनजाति में सहयोग की भावना यानी ‘हलमा!’

‘हलमा’ आदिवासी समाज की स्वाभिमानी परम्परा है। इसके माध्यम से हम पूरे विश्व को पर्यावरण संकट, ग्लोबल वार्मिंग जैसी विकराल समस्या का हल देने की क्षमता भी ‘हलमा’ परंपरा में है। इस बात का एहसास पूरे समाज में कराना एवं अपनी अस्मिता, अस्तित्व और अक्षय विकास की धारणा को विश्व कल्याण में लगाकर देश के विकास में हमारा समाज महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। एक ऐसा संगम जिसने 21 साल में आदिवासी अंचल की रंगत बदल दी। कई संस्थान रिसर्च कर रहें हैं कि एक साथ हजारों जनजाति व्यक्तियों को एकत्र करके व्यवस्थित तरीके से सार्वजनिक हित का नि:शुल्क श्रमदान कैसे कराया जा सकता हैं।

भील जनजाति का जब कोई व्यक्ति संकट में होता है और अपने प्रयासों के बाद भी संकट से नहीं निकल पाता, तो वह ‘हलमा’ बुलाता है। इस परंपरा का आशय है कि सभी मिलकर सामाजिक दायित्व के भाव से काम करके व्यक्ति को संकट से निकालते हैं। यह हलमा परंपरा आज झाबुआ में पर्यावरण संवर्धन का एक जन आंदोलन बन चुकी है। हर साल हज़ारों लोग झाबुआ की हाथीपावा पहाड़ी पर एकत्रित होकर अनेक जल संरचनाएं बनाते हैं। इस बार भी 25 और 26 फरवरी को झाबुआ में हलमा का आयोजन किया जा रहा है। इसमें मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात के 1500 ग्रामों के 40 हज़ार लोग शामिल होकर 1 लाख कंटूर ट्रेंच का निर्माण करेंगे। ‘शिव गंगा’ के पद्मश्री महेश शर्मा बताते है कि उन्होंने 25 और 26 फरवरी को आयोजित होने वाले हलमा अभियान में महामहिम राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मु को भी निमंत्रण दिया है।

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‘हलमा’ प्रबंधन को देखने और सीखने के लिए आईआईटी, आईआईएम और अन्य शिक्षण संस्थानों के छात्र आते रहते हैं। इसके अलावा इस बार भी देश और विदेश के अनेक व्यक्ति, सामाजिक कार्यकर्ता आदि के आने की संभावना है। इनके ठहरने के लिए टेंट और डारमेट्री की व्यवस्था की गई है, जहां वे 4 दिन तक स:शुल्क ठहर सकेंगे। कार्यक्रम के संयोजक पद्मश्री महेश शर्मा ने बताया कि जनजाति की इस परम्परा को उन्होंने ‘जन हिताय’ स्वरूप देने के लिए झाबुआ, आलीराजपुर समीपस्थ गुजरात, राजस्थान के सैकड़ों गाँवों का भ्रमण कर हजारों परिवारों को हलमा के सार्वजनिक हित और वर्तमान में ग्लोबल वार्मिंग से मुकाबला करने का आह्वान किया। सभी ने सकारात्मक सहमति प्रदान भी की।

21 वर्षों से यह आन्दोलन सर्वजन हित में प्रगति कर रहा है तथा इसके सार्थक परिणाम भी आ रहे हैं। लाखों जल संरचनाओं ने क्षेत्र के जलस्तर में वृद्धि की तथा मवेशियों और ग्रामीणों की पेयजल समस्या का निदान भी किया। क्षेत्र के किसानों को फसल उत्पादन में पानी की कमी से जहां निजात मिली वहीं पर उनके आर्थिक स्तर में दिन प्रतिदिन सुधार भी हो रहा है। महेश शर्मा बताते है कि ‘हलमा’ के बारे में क्षेत्र के परिवार जानते ही थे। किंतु सभी परिवारों के हित में सामूहिक रूप से नि:शुल्क श्रमदान करना, स्वयं की गैती, फावड़ा, तगारी लेकर सपरिवार आने की जागृति उन्होंने अपनी संस्था ‘शिव गंगा’ के माध्यम से दी। सभी ने राजी खुशी से इसकी सहमति दी और वचन दिया कि जब भी उन्हें सूचित करेंगे वे सपरिवार अवश्य सम्मिलित होंगे।

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दुनियाभर में बिगड़ते पर्यावरण और उसके चलते पृथ्वी पर बढते संकट को लेकर देश-विदेश में चिंता प्रकट करने वाले सेमिनार तथा कार्यशालाएं दशकों से हो रही है। दुनियाभर के राष्ट्र प्रमुख मिलकर ग्लोबल वार्मिंग के खतरे से निपटने के लिए पेरिस में वैश्विक जलवायु सम्मेलन करने को बाध्य हुए। लेकिन, देश के अति पिछडे और बीपीएल बहुल जिलों में शामिल झाबुआ अपनी एक आदिवासी परंपरा से विश्व को रास्ता दिखाने को तैयार है। खुशी की बात है कि जहां दुनियाभर में पर्यावरण सुरक्षा की चिंता सिर्फ बंद वातानुकूलित कमरों में कार्यशालाएं की जा रही है, उससे उलट झाबुआ की धरती पर पर्यावरण बचाने के लिए जमीनी काम ‘हलमा’ के जरिए हो रहा है। हजारों आदिवासी ‘हलमा’ के जरिए श्रमदान करते हैं और पहाड़ियों पर जल संरचनाएं बनाते हैं। कंटूर ट्रेंच बनाते है और संख्या मे 100 -200 नहीं, बल्कि हजारों की तादाद में इसका निर्माण करते हैं।

झाबुआ में 21 साल पहले हुए एक आयोजन ने बीते दो दशकों में आदिवासी अंचल में व्यापक बदलाव ला दिया। 17 जनवरी 2002 को हरिभाई की बावड़ी पर हिंदू संगम हुआ था, जो इस क्षेत्र के पर्यावरण, शिक्षा और स्वास्थ्य के साथ ही आर्थिक प्रगति में आज भी योगदान दे रहा है। उसी का परिणाम है कि ‘शिवगंगा झाबुआ’ के नाम से शुरू हुई एक संस्था आज 91 बड़े तालाबों का निर्माण कराने के साथ ही 1.61 लाख कंटूर ट्रेंच बनाकर हर साल 870 करोड़ लीटर वर्षा जल का प्रत्यक्ष संग्रहण कर रही है। आदिवासी समाज के दर्शन पर चलते हुए इन्होंने 160 माता-वन बना डाले, जिनमें पांच लाख से ज्यादा पेड़ लगे हैं। उस संगम के मीडिया समन्वयक रहे महेश तिवारी ने बताया आज 21 हजार से अधिक प्रशिक्षित वनवासी युवा 750 गांवों में जन, जल, जंगल, जानवर और जमीन की समृद्धि के लिए परमार्थ की प्रेरणा से काम कर रहे हैं।

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इस साल होने वाले ‘हलमा’ में 40 हज़ार जनजाति ग्रामीण हाथीपावा पहाड़ी पर इकट्ठा होंगे और सालाना 60 करोड़ लीटर पानी का संरक्षण करते हुए 1 लाख कंटूर ट्रेंच का निर्माण करेंगे। हलमा दर्शन यात्रा एक समाज द्वारा संचालित अक्षय विकास के मॉडल को बारीकी से देखने और समझने का एक सुअवसर है। इसे प्रत्यक्ष रूप में अनुभूति के लिए ‘हलमा’ को देखना बहुत जरुरी है। माता वन प्रत्येक गांव में एक पारंपरिक देवस्थान होता है, जिसे बाबा देव या बाबी माता के नाम से जानते हैं। उस स्थान पर गांव की सुख व समृद्धि के लिए सालभर पूजा अर्चना गांव के मुखिया तड़वी व बड़वा के नेतृत्व में किया जाता है। साल में होने वाली नई फसल का पला चढ़ावा यहीं पर किया जाता है। उसके बाद ही गांव में इसे खाया जाता है। माता वन पर्यावरण संरक्षण की सबके लिए अनुकरण करने की प्रेरणा देती है।

‘हलमा’ का आयोजन समाज की अच्छाइयों के प्रति विश्वास दृढ़ करता है। घर-घर जाकर संपर्क करने का यह काम धर्म (परमार्थ के भाव से समाज का काम करना) का निमंत्रण है। देश और दुनिया की बड़ी बड़ी समस्याओं का समाधान जनजाति समाज की श्रेष्ठ परम्पराओं में विद्यमान है। आवश्यकता है कि परमार्थ के भाव से बनी उन परंपराओं के पुनर्सशक्तिकरण की, शिवगंगा यह काम लगातार कर रहा है। आलीराजपुर, सोंडवा, कट्ठीवाड़ा के 300 गाँवों में शिवगंगा झाबुआ के 200 धर्मवीर आलीराजपुर जिला के गाँवों में घर घर जाकर हलमा का निमंत्रण दे रहे हैं।