बंगले में रहने का सुख उस रात कुछ यूं गायब हुआ!
आनंद शर्मा
नौकरी में ट्रांसफ़र की उतनी चिंता नहीं रहती जितनी मकान की रहती है । ट्रांसफ़र हुआ और सबसे पहले आदमी आवास के इंतज़ाम में मशगूल हो जाता है , आख़िर जमी जमाई गृहस्थी को उखाड़ कर दूसरी जगह जमाना मुसीबत का काम तो है ही । मेरे बचपन के एक मित्र हैं मोहन , वे व्यापारी हैं , एक दिन बातों बातों में कहने लगे “अरे तुम सरकारी लोग क्या हमारी बराबरी करोगे , वेतन का एक इनक्रीमेंट रुक जाये , जो कुछ हज़ार का ही होता है तो हवा निकल जाती है , हमें देखो लाखों का नुक़सान हो जाये परवाह नहीं पालते , फिर धन्धा करते हैं और नुक़सान की भरपाई कर लेते हैं “। मैंने जवाब में कहा मोहन भाई वो तो ठीक है पर तुम्हें हर दो-तीन साल में कोई कहे कि अब दुकान बंद करो और नये शहर में जाकर फिर नये सिरे से कारोबार शुरू करो तो तुम्हारी तो जान ही निकल जाये “।
ये और बात है कि ट्रांसफ़र के बाद नये शहर में जाने पर मुझे सरकारी मकान मिलने में कोई परेशानी नहीं हुई , पर नई जगह जमने में ज़हमत की कुछ स्मृतियाँ आज साझा करता हूँ । राजनांदगाँव के डोंगरगढ़ अनुविभाग में जब मेरी पदस्थापना हुई तो जो मकान मुझे एस.डी.एम. होने के नाते मिला वो तहसीलदार का पुराना बँगला था । भीमकाय कोठीनुमा बँगला पाकर मैं घबराया और मैंने वहाँ के तहसीलदार श्री कतरोलिया को अनुरोध किया कि वो अपने जी टाइप क्वार्टर से इसे बदल लें । कतरोलिया जी सहर्ष तैयार हो गये और मैं तीन कमरों के छोटे से मकान में शिफ्ट हो गया । ये क्वार्टर नया नया ही बना था , और इसमें छोटे छोटे तीन कमरे ही थे , जो कि फिर भी मेरी ज़रूरत से ज़्यादा ही थे लेकिन बँगले का गृहयोग टल गया । इसे पूरा होने में दो बरस लगे जब मेरा स्थानांतरण खैरागढ़ हुआ । खैरागढ़ का अनुविभाग वहाँ के एस.डी.एम. श्री अग्रवाल के रिटायर होने से ख़ाली हुआ था । बुज़ुर्गवार अग्रवाल साहब से टेलीफ़ोन पर मेरी बात हुई और उन्होंने बताया कि फलाँ दिन मैं अपने समान सहित दुर्ग चला जाऊँगा तो मैंने उसके अगले दिन अपना समान ट्रक में लादकर खैरागढ़ के लिये रवाना किया , पर जब हम पहुँचे तो पता लगा कि अग्रवाल साहब तो बँगले में ताला डाल कर अपने गृह नगर चले गए हैं ।
कुल जमा दो कमरे आँगन के साथ खुले थे , जो नौकरों के रहने के लिए इस्तेमाल होते थे । हमने अपना सामान उन्हीं कमरों में रख दिया और ख़ुद रेस्ट हाउस में आकर बसेरा किया । खैरागढ़ बड़ा सब-डिवीज़न था जिसमें तीन ब्लॉक और तीन तहसीलें आती थीं इसके अलावा यहाँ इंद्रा कला संगीत विश्वविद्यालय भी था और जिसका इंद्रा नाम इन्दिरा गांधी पर नहीं बल्कि खैरागढ़ के राजा की पुत्री पर था , जिनका असमय अवसान हो गया था । तक़रीबन महीने भर बाद अग्रवाल साहब का समान उठा और हमारी गृहस्थी खैरागढ़ में बसी । खैरागढ़ में हमारे स्तर के अधिकारियों को जो सरकारी मकान मिले थे , वे स्टेट टाइम के बँगले थे और ये बँगले डोंगरगढ़ के बँगले से भी बड़े थे , लगा बँगले का गृहयोग था जो खैरागढ़ आकर पूरा हुआ । तब नौकरी की शुरुआत में ही इतना बड़ा बँगला पाकर हम अचंभित थे पर तब तक मेरा विवाह भी हो चुका था सो प्राणी भी दो हो गए थे और कुछ सामान असबाब भी इस लायक़ हो गया था कि बँगले में रहा जा सके ।
फुटबॉल का विश्वप्रसिद्ध फ़ीफ़ा वर्ल्ड कप आरम्भ हो चुका था , और घर में हम पति-पत्नी ही थे , तो रात रात भर जाग-जाग कर इंग्लैंड के पॉल गैसाइन , पश्चिम जर्मनी के क्लिंसमैन और लॉथर मैचस, कैमरून के मिला , इटली के सिलेसी और बेशक अर्जेंटीना के मैराडोना के कलात्मक फुटबॉल के दीदार किया करते थे । एक रात हम ऐसे ही मैच देख रहे थे तो छत से कुछ गिरा , हमारा ध्यान गया तो पाया कि वो लगभग छह इंच की लंबाई का बिच्छू था जो अपनी पूँछ उठाये बाहर वाले दरवाज़े की तरफ़ जा रहा था । बिच्छू को देख कर हमारी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई पर ईश्वर का शुक्र कि वो जल्द ही दरवाज़े से बाहर चला गया ।
दूसरे दिन मैंने पी.डब्ल्यू.डी. के ज़िम्मेदार अधिकारी को बुलाया तो उसने कहा “सर ये बँगला तो बरसों पुराना है और इसकी छत पर इन कीड़े मकोड़ों ने डेरा जमा रक्खा है , थोड़ी बहुत साफ़ सफ़ाई मैं करा देता हूँ , पर इसका स्थायी उपाय तो यही है की इसकी पूरी छत को हटा कर नये सिरे से छत डाली जाय” । मैंने सोचा मुझे कौन सा स्थायी तौर पर रहना है , सो मैंने उससे कहा कि भाई तू तो साफ़ सफ़ाई ही करा दे । उस दिन के बाद हम रात में बिस्तर पर मच्छरदानी लगा , टॉर्च रख कर सोने लगे ताकि रात को सीधे कुछ बिछौने पर ना गिरे और रात उठना पड़े तो रौशनी में देखा जा सके की फ़र्श पर कुछ चल तो नहीं रहा । कुछ महीने बाद ही राजनांदगाँव ज़िले में भी नक्सली गतिविधियों की आहट सुनाई देने लगी । खैरागढ़ अनुविभाग के छुईखदान तहसील में पहाड़ी ऊँचाई पर बसे परिवारों के घरों में नक्सलियों ने आग लगा दी । प्रवेश शर्मा तब तक राजनांदगाँव के कलेक्टर हो चुके थे ।
घटना के अगले दिन ही जब कलेक्टर , एस. पी. के साथ प्रभावित क्षेत्र का दौरा हुआ, तो कलेक्टर के कहने पर मैंने प्रभावितों को प्रस्ताव दिया कि यदि वे तैयार हों तो निचले क्षेत्र में बसे गाँव में उनको सरकारी योजना से नया मकान बना कर दिया जा सकता है , पर वे सीधे सादे जनजाति के बंदे तैयार न हुए , बल्कि कहने लगे कि आप तो थोड़ा बहुत बांस बल्ली की मदद कर दो , अपने मकान हम ख़ुद बना लेंगे । हम लोग साथ आए वन विभाग के अफ़सरों से इस बाबत इन्तिज़ाम करने को कह अपने ठिकानों पर लौट आये ।