सदलगा से चलकर चंद्रगिरी पर ठहर गया ब्रह्मांड का यह देवता …

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सदलगा से चलकर चंद्रगिरी पर ठहर गया ब्रह्मांड का यह देवता …

हाल ही में 11 फरवरी को आचार्य विद्यासागर महाराज को गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड में ब्रह्मांड के देवता के रूप में सम्मानित किया गया था। और एक सप्ताह बाद ही ब्रह्मांड के देवता मुनिराज विद्यासागर महाराज देवलोक को गमन कर गए। साधना के सूर्य विद्यासागर महाराज हमेशा हमेशा के लिए चंद्रगिरी पर अस्त हो गए। निर्विकार भाव ऐसा कि समाधिमरण से पहले ही आचार्य पद भी त्याग दिया। और अंतिम सांस तक किसी का सहारा भी नहीं लिया। इस धरा पर विद्यासागर जी ने साधना के सागर के रूप में पूरा जीवन व्यतीत किया। भौतिकता से परे आध्यात्मिकता से पूर्ण संत विद्यासागर के चेहरे पर मुस्कान देखकर निराशा के सागर में डूबा व्यक्ति भी खुशी से सराबोर हो जाता था। आचार्य विद्यासागर महराज का जन्म कर्नाटक के बेलगांव के सदलगा गांव में 1946 में शरद पूर्णिमा के दिन 10 अक्तूबर को हुआ था।
आचार्य विद्यासागर महराज के तीन भाई और दो बहन स्वर्णा और सुवर्णा ने भी उनसे ही ब्रह्मचर्य लिया था। आचार्य विद्यासागर महराज 500 से ज्यादा शिष्यों को दीक्षित कर चुके थे। आचार्य विद्यासागर महराज की माता का नाम श्रीमंति और पिता का नाम मल्लपा था। उनके माता-पिता ने भी उनसे ही दीक्षा लेकर समाधि प्राप्त की थी। उनके पिता श्री मल्लप्पा थे जो बाद में मुनि मल्लिसागर बने। उनकी माता श्रीमंती थी जो बाद में आर्यिका समयमति बनी।77 वर्ष की आयु में राजनांदगांव जिले के डोंगरगढ़ के चंद्रगिरी में जैन आचार्य विद्यासागर जी महाराज ने अंतिम सांसें लीं। 17-18 फरवरी की रात लगभग 2:30 बजे जैन आचार्य विद्यासागर जी महाराज का देवलोक गमन हो गया। सदलगा से चंद्रगिरी के बीच देश-दुनिया के करोड़ों अनुयाई आचार्य श्री के दर्शन और आशीर्वाद से कृतार्थ होते रहे। जैन समाज के प्रमुख धर्म गुरुओं में से एक आचार्य विद्यासागर जी महाराज के निधन पर प्रतिक्रिया दी- “मुझे वर्षों तक उनका आशीर्वाद प्राप्त करने का सम्मान मिला। मैं पिछले साल के अंत में छत्तीसगढ़ के डोंगरगढ़ में चंद्रगिरि जैन मंदिर की अपनी यात्रा को कभी नहीं भूल सकता। उस समय, मैंने आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज जी के साथ समय बिताया था।” मोदी की तरह ही आचार्य विद्यासागर से जो मिला, वही उनका ही होकर रह गया। वह चाहे राजनेता रहा हो, अभिनेता रहा हो, संत रहा हो या गृहस्थ ही रहा हो।
विद्यासागर जी को 30 जून 1968 में अजमेर में 22 वर्ष की आयु में आचार्य ज्ञानसागर ने दीक्षा दी जो आचार्य शांतिसागर के वंश के थे। आचार्य विद्यासागर को 22 नवम्बर 1972 में ज्ञानसागर जी द्वारा आचार्य पद दिया गया था। उनके भाई सभी घर के लोग संन्यास ले चुके हैं। उनके भाई अनंतनाथ और शांतिनाथ ने आचार्य विद्यासागर से दीक्षा ग्रहण की और मुनि योगसागर और मुनि समयसागर कहलाये। उनके बड़े भाई भी उनसे दीक्षा लेकर मुनि उत्कृष्ट सागर जी महाराज कहलाए। आचार्य विद्यासागर संस्कृत, प्राकृत सहित विभिन्न आधुनिक भाषाओं हिन्दी, मराठी और कन्नड़ में विशेषज्ञ स्तर का ज्ञान रखते हैं। उन्होंने हिन्दी और संस्कृत के विशाल मात्रा में रचनाएँ की हैं। विभिन्न शोधार्थियों ने उनके कार्य का मास्टर्स और डॉक्ट्रेट के लिए अध्ययन किया है। उनके कार्य में निरंजना शतक, भावना शतक, परीषह जाया शतक, सुनीति शतक और शरमाना शतक शामिल हैं। उन्होंने काव्य मूक माटी की भी रचना की है। विभिन्न संस्थानों में यह स्नातकोत्तर के हिन्दी पाठ्यक्रम में पढ़ाया जाता है। आचार्य विद्यासागर कई धार्मिक कार्यों में प्रेरणास्रोत रहे हैं। आचार्य विद्यासागर के शिष्य मुनि क्षमासागर ने उन पर आत्मान्वेषी नामक जीवनी लिखी है। इस पुस्तक का अंग्रेज़ी अनुवाद भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित हो चुका है। मुनि प्रणम्यसागर ने उनके जीवन पर अनासक्त महायोगी नामक काव्य की रचना की है।
आचार्य श्री का तप और त्याग अवर्णनीय है। कठिनतम तप के पर्याय आचार्य श्री आजीवन इस भौतिक संसार में रहकर इससे परे ही रहे। कोई बैंक खाता नहीं कोई ट्रस्ट नहीं, कोई जेब नहीं , कोई मोह माया नहीं, अरबों रुपये जिनके ऊपर निछावर होते रहे, उन गुरुदेव ने कभी धन को स्पर्श नहीं किया। आजीवन चीनी का त्याग, आजीवन नमक का त्याग, आजीवन चटाई का त्याग, आजीवन हरी सब्जी का त्याग, फल का त्याग, अंग्रेजी औषधि का त्याग, सीमित ग्रास भोजन, सीमित अंजुली जल, 24 घण्टे में बस एक बार ही भोजन लेते थे। आजीवन दही का त्याग, सूखे मेवा का त्याग, आजीवन तेल का त्याग, सभी प्रकार के भौतिक साधनों का त्याग, थूकने का त्याग, एक करवट में शयन बिना चादर, गद्दे, तकिए के सिर्फ तखत पर किसी भी मौसम में।
पूरे भारत में सबसे ज्यादा दीक्षा देने वाले एक ऐसे संत जो सभी धर्मों में पूजनीय और पूरे भारत में एक ऐसे आचार्य जिनका लगभग पूरा परिवार ही संयम के साथ मोक्षमार्ग पर चल रहा है। शहर से दूर खुले मैदानों में नदी के किनारों पर या पहाड़ों पर अपनी साधना करना उनकी आदत में था।अनियत विहारी यानि बिना बताये विहार करते थे। प्रचार प्रसार से दूर- मुनि दीक्षाएं, पीछी परिवर्तन इसका उदाहरण रहा।आचार्य देशभूषण जी महराज से जब ब्रह्मचारी व्रत से लिए स्वीकृति नहीं मिली तो गुरुवर ने व्रत के लिए तीन दिवस निर्जला उपवास किया और स्वीकृति लेकर माने। ब्रह्मचारी अवस्था में भी परिवारजनों से चर्चा करने अपने गुरु से स्वीकृति लेते थे। और परिजनों को पहले अपने गुरु के पास स्वीकृति लेने भेजते थे।आचार्य भगवंत  जो न केवल मानव समाज के उत्थान के लिए इतने दूर की सोचते थे वरन मूक प्राणियों के लिए भी उनके करुण ह्रदय में उतना ही स्थान रहा।शरीर का तेज ऐसा जिसके आगे सूरज का तेज भी फीका और कान्ति में चाँद भी फीका है। प्रधानमंत्री हों या राष्ट्रपति सभी के पद से अप्रभावित साधना में रत गुरुदेव हजारों गाय की रक्षा के प्रति समर्पित रहे।हजारों बालिकाओ को संस्कारित किया। इतना कठिन जीवन के बाद भी उनकी मुखमुद्रा स्वर्ग के देव सी सभी को मोहित करती रही।
पूरे बुंदेलखंड में आचार्य विद्यासागर महराज छोटे बाबा के नाम से जाने जाते हैं, क्योंकि उन्होंने मध्य प्रदेश के दमोह जिले में स्थित कुंडलपुर में बड़े बाबा आदिनाथ भगवान की मूर्ति को मंदिर में रखवाया था और कुंडलपुर में अक्षरधाम की तर्ज पर भव्य मंदिर का निर्माण करवाया था। आज आचार्य श्री हम सबके बीच में देह नहीं देवरूप में विद्यमान हैं। 1946 से 2024 के इस काल को विद्यासागर युग के रूप में जाना जाएगा और वह करोड़ों लोग बड़े सौभाग्यशाली हैं, जिन्हें किसी न किसी रूप में गुरुवर का सान्निध्य मिला। कर्नाटक के बेलगांव के सदलगा से चला ब्रह्मांड का देवता‌ चंद्रगिरी पर ठहरकर देवलोक को भले ही प्रस्थान कर गया हो, पर देह की जगह देवरूप में हमारे बीच हमेशा विद्यमान रहेंगे…।