आज उस युवा संयासी का दिन है, जिसने गुलामी के दौर में हिन्दू और सनातन धर्म का मर्म पश्चिमी देशों को समझाया था…

25 वर्ष की उम्र में गेरुआ वस्त्र पहन अगले 14 साल में भारत की पताका पूरी दुनिया में फहराई थी स्वामी विवेकानन्द ने...

19 वीं सदी में भारत की पताका को पूरी दुनिया में फहराने वाले स्वामी विवेकानंद की गौरव गाथा हमें आज भी गर्व से भर देती है। ऐसे समय में जब देश गुलामी की जंजीरों में बुरी तरह से जकड़ा था, तब मैकाले की शिक्षा नीति का विरोध स्वामी ने खुलकर किया था। ऐसे समय में जब पश्चिमी ज्ञान पूरी दुनिया पर राज कर रहा था, तब भारत के सनातन धर्म और ज्ञान का लोहा पूरी दुनिया में मनवाया था स्वामी विवेकानन्द ने।

जब युवाओं को कोई राह नजर नहीं आ रही थी, तब युवाओं को मार्ग दिखाकर ऊर्जा का संचार किया था इस युवा संयासी ने। सामाजिक भेदभाव खत्म करने, नारी के प्रति सम्मान का भाव हर परिस्थिति में रखने, स्त्री-पुरुष समानता के प्रति अलख जगाने, गुरु के प्रति समर्पण का अनूठा उदाहरण पेश करने और शिक्षा को सार्वत्रिक विकास का माध्यम बनाने की प्रेरणा देने का काम जो स्वामी विवेकानन्द ने किया था, वह अद्भुत और अकल्पनीय था।

स्वामी विवेकानन्द वह अद्भुत व्यक्तित्व थे, जिन्होंने मात्र 25 वर्ष की उम्र में गेरुआ वस्त्र धारण कर देशाटन की राह पकड़ ली थी और 30 वर्ष की उम्र में शिकागो धर्म सम्मेलन में हिन्दू और सनातन धर्म  संस्कृति का मुरीद पूरी दुनिया को कर  दिया था। मात्र 39 वर्ष 5 माह 23 दिन की आयु में बेलूर मठ में महासमाधि लेकर यह संयासी अनंत यात्रा पर निकल गया, लेकिन पूरी दुनिया के करोड़ों दिलों में हमेशा जिंदा था, जिंदा है और जिंदा रहेगा।

 स्वामी विवेकानन्द अपना जीवन अपने गुरुदेव रामकृष्ण परमहंस को समर्पित कर चुके थे। उनके गुरुदेव का शरीर अत्यन्त रुग्ण हो गया था। गुरुदेव के शरीर-त्याग के दिनों में अपने घर और कुटुम्ब की नाजुक हालत व स्वयं के भोजन की चिन्ता किये बिना वे गुरु की सेवा में सतत संलग्न रहे। गुरु के प्रति समर्पण और सेवा का वह श्रेष्ठतम उदाहरण थे। कोलकाता में 12 जनवरी 1863 को जन्मे नरेन्द्रनाथ, गुरु रामकृष्ण परमहंस को समर्पित हो विवेकानन्द बनकर 4 जुलाई 1902 को गुरु की समाधि के पास ही बेलूर मठ में महासमाधि लेकर गुरु-शिष्य प्रेम का पर्याय बन गए।  

मैकाले शिक्षा के विरोधी और जीवन को सार्थक करने वाली व्यावहारिक शिक्षा के पक्षधर स्वामी विवेकानंद को ही नई शिक्षा नीति का पहला जनक माना जा सकता है। वह ऐसी शिक्षा चाहते थे जिससे बालक का सर्वांगीण विकास हो सके। जो आत्मनिर्भर बना सके। उनका मानना था कि जो शिक्षा जनसाधारण को जीवन संघर्ष के लिए तैयार नहीं करती, जो चरित्र निर्माण नहीं करती, जो समाज सेवा की भावना विकसित नहीं करती तथा जो शेर जैसा साहस पैदा नहीं कर सकती, ऐसी शिक्षा से कोई लाभ नहीं हो सकता।

वह सैद्धान्तिक शिक्षा के पक्ष में नहीं थे, बल्कि व्यावहारिक शिक्षा को व्यक्ति के लिए उपयोगी मानते थे। देश की उन्नति–फिर चाहे वह आर्थिक हो या आध्यात्मिक, में स्वामी शिक्षा की भूमिका केन्द्रीय मानते थे। स्त्री-पुरुष समानता के पक्षधर स्वामी का मानना था कि बालक एवं बालिकाओं दोनों को समान शिक्षा देनी चाहिए। तो उनका मानना था कि देश की आर्थिक प्रगति के लिए तकनीकी शिक्षा की व्यवस्था की जाए। और मानवीय एवं राष्ट्रीय शिक्षा परिवार से ही शुरू करनी चाहिए।

युवाओं के लिए वह आदर्श थे, इसीलिए उनका जन्मदिवस राष्ट्रीय युवा दिवस बन गया है। स्वामी विवेकानंद ने युवाओं से कहा था कि तुम्हारी सफलता की मंजिल तो तुम्हारे सामने ही होती है। लेकिन तुम अपनी मंजिल के बजाय इधर-उधर भागते हो जिससे तुम अपने जीवन में कभी सफल नहीं हो पाते हो।

हमें जो करना है, जो कुछ भी बनना है। हम उस पर ध्यान नहीं देते हैं और दूसरों को देखकर वैसा ही हम करने लगते हैं। जिसके कारण हम अपनी सफलता की मंजिल के पास होते हुए भी दूर भटक जाते हैं। इसलिए अगर जीवन में सफल होना है, तो हमेशा हमें अपने लक्ष्य पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। “उठो, जागो, स्वयं जागकर औरों को जगाओ। अपने नर-जन्म को सफल करो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाये।”

नारी सम्मान के प्रति स्वामी समर्पित थे। विदेश में उनके द्वारा दिए गए भाषण से एक विदेशी महिला बहुत ही प्रभावित हुईं। वह विवेकानन्द से बोली कि मैं आपसे शादी करना चाहती हूँ ताकि मुझे आपके जैसा ही गौरवशाली पुत्र प्राप्त हो सके। इस पर स्वामी बोले कि “मै एक सन्यासी हूँ”? भला मैं कैसे शादी कर सकता हूँ?

अगर आप चाहो तो मुझे अपना पुत्र बना लो। इससे मेरा सन्यास भी नहीं टूटेगा और आपको मेरे जैसा पुत्र भी मिल जाएगा। यह बात सुनते ही वह विदेशी महिला स्वामी के चरणों में गिर पड़ी और बोली कि आप धन्य हैं। आप ईश्वर के समान हैं। जो किसी भी परिस्थिति में अपने धर्म के मार्ग से विचलित नहीं होते हैं। स्वामी जी ने साबित किया कि सच्चा पुरुष वही होता है जो हर परिस्थिति में नारी का सम्मान करे।

शिकागो धर्म संसद में भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए जब स्वामी विवेकानन्द ने “मेरे अमरीकी बहनों और भाइयों”, संबोधन से भाषण की शुरुआत की, तो खचाखच भरे सभागार ने दो मिनट खड़े रहकर उनका अभिवादन किया। स्वामी जी ने कहा कि संसार में संन्यासियों की सबसे प्राचीन परम्परा की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हूँ; धर्मों की माता की ओर से धन्यवाद देता हूँ; और सभी सम्प्रदायों एवं मतों के कोटि-कोटि हिन्दुओं की ओर से भी धन्यवाद देता हूँ।

मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृत- दोनों की ही शिक्षा दी हैं। हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते वरन समस्त धर्मों को सच्चा मान कर स्वीकार करते हैं। मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है। मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता हैं कि हमने अपने वक्ष में उन यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट को स्थान दिया था जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी जिस वर्ष उनका पवित्र मन्दिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था।

ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूँ जिसने महान जरथुष्ट जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अब तक कर रहा है। उन्होंने श्लोक पढ़कर बताया कि जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न-भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं। तो उन्होंने दूसरा श्लोक कहकर समझाया कि जो कोई मेरी ओर आता है-चाहे किसी प्रकार से हो-मैं उसको प्राप्त होता हूँ। लोग भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर आते हैं।

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स्वामी विवेकानन्द ने कहा कि साम्प्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी वीभत्स वंशधर धर्मान्धता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी हैं। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही हैं व उसको बारम्बार मानवता के रक्त से नहलाती रही हैं, सभ्यताओं को ध्वस्त करती हुई पूरे के पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं।

यदि ये वीभत्स दानवी शक्तियाँ न होतीं तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता। पर अब उनका समय आ गया हैं और मैं आन्तरिक रूप से आशा करता हूँ कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घण्टा ध्वनि हुई है वह समस्त धर्मान्धता का, तलवार या लेखनी के द्वारा होनेवाले सभी उत्पीड़नों का तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होने वाले मानवों की पारस्पारिक कटुता का मृत्यु निनाद सिद्ध हो।

स्वामी विवेकानन्द के इस संक्षिप्त भाषण में मानवता का सार है, अनेकता में एकता का संदेश है, सनातन धर्म का दर्शन समाहित है, तो सांप्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी वीभत्स वंशधर धर्मान्धता, दानवी शक्तियों, किसी भी तरह के उत्पीड़न का प्रतिकार भी है। स्वामी जी ने जिस भारत की कल्पना की थी, उसका मूर्त रूप लेना अब भी बाकी है।

19 वीं सदी में भारत राष्ट्र की श्रेष्ठता का लोहा मनवाने वाले, पूरी दुनिया को सनातन धर्म का मर्म समझाने वाले स्वामी विवेकानन्द को समझकर हिन्दू व हिन्दुत्व को न केवल पूरी तरह से समझा जा सकता है वरन उन्हें अंगीकार कर एक आदर्श जीवन लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है। अभी हमारा उठना,जागना, दूसरों को जगाना बाकी है, ताकि मानवता की मंजिल तक पहुंचने का लक्ष्य प्राप्त किया जा सके और मानव जीवन को सार्थक किया जा सके।

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कौशल किशोर चतुर्वेदी

कौशल किशोर चतुर्वेदी मध्यप्रदेश के जाने-माने पत्रकार हैं। इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया में लंबा अनुभव है। फिलहाल भोपाल और इंदौर से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र एलएन स्टार में कार्यकारी संपादक हैं। इससे पहले एसीएन भारत न्यूज चैनल के स्टेट हेड रहे हैं।

इससे पहले स्वराज एक्सप्रेस (नेशनल चैनल) में विशेष संवाददाता, ईटीवी में संवाददाता,न्यूज 360 में पॉलिटिकल एडीटर, पत्रिका में राजनैतिक संवाददाता, दैनिक भास्कर में प्रशासनिक संवाददाता, दैनिक जागरण में संवाददाता, लोकमत समाचार में इंदौर ब्यूरो चीफ, एलएन स्टार में विशेष संवाददाता के बतौर कार्य कर चुके हैं। इनके अलावा भी नई दुनिया, नवभारत, चौथा संसार सहित विभिन्न समाचार पत्रों-पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन किया है।