Travelogue: Bhalka Teerth Somnath-जिस स्थान पर भगवान कृष्ण ने देह त्याग किया था!
भालका तीर्थ सोमनाथ विश्व प्रसिद्ध धार्मिक व पर्यटन स्थल है इसकी यात्रा के अनुभव और जानकारी विस्तार से बता रहे हैं – लेखक श्री विक्रमादित्य सिंह , सतत यात्रा वृतांत और धार्मिक यात्राओं की सूक्ष्म और महत्वपूर्ण एतिहासिक जानकारियों से पाठकों को अवगत करा रहे हैं–
भगवान कृष्ण के प्राक्रट्य( रात्रि) दिवस की बहुत-बहुत अग्रिम शुभकामनाएं। मनाया तो कल से जाएगा परंतु तिथि आज से प्रारंभ हो रही है।
भगवान कृष्ण की, कर्मभूमि रही प्रभास क्षेत्र का भ्रमण अंतिम चरण में है। भगवान की प्राक्रट्यभूमि और क्रीड़ास्थली मथुरा, वृंदावन, गोकुल रहा है। ऐसा माना जाता है कि भगवान कृष्ण ने 125 वर्ष तक मानव लीलाएं की है, तत्पश्चात स्वधाम गमन किया। भगवान कृष्ण ने अपने लीला काल का अधिकांश समय द्वारका में बिताया। महाभारत युद्ध के समय भगवान कृष्ण की अवस्था 89 वर्ष एवं अर्जुन की अवस्था 86 वर्ष की थी।
इस यात्रा संस्मरण का अंतिम पोस्ट संयोग से कृष्ण जन्माष्टमी के दिन होने जा रहा है। और वह भी उस तीर्थ के वृत्तांत से जिस स्थान पर भगवान कृष्ण ने देह त्याग किया था। मेरे विचार से इस दिन को भगवान कृष्ण का प्राक्रट्य दिवस कहना चाहिए। भगवान कृष्ण पूर्ण ब्रह्म हैं, ना उनका जन्म होता है ना मृत्यु। श्रीमद्भगवद् गीता के द्वितीय अध्याय के 12 वें श्लोक में भगवान अर्जुन से कहते हैं:-
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ।।
भावार्थ : न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था, तू नहीं था अथवा ये राजा लोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे। अर्थात भगवान कृष्ण सर्वकाल में हैं, केवल उनका शरीर बदलता है। अतः जन्म अर्थात् शरीर का रूप धारण करना और मृत्यु अर्थात शरीर त्यागना, महत्वहीन है।
इसलिए आज के दिन भगवान कृष्ण ने कहां एवं किस तरह अपना शरीर छोड़ा, इसकी चर्चा करना अप्रासंगिक नहीं है।
सोमनाथ मंदिर के दर्शन के पश्चात
हम लोगों ने भालका तीर्थ की ओर प्रस्थान किया।सोमनाथ मंदिर से लगभग 4 किलोमीटर की दूरी पर वेरावल में भालका तीर्थ स्थित है। सोमनाथ मंदिर से भालका तीर्थ के रास्ते में समुद्री मछलियों के परिवहन का कार्य होता है, अतः इस क्षेत्र में तीव्र मत्स्यगंध व्याप्त थी, जो शुद्ध शाकाहारियों के लिए असहनीय था। मैं तो सह लेता हूं पर पत्नी के लिए इसे सहन करना मुश्किल था।
भालका तीर्थ के बारे में मान्यता है कि यहाँ पर विश्राम करते समय भगवान श्री कृष्ण के बाएं पैर में जरा नामक शिकारी ने गलती से बाण मारा था। जिसके पश्चात् उन्होनें पृथ्वी पर अपनी लीला समाप्त करते हुए, निजधाम प्रस्थान किया। बाण या तीर को भल्ल भी कहा जाता है, अतः इस तीर्थ स्थल को भालका तीर्थ के नाम से जाना गया।
इस विषय में विस्तृत वर्णन श्रीमद्भागवत के एकादश स्कंध में है कि ब्रह्मश्राप से ग्रस्त और भगवान श्री कृष्ण की माया से मोहित यदुवंशियों के स्पर्धामूलक क्रोध ने यदुवंशियों का ध्वंस कर दिया। जब भगवान श्री कृष्ण ने देखा की समस्त यदुवंशियों का संहार हो चुका, तब उन्होंने यह सोचकर संतोष की सांस ली कि पृथ्वी का बचा-खुचा भार भी उतर गया।
बलराम जी ने समुद्र तट पर बैठकर एकाग्रचित्त से परमात्म चिंतन करते हुए अपनी आत्मा को आत्मस्वरूप में ही स्थिर कर लिया और मनुष्य शरीर छोड़ दिया। जब भगवान श्री कृष्ण ने देखा कि मेरे बड़े भाई बलराम जी परमपद में लीन हो गए, तब वे एक पीपल के पेड़ के तले जाकर चुपचाप धरती पर ही बैठ गए।
भगवान श्री कृष्ण ने उस समय अपनी अंगकांति से देदीप्यमान चतुर्भुज रूप धारण कर रखा था। वर्षा कालीन मेघ के समान सांवले शरीर से तपे हुए सोने के समान ज्योति निकल रही थी। वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का चिन्ह शोभायमान था। वे रेशमी पितांबर की धोती और वैसा ही दुपट्टा धारण किए हुए थे। बड़ा ही मंगलमय रूप था। उस समय भगवान अपनी दाहिनी जांघ पर बायां चरण रखकर बैठे हुए थे। लाल-लाल तलवा रक्त कमल के समान चमक रहा था। जरा नामक एक बहेलिया था। उसने मूसल के बचे हुए टुकड़े से अपने बांण की गांसी बना ली थी।उसे दूर से भगवान का लाल लाल तलवा हरिन के मुख के समान जान पड़ा। उसने उसे सचमुच हरिन समझकर अपने उसी बाण से बींध दिया। जरा ने जब निकट आकर देखा तो उसे अपनी भूल ज्ञात हुई। उसने प्रभु से क्षमा मांगी, भगवान कृष्ण ने कहा ‘यह तूने मेरे मन का काम किया है, जा मेरी आज्ञा से उस स्वर्ग में निवास कर जिसकी प्राप्ति बड़े-बड़े पुण्यवानो को होती है’।
भगवान कृष्ण के सारथी दारुक उन्हें ढूंढते हुए उस स्थान पर पहुंचे। वे रथ से उतरकर भगवान कृष्ण से प्रार्थना करने लगे, उसी समय भगवान का गरुड़ध्वज रथ पताका और घोड़ों के साथ आकाश में उड़ गया । उसके पीछे-पीछे भगवान के दिव्य आयुध भी चले गए। तब भगवान कृष्ण ने दारुक से कहा ‘अब तुम द्वारका चले जाओ और वहां यदुवंशियों के पारस्परिक संहार, भैया बलराम जी की परम गति और मेरे स्वधाम गमन की बात कहो, उनसे कहना कि अब तुम लोगों को अपने परिवार वालों के साथ द्वारका में नहीं रहना चाहिए, मेरे न रहने पर समुद्र उस नगरी को डुबो देगा। इस दृश्य को मेरी माया की रचना समझकर शांत हो जाओ ‘।
उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है कि इस स्थान की महत्ता कितनी अधिक है। परंतु इस महत्ता के अनुरूप इस तीर्थ का परिसर नहीं है । यह कुछ उपेक्षित सा जान पड़ा। मंदिर में चतुर्भुज भगवान कृष्ण का विश्राम अवस्था में विग्रह पीपल के पेड़ के नीचे स्थापित है, एवं उसके सामने हाथ जोड़े हुए, जरा व्याध की मूर्ति है। बगल में एक और मंदिर शंकर जी का है। परिसर में एक सरोवर भी है लेकिन उसका जल प्रदूषित है एवं देखरेख के अभाव में पार क्षतिग्रस्त है।
इस स्थान पर भगवान कृष्ण ने स्वधाम गमन करने के लिए अपना देह त्याग किया था, अतः जिस प्रकार अपने स्वजन के निधन से मन दुखी हो जाता है, कुछ इसी प्रकार हमारा मन भी आर्त, व्याकुल होने लगा था।
शहरीकरण, ट्रैफिक, भीड़भाड़ एवं आधुनिकता ने ऐसे पवित्र तीर्थ स्थलों की पवित्रता, शांति को भंग कर दिया है। इस पवित्र स्थल का विकास भी महाकाल लोक उज्जैन की भांति किया जाना अति आवश्यक है। आज के दिन, सभी कामना करें कि भगवान कृष्ण से संबंधित सभी महत्वपूर्ण स्थान मुक्त हों एवं उनका यथोचित विकास एवं सौंदर्यीकरण हो।
विक्रमादित्य सिंह ठाकुर
लेखक ,सेवा निवृत अपर संचालक अनुसूचित जाति,जनजाति विभाग मध्यप्रदेश शासन ,भोपाल