प्रदेश की 16 नगर निगमों और नगर पालिकाओं के साथ नगर परिषदों के चुनाव नतीजे आ गए। नतीजों से सब कुछ साफ़ हो गया। दावों और वादों की असलियत का गुबार छंट गया! अब वो कारण तलाशे जा रहे हैं, जो इन नतीजों का कारण बने! इस बार चुनाव में बीजेपी को सफलता तो मिली, पर उतनी नहीं, जितनी उम्मीद और दावा किया गया था। 16 में से सिर्फ 9 जगह ही बीजेपी महापौर की कुर्सी पर अपनी जीत दोहरा सकी। सवाल उठता है कि ऐसे हालात क्यों बने! यदि नगर निगमों में महापौर के चुनाव इनडायरेक्ट होते, तो क्या स्थिति इससे बेहतर नहीं होती! दरअसल, इस फैसले के पीछे बीजेपी की अंदरूनी राजनीति जिम्मेदार है। ये बातें भले ही कभी बाहर न आए, पर पार्टी में एक बड़ा तबका मुख्यमंत्री के नीचे से जमीन खींचना चाहता है और डायरेक्ट-इनडायरेक्ट के खेल के पीछे भी वही जिम्मेदार है!
सिर्फ महापौर का चुनाव डायरेक्ट करवाने के फैसले के पीछे भी कई किंतु, परंतु छुपे हैं! क्योंकि, पार्टी के कई बड़े नेता खेमेबंदी करके ‘अपने वालों’ को महापौर बनवाना चाहते थे, जो इनडायरेक्ट चुनाव की स्थिति में संभव नहीं था! क्योंकि, तब पहले पार्षद बनने की मज़बूरी होती। इसके अलावा वे शिवराज सरकार के उन फैसलों को भी आईना दिखाना चाहते थे, जिनकी सफलता का अकसर पार्टी के बड़े नेताओं के सामने दावा किया जाता है! अब, जबकि सारी कोशिशों के बाद भी बीजेपी अपने 7 महापौर उम्मीदवारों को हारने से बचा नहीं सकी, हार के छिद्रान्वेषण में अब कहीं न कहीं सरकार को भी जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। यह अच्छा हुआ कि शिवराज सिंह ने संगठन का आधा ही फैसला माना। यदि सभी निकाय के चुनाव डायरेक्ट करवाए जाते, तो हाहाकार मचना तय था।
कांग्रेस जीरो से हीरो बन गई और 5 नगर निगमों में उसके उम्मीदवार महापौर बन गए! ग्वालियर, जबलपुर, रीवा, मुरैना और छिंदवाड़ा में कांग्रेस का पंजा जीत गया। कटनी में बीजेपी की बागी ने कमाल दिखा दिया। सिंगरौली में ‘आप’ की उम्मीदवार ने कांग्रेस और बीजेपी दोनों को रेस से बाहर कर दिया। यदि महापौर का चुनाव इनडायरेक्ट होता तो क्या यह संभव होता!
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बीजेपी इस हार को आसानी से स्वीकार करे या नहीं, पर यह सच है कि पार्टी की एक गलती (या अतिआत्मविश्वास) उस पर भारी पड़ गया! सन 2000 से प्रदेश में महापौर और नगर पालिका अध्यक्ष का चुनाव डायरेक्ट कराया जा रहा था! कमलनाथ ने सरकार में आने के बाद उसे पलट दिया। उन्होंने पार्षदों द्वारा महापौर पद के चुनाव का वही पारंपरिक तरीका वापस कायम कर दिया। लेकिन, जब कमलनाथ सरकार गिरी और शिवराज सिंह फिर मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने अध्यादेश लाकर पुरानी व्यवस्था लागू कर दी, कि महापौर को जनता सीधे चुनेगी। बाद में इसमें फेरबदल ये किया कि महापौर के चुनाव तो डायरेक्ट होंगे, पर नगर पालिका और नगर परिषद में पार्षद ही अध्यक्ष चुनेंगे!
यही गलती, शिवराज सरकार से हुई। यदि कमलनाथ सरकार वाला फार्मूला ही लागू रहता तो पार्षद ही महापौर चुनते! क्योंकि, जिन नगर निगमों में बीजेपी के महापौर उम्मीदवार हारे हैं, उन सभी में पार्षद बीजेपी के ही ज्यादा जीते। यदि शिवराज पुराना नियम बरक़रार रखते, तो आज 16 में से 14 (मुरैना और छिंदवाड़ा छोड़कर) महापौर बीजेपी के होते और विरोधियों को उंगली उठाने का मौका नहीं मिलता।
संगठन के दबाव में डायरेक्ट चुनाव
नगर निगमों में महापौर का चुनाव डायरेक्ट कराने का शिवराज सरकार का दांव उल्टा इसलिए पड़ा कि वे पार्टी संगठन के दबाव में आ गए। पार्टी के अंदर ख़बरें बताती है, कि मुख्यमंत्री डायरेक्ट चुनाव के पक्ष में बिलकुल नहीं थे। इसलिए उन्होंने पहले (दिसंबर 2020) लाए अध्यादेश पर कार्रवाई नहीं की और वो निर्धारित समय के बाद निष्प्रभावी हो गया! लेकिन, दबाव बढ़ने पर वे दूसरी बार (मई 2022) महापौर का चुनाव डायरेक्ट और नगर पालिका और नगर परिषद का चुनाव इनडायरेक्ट करवाने का अध्यादेश लाया गया।
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जानकारी के लिए याद रखें कि भाजपा संगठन ने कृष्णमुरारी मोघे को कमलनाथ सरकार के उस फैसले के विरोध में बनाई गई समिति का अध्यक्ष बनाया था। उन्होंने भी सभी चुनाव डायरेक्ट कराने के पक्ष में मोर्चा संभाला था। तब मोघे ने भी कहा था कि बीजेपी अपने फैसले पर अटल है। यह अध्यादेश भले निष्प्रभावी हो गया हो, पर बीजेपी सरकार पूरी ताकत से फिर से महापौर और अध्यक्ष का चुनाव डायरेक्ट कराने की कोशिश से पीछे नहीं हटेगी। संगठन ने ऐसे कई प्रयोग किए जिनसे सरकार पर दबाव बढ़ा था।
भारी पड़ गया फैसला
सीधे जनता से महापौर का चुनाव करवाने का मुख्यमंत्री शिवराज सिंह का फैसला उन पर ही भारी पड़ गया। कमलनाथ सरकार जब महापौर, नगर पालिका और नगर परिषद अध्यक्ष के चुनाव को इनडायरेक्ट तरीके यानी पार्षदों के जरिए कराने का अध्यादेश लेकर आई थी, उस समय बीजेपी ने विरोध किया था। कमलनाथ सरकार के इस फैसले को तब बीजेपी ने लोकतंत्र की हत्या तक कहा था। नगर निकाय में अध्यक्ष के इनडायरेक्ट चुनाव कराने के फैसले के खिलाफ बीजेपी तत्कालीन राज्यपाल लालजी टंडन से भी मिले थे। बीजेपी ने इसे लेकर मोर्चा तक खोला और अंततः कोरोना के कारण चुनाव टल गए! लेकिन, बाद में जो हुआ उसे भी सही नहीं कहा जा सकता! क्योंकि, इस एक फैसले ने कई सवाल खड़े कर दिए, जिनके जवाब लम्बे समय तक खोजे जाते रहेंगे!
कहां, किसके, कितने पार्षद जीते
– भोपाल में नगर निगम में 85 पार्षद सीटें हैं। इनमें बीजेपी के 58, कांग्रेस के 22 और अन्य के पांच पार्षद जीते हैं।
– ग्वालियर नगर निगम में 66 पार्षद सीटें हैं। इनमें बीजेपी के 34, कांग्रेस के 25 और अन्य को 7 सीटें मिली हैं।
– इंदौर नगर निगम बोर्ड में 85 पार्षद सीटें हैं। इनमें बीजेपी के 64, कांग्रेस के 19 और अन्य के 2 पार्षद चुनकर आए।
– छिंदवाड़ा नगर निगम में 48 पार्षद सीटें हैं। इनमें बीजेपी के 18, कांग्रेस के 26 और 4 अन्य पार्षद जीते।
– जबलपुर नगर निगम में 79 पार्षद सीटें है। बीजेपी के 44, कांग्रेस के 26 और अन्य के 9 पार्षद जीते हैं।
– उज्जैन नगर निगम में 54 पार्षद सीट है। बीजेपी के 37 और कांग्रेस के 17 पार्षदों ने जीत दर्ज की।
– कटनी नगर निगम में 45 पार्षद सीट है। बीजेपी के 27, कांग्रेस के 15 और 3 अन्य को जीत मिली।
– मुरैना नगर निगम में 47 पार्षद सीटें है, जिनमें से बीजेपी के 15, कांग्रेस के 19 और अन्य 13 पार्षद जीते हैं।
– रीवा नगर निगम में 45 पार्षद सीटें हैं, जिनमें से बीजेपी के 18, कांग्रेस के 16 और अन्य के 11 पार्षद चुने गए।
– रतलाम नगर निगम में 49 पार्षद सीटें हैं, जिनमें से बीजेपी के 30, कांग्रेस के 15 और अन्य 4 पार्षद जीते।
– देवास नगर निगम में 45 पार्षद सीट हैं। बीजेपी के 32, कांग्रेस के 8 और अन्य 5 पार्षद जीते।
– खंडवा नगर निगम में 50 पार्षद सीटों में से बीजेपी के 28, कांग्रेस के 13 और अन्य 9 पार्षद जीते।
– बुरहानपुर नगर निगम में 48 पार्षदों में बीजेपी के 19, कांग्रेस के 15 और अन्य के 14 पार्षद बने।
– सागर नगर निगम में 48 पार्षद सीट हैं। बीजेपी के 40, कांग्रेस के 7 और अन्य से एक पार्षद जीता।
– सिंगरौली नगर निगम में 45 पार्षद सीट हैं। इनमें बीजेपी के 23, कांग्रेस के 12 और अन्य के 10 पार्षद जीते।
– सतना नगर निगम में 45 पार्षदों में से बीजेपी के 20, कांग्रेस के 19 और 6 अन्य से पार्षद चुने गए।
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