सरकार ने 1976 में संविधान में संशोधन कर दो महत्वपूर्ण अनुच्छेद 48 ए तथा 51 ए (जी) सम्मिलित किए। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 48-ए राज्य सरकार को निर्देश देता है कि वह ‘पर्यावरण की सुरक्षा और उसमें सुधार सुनिश्चित करे तथा देश के वनों तथा वन्य जीवन की रक्षा करें।’ अनुच्छेद 51 ए (जी) नागरिकों पर कर्तव्य आरोपित करता है कि वे ‘प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा करे तथा उसका संवर्धन करे और सभी जीवधारियों के प्रति दयालु रहे।’ स्वतंत्रता के पश्चात बढ़ते औद्योगिकरण, शहरीकरण तथा जनसंख्या वृद्धि से पर्यावरण की गुणवत्ता में निरंतर कमी आती गई। पर्यावरण की गुणवत्ता की इस कमी में प्रभावी नियंत्रण व प्रदुषण के परिप्रेक्ष्य में सरकार ने समय-समय पर अनेक कानून व नियम बनाए। इनमें से अधिकांश का मुख्य आधार प्रदूषण नियंत्रण व निवारण था।
भारत में पर्यावरण संबंधित उपरोक्त कानूनों का निर्माण उस समय किया गया था जब पर्यावरण प्रदूषण देश में इतना व्यापक नहीं था। इस कारण इनमें से कुछ कानून अपनी उपयोगिता खो चुके हैं। वायु (प्रदूषण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1981 एक महत्वपूर्ण कानून है। बढ़ते औद्योगिकरण के कारण पर्यावरण में निरंतर हो रहे वायु प्रदूषण तथा इसकी रोकथाम के लिए यह अधिनियम बनाया गया। इस अधिनियम के पारित होने के पीछे जून 1972 में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा स्टाकहोम (स्वीडन) में मानव पर्यावरण सम्मेलन की मुख्य भूमिका रही। इसकी प्रस्तावना में कहा गया है कि इसका मुख्य उउद्देश्य पृथ्वी पर प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण हेतु समुचित कदम उठाना है। प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण में वायु की गुणवत्ता और वायु प्रदुषण का नियंत्रण सम्मिलित है। यह 29 मार्च 1981 को पारित हुआ तथा इसे 16 मई 1981 से लागू किया गया। इस अधिनियम में मुख्यतः मोटर-गाड़ियों और अन्य कारखानों से निकलने वाले धुंए और गंदगी का स्तर निर्धारित करने तथा उसे नियंत्रित करने का प्रावधान है। 1987 में इस अधिनियम में शोर प्रदूषण को भी शामिल किया गया। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को ही वायु प्रदूषण अधिनियम लागू करने का अधिकार दिया गया है।
अनुच्छेद 19 के तहत केंद्रीय बोर्ड को मुख्यतः राज्य बोर्डों के काम में तालमेल बैठाने के अधिकार दिए गए हैं। राज्यों के बोर्डों से परामर्श करके संबंधित राज्य सरकारें किसी भी क्षेत्र को वायु प्रदूषण नियंत्रण क्षेत्र घोषित कर सकता है और वहां स्वीकृत ईंधन के अतिरिक्त अन्य किसी भी प्रकार के प्रदूषण फैलाने वाले ईंधन का प्रयोग न करने की रोक लगा सकते हैं। इस अधिनियम में यह प्रावधान है कि कोई भी व्यक्ति राज्य बोर्ड की पूर्व अनुमति के बिना वायु प्रदूषण नियंत्रण क्षेत्र में ऐसी कोई भी औद्योगिक इकाई नहीं खोल सकता, जिसका वायु प्रदूषण अनुसूची में उल्लेख नहीं है। इस अधिनियम के अनुसार केन्द्र व राज्य सरकार दोनों को वायु प्रदूषण से होने वाले प्रभावों का सामना करने के लिए शक्तियां प्रदान की गई है। इस प्रकार वायु (प्रदूषण और नियंत्रण) अधिनियम 1981 वायु प्रदूषण को रोकने का एक महत्वपूर्ण कानून है जो प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को न केवल औद्योगिक इकाइयों की निगरानी की शक्ति देता है, बल्कि प्रदूषित इकाइयों को बंद करने का भी अधिकार प्रदान करता है।
पर्यावरण तथा वन मंत्रालय ने दिसम्बर 2004 को राष्ट्रीय पर्यावरण नीति 2004 का ड्राफ्ट जारी किया है। इसकी प्रस्तावना में कहा गया है कि समस्याओं को देखते हुए एक व्यापक पर्यावरण नीति की आवश्यकता है। साथ ही वर्तमान पर्यावरणीय नियमों तथा कानूनों को वर्तमान समस्याओं के संदर्भ में संशोधन की आवश्यकता को भी दर्शाया गया है। राष्ट्रीय पर्यावरण नीति के निम्न मुख्य उद्देश्य रखे गये हैं। इनमें संकटग्रस्ट पर्यावरणीय संसाधनों का संरक्षण करना, पर्यावरणीय संसाधनों पर सभी के विषेशकर गरीबों के समान अधिकारों को सुनिष्चित करना, संसाधनों का न्यायोचित उपयोग सुनिश्चित करना, ताकि वे वर्तमान के साथ-साथ भावी पीढ़ियों की आवश्यकताओं की भी पूर्ति कर सकें। इस दिशा में पर्यावरण नीति (2004) को गंभीरता से लागू करने की आवश्यकता है। पर्यावरण को सुरक्षित करने के प्रयासों में आम जनता की भागीदारी भी सुनिश्चित करने की जरूरत है।
दिल्ली के मामले में तो हर वर्ष शीतकाल में देश की सर्वोच्च अदालत को सक्रिय भूमिका अदा करने पर मजबूर होना पड़ता है। राष्ट्रीय राजधानी और आस-पास के इलाकों में खराब गुणवत्ता की हवा पर गंभीर रुख अपनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार द्वारा उठाए गए कदमों पर अपनी गहरी नाराजगी व्यक्त की है। सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा ‘पानी की कमी होने पर कुआं खोदने जैसे कदम क्यों उठाए जाते हैं’ टिप्पणी की गई। वायु प्रदूषण को रोकने के लिए पहले से ही ठोस और प्रभावी कदम क्यों नहीं उठाए जाते हैं। यह प्रश्न भी उठाया गया। समस्या गंभीर होने पर सरकारें’‘गहरी नींद से क्यों जागती है’ यह भी कहा गया।
सर्वोच्च न्यायालय इसके पूर्व भी कई मामलों में उन औद्योगिक इकाइयों को बंद करने के आदेश दे चुका है जो प्रदूषण फैलाकर आस-पास के वायुमंडल को प्रदूषित कर रही थी। मध्यप्रदेश सहित देश के अन्य कई उच्च न्यायालय भी विभिन्न मामलों में ऐसे ही फैसले दे चुके हैं। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप इस बात को रेखांकित करता है कि देष के विभिन्न भागों में बढ़ रहे प्रदुषण एवं मानव जीवन पर उसके पड़ने वाले प्रभावों से कितनी चिंतित है। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय अथवा अन्य न्यायालयों की चिंता अथवा कार्यवाही पर्याप्त नहीं है। इसे देश की केन्द्रीय एवं राज्य सरकारों को अपने प्राथमिक कार्यक्रमों में सम्मिलित कर उस पर अमल करना होगा। इस मामले में मोदी सरकार द्वारा शौचालय निर्माण एवं सफाई के कार्यक्रम इसके आदर्श उदाहरण हो सकते हैं। देश के प्रधानमंत्री को प्रदूषण मामलों में भी प्राथमिकता देनी होगी।
विश्व स्वास्थ्य संगठन तथा दक्षिण भारत के कुछ शहरों को छोड़कर केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड प्रदूषण नियंत्रित करने के लिए बनाए मानकों की सीमा का पालन करने में असफल रहा है। इस रिपोर्ट में जीवाष्म ईंधन को वायु प्रदुषण का मुख्य कारण बताया गया है। आंकडे़ कुछ पुराने है। लेकिन, देश में वायु प्रदूषण का स्तर पीएम 10 (2) 268 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से 168 1 रहा है। निरंतर यह स्तर बढ़ रहा है। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि दिल्ली का स्थान शीर्ष पर है। यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि दिल्ली सहित कई शहरों में सांस लेना भी मुश्किल हो गया है। दुर्भाग्य यह है कि इसे नियंत्रित करने के लिए कोई कारगर कदम नहीं उठाए जा रहे हैं। यह भी एक रोचक तथ्य है कि वायु प्रदूषण से होने वाली मौत की संख्या तम्बाकू से होने वाली मौतों से कुछ ही कम है। यदि यही स्थिति रही तो हम उसे भी पीछे छोड़ देंगे। इलेक्ट्रिक वाहनों को प्राथमिकता सराहनीय पहल कही जा सकती है। लेकिन, वायु प्रदुषण हमारी चिन्ताओं में सर्वोच्च स्थान पर है। अभी हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने बिल्कुल सही कहा है कि ‘‘कल्पना कीजिए हम दुनिया को क्या संदेश दे रहे है!