श्रीप्रकाश दीक्षित की विशेष रिपोर्ट
अरविंद केजरीवाल सरकार की खर्चीली विज्ञापनबाजी पर मैं दो साल पहले भी कलम चला चुका हूँ.पर अब तो उनकी सरकार विज्ञापनबाजी पर करोड़ों लुटा रही है जो जनधन के दुरुपयोग के अलावा कुछ नहीं है.हैरान करने वाली बात यह की पूरे पेज के बड़े विज्ञापन देश भर के अखबारों मे छपवाए जा रहे हैं जिनका कोई औचित्य नही.पिछले दो तीन महीनों मे केजरीवाल की खिलखिलाती तस्वीरों वाले पूरे पेज के एक दर्जन से ज्यादा सरकारी विज्ञापन तो छपे ही होंगे.दीगर प्रदेशों के अखबारों मे इन्हें छपाने का क्या मतलब.? दिल्ली की जनता को इन विज्ञापनो के मार्फत संदेश देना भी था तो इन्हें छोटे आकार मे छपाया जा सकता था.
क्या उनकी सरकार के पास खूब पैसा है.? और है भी तो कोरोना के इस दौर मे उसे ऐसे लुटाने का क्या मतलब.?उनकी विज्ञापनबाजी भाजपा और काँग्रेस की सत्ता संस्कृति को भी मात करती दिखाई दे रही है जो बेहद शर्मनाक है.दीगर प्रदेशों मे विज्ञापन छपाने को केजरीवाल द्वारा खुद को बतौर राष्ट्रीय नेता स्थापित करने की कवायद भी माना जा रहा है.यह कुछ कुछ चुनाव से पहले तब की वाजपेयी सरकार के शाइनिंग इंडिया अभियान जैसा भी है जिसके बावजूद चुनाव मे पार्टी को बहुमत नहीं मिल सका और मनमोहन सरकार बनी थी.
लोकपाल के लिए अन्ना हजारे के अनशन आंदोलन ने आक्रामक तेवरों वाले अरविंद केजरीवाल को जननायक बना दिया.अन्ना की असहमति के बावजूद उन्होंने योगेन्द्र यादव,शांतिभूषण और प्रशांत भूषण आदि के साथ आम आदमी पार्टी बना दिल्ली में निर्णायक जीत हासिल की. बाद मे ये सभी एक एक कर आप से अलग होते चले गए जिसकी वजह केजरीवाल का स्वभाव माना गया.आंदोलन के बाद अन्ना तो रालेगण सिद्धि मे गुम होकर रह गए और केजरीवाल मुख्यमंत्री बनने के बाद भी पार्टी अध्यक्ष पद पर काबिज हैं जो मुलायमसिंह, लालू यादव और मायावती के अधिनायकवादी चरित्र से ज्यादा मेल खाता नजर आता है.?