एक निशान,एक विधान के बाद एक भाषा कब ?

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एक निशान,एक विधान के बाद एक भाषा कब ?
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देश हर साल की तरह हिंदी पखवाड़ा मना रहा है. हिंदी दिवस निकल चुका है ,लेकिन किसी ने भी हिंदी को आधिकारिक भाषा से प्रोन्नत कर राष्ट्रभाषा बनाने का न संकल्प किया और न किसी ने हिंदी को कर्मकांड से मुक्ति के लिए कोई कोशिश की. कुछ लोग देश जोड़ने के लिए पदयात्रा में व्यस्त हैं और कुछ लोग अपने प्रतिद्वंदियों को तोड़ने में .तोड़-फोड़ में उलझे देश को एक निशान और एक विधान मिल चुका है ,लेकिन उसे एक भाषा की जरूरत शायद न कल थी ,न आज है और न कल होगी .

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आप माने या न माने लेकिन हकीकत ये है कि ‘ हिंदी ‘ आज देश की अस्मिता से जुड़ा सवाल नहीं है. हिंदी राजनीति से जुड़ा सवाल है और हिंदी की रजनीति करने वाले सभी राजनीतिक दल एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं .पिछले 75 साल में कांग्रेस समेत किसी राजनीतिक दल ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाये जाने का मुद्दा शामिल नहीं किया .शायद किसी दल के लिए ये मुद्दा है ही नहीं. देश की मौजूदा सरकार तमाम मुद्दों पर नेहरू की विरोधी है लेकिन हिंदी के मामले में उसे नेहरू युग का त्रिभाषा फार्मूला आपत्तिजनक नहीं लगता ,क्योंकि वो सुविधाजनक जो है .

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भाजपा देश की अकेली ऐसी पार्टी है जो एक निशान,एक विधान और एक भाषा के लिए कटिवद्ध मानी जाती थी. जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाकर उसने देश में एक विधान तो लागू कर दिया ,कश्मीर का अपना ध्वज छीनकर एक निशान का लक्ष्य भी हासिल कर लिया ,किन्तु एक भाषा के मामले में पीछे हट गयी .उसे पीछे हटना ही था ,क्योंकि हिंदी के पीछे उसे कोई खड़ा दिखाई नहीं देता. हिंदी कल भी अनाथ थी,हिंदी आज भी अनाथ है ,और शायद कल भी अनाथ ही रहेगी .
हिंदी का दुर्भाग्य ये है कि अब उसके लिए लड़ने वाले काका कालेलकर, हजारीप्रसाद द्विवेदी, सेठ गोविन्ददास जैसे लोग अब किसी राजनीतिक दल में नहीं हैं. हमारी बिरादरी के वेद प्रताप वैदिक जैसे इक्का-दुक्का लोग हैं लेकिन उनका प्रताप इतना नहीं है कि वे हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए सरकार को विवश कर सकें .हिंदी बिरादरी केवल हिंदी सेवा के बदले सम्मान हासिल करने के लिए बची है .हिंदी की सेवा के लिए बनीं तमाम अकादमियां हिंदी से ज्यादा अपनी सेवा कर रहीं हैं .

धरना बन गयी है कि हमारी हिंदी राष्ट्र को एक सूत्र में नहीं बाँध सकती.ये काम तो केवल राजनीति ही कर सकती है. हमारी हिंदी तो केवल हिन्दी निबंध लेखन ,वाद-विवाद,विचार गोष्ठी,काव्य गोष्ठी,श्रुति लेखन,हिन्दी टंकण प्रतियोगिता,कवि सम्मेलन,आयोजित करने और पुरस्कार समारोह आयोजित करने के काम आती है .हिंदी के लिए कोई रथ यात्रा नहीं निकालता ,कोई पद यात्रा नहीं निकालता .कोई अनशन नहीं करता .संसद से लेकर सड़क तक हिंदी के लिए लड़ने वाला कोई नहीं है .

दरअसल भाषा के लिए हमारी प्रतिबद्धता दिखावटी है .हम हिंदी को शीर्ष पर नहीं ले जा सकते क्योंकि हम तमिल से डरते हैं,हम मलयाली से डरते हैं,बांग्ला से और मराठी से डरते हैं .क्षेत्रीय भाषाओं से हमारा भय ही हिंदी को उसका स्थान नहीं दिला पा रहा है .भाषाएँ यदि वोट से बाबस्ता न होतीं तो राष्ट्रभाषा सबको अंगीकार होती .जिन क्षेत्रीय भाषाओँ से हिंदी वाले आतंकित हैं वे ही लोग सबसे पहले हिंदी सीखते हैं और अपने इलाकों से बाहर निकलते ही हिंदी के जरिये अपनी रोजी-रोटी सुरक्षित करते हैं .हिंदी से उनका विरोध भी राज्यों की सीमाओं तक है. जैसे ही राज्य छूटता है वैसे ही हिंदी का विरोध समाप्त हो जाता है .

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हमारे नेता ये मानने के लिए राजी ही नहीं है कि बाजार ने हिंदी को अघोषित रूप से राष्ट्र भाषा बहुत पहले बना दिया है .केवल राजकाज की भाषा हिंदी नहीं बन पायी है .आप देश के किसी भी भू-भाग में चले जाइये हिंदी को लेकर कोई दुराग्रह नहीं है .सब हिंदी बोलते हैं,हिंदी समझते हैं और हिंदी वालों से स्नेह करते हैं .पूरब से पश्चिम तक और उत्तर से दक्षिण तक हिंदी का बोलबाला है लेकिन हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए बोलने वालों की कमी है .हिंदी यदि वोट दिला रही होती,हिंदी यदि अल्पसंख्यक मुसलमानों की भाषा होती,मदरसों की भाषा होती तो मुमकिन है कि हमारे सत्ता प्रतष्ठानों को भी इस बात के लिए विवश कर देती की उसे उसका राष्ट्रभाषा का स्थान दिलाया जाये .

हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का ख्वाब आजादी के पहले का है. महात्मा गाँधी ने हिंदी को राजभाषा बनाने की बात सबसे पहले की थी. उनकी कोशिशों से ही देश में राज्य हिंदी साहित्य सम्मेलन समितियां बनीं. लेकिन जो लोग गांधी को ही नहीं मानते वे गांधी के कहने पर हिंदी को राष्ट्रभाषा कैसे बना दें ? ये काम तो गांधी की अपनी फ़ौज नहीं कर पायी तो गोलवलकर की फ़ौज से हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की उम्मीद कैसे की जा सकती है ? कांग्रेस की सरकार ने अहिन्दी भाषी राज्यों के विरोध से डरकर हिंदी के बजाय अंग्रेजी को राजभाषा का दर्जा देने की जो गलती की उसे हमारे विश्व गुरू आजतक सुधार नहीं पाए ,जबकि आधी कांग्रेस को वे हजम कर चुके हैं. हाल ही में ताजा कौर उन्होंने गोवा में निगला है .

भाषाओँ के लिए प्रतिबद्धता देखना हो तो पड़ौसी चीन की और देख लीजिये .पाकिस्तान की और देख लीजिये .कुछ वर्षों पहले मै चीन में एक हवाई अड्डे पर फंस गया था.मुझे अपने विमान तक पहुँचने में पूरे आठ घंटे लगे क्योंकि कोई चीनी न हिंदी जानता था और न अंग्रेजी में बात करना चाहता था .और मुझे चीनी भाषा नहीं आती थी .हमें संकेतों की भाषा से काम चलना पड़ा ,और एक हम हैं कि संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में बोलकर गौरवान्वित हो लेते हैं .अरे भाई संयुक्त राष्ट्र तो छोड़िये आप देश में ही हिंदी ढंग से बोल लीजिये,उसे राजकाज की भाषा बना लीजिये तो देश का और हिंदी का कल्याण हो जाये .

हमें हिंदी को प्रभुओं की भाषा बनाना होगा .हमारा प्रभु वर्ग जब तक अंग्रेजी में बोलेगा हिंदी का दुश्मन बना रहेगा .हमें आजाद हुए 75 साल हो गए हैं. अपनी भाषा खोजने के लिए इतना समय कम नहीं होता .क्या भारत को विश्व गुरु बनने से पहले अपनी राष्ट्रभाषा की जरूरत नहीं है ? क्या विश्व गुरु अंग्रेजी में ही दुनिया को शांति और अहिंसा का सन्देश सुनाएंगे ? हिंदी को भविष्य की गारंटी की भाषा बनाये बिना हिंदी का उद्धार नहीं होगा .जो लोग हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में नहीं देखना चाहते वे अच्छा हो हिंदी का श्राद्ध कर दें,हिंदी से पिंड छुड़ा लें .गया जाएँ और पिंडदान कर आएं हिंदी का .
@ राकेश अचल

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RAKESH ANCHAL
राकेश अचल

राकेश अचल ग्वालियर - चंबल क्षेत्र के वरिष्ठ और जाने माने पत्रकार है। वर्तमान वे फ्री लांस पत्रकार है। वे आज तक के ग्वालियर के रिपोर्टर रहे है।