साँच कहै ता ! भूख(hungry) है तो सब्र कर

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साँच कहै ता ! भूख (hungry)है तो सब्र कर

मुट्ठी भर गोबरी का अन्न लेकर लोकसभा पहुंचे डॉ राममनोहर लोहिया( Dr. Ram Manohar Lohia)ने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरूसे कहा- लीजिए, आप भी खाइए इसे, आपके देश की जनता यही खा रही है।
  पिछले दिनों जब विश्व के भुखमरी सूचकांक (हंगर इंडेक्स) में 116 देशों में भारत का 101वाँ स्थान पर होने के बारे में पढ़ा तो 1963 का नेहरू-लोहिया(Dr. Ram Manohar Lohia) का वह प्रसंग जीवंत हो गया, जिसमें लोहिया ने तीन आने बनाम पंद्रह आने की वह ऐतिहासिक बहस की थी।                                          images 60
 दरअसल, लोहिया(Dr. Ram Manohar Lohia) ने रीवा (मध्यप्रदेश) के एक गांव की एक औरत को गोबर से भोजन के लिए अन्न छानते देखा था और इतने मर्माहत हुए कि वही गोबरी का मुट्ठी भर अन्न लिये सीधे लोकसभा पहुंच गए थे।
लोहिया ने सदन में कहा कि देश की जनता तीन आने रोजाना में जी रही है और उसके प्रधानमंत्री पर रोजाना पचीस हजार रुपए खर्च हो रहे हैं। देश की जनता की स्थिति तो प्रधानमंत्री निवास में रह रहे कुत्ते से भी गई-गुजरी है क्योंकि उस पर तो तीन आने से भी ज्यादा खर्च होता है।                      images 61
नेहरू इतने विचलित हो गए कि इसके जवाब में तथ्य देने के बजाय कहा- लोहिया(Dr. Ram Manohar Lohia) का दिमाग फिर गया है, देश की जनता की रोजाना आमदनी पंद्रह आने है।
लोहिया ने चुनौती दी कि यदि मेरी बात गलत निकल जाए तो मैं लोकसभा हमेशा के लिए छोड़ दूंगा। नेहरू ने योजना आयोग के उपाध्यक्ष समेत अपनी पूरी आर्थिक सलाहकार परिषद को तथ्य और प्रमाण जुटाने में लगा दिया, लेकिन सब मिलकर भी लोहिया की बात को झुठला नहीं सके।
भारत के राजनीतिक इतिहास में यही प्रसंग तीन आने बनाम पंद्रह आने की बहस के तौर पर जाना जाता है।
देश में आर्थिक विषमता को लेकर हुई उस जोरदार बहस के पचास-पचपन साल बाद भी स्थिति न सिर्फ जस की तस है, बल्कि और ज्यादा भयावह हुई है।
अनेक क्षेत्रों में देश का विकास हुआ है, अर्थव्यवस्था काआकार भी बढ़ा है, फोर्ब्स सूची में भारतीय अमीरों की संख्या भी बढ़ी है, पर सबकुछ एकतरफा।
आर्थिक विषमता की खाई उत्तरोत्तर और चौड़ी होती गई है। अमीर ज्यादा अमीर होते गए, गरीब ज्यादा गरीब। इन पचास सालों में देश में खतरनाक किस्म का आर्थिक ध्रुवीकरण हुआ है।
मध्यवर्ग के विखंडन की प्रक्रिया आज लगभग उस मुकाम तक पहुंच गई है कि उसका एक छोटा हिस्सा अमीरी की ओर खिसक रहा है और एक बड़ा हिस्सा गरीबों की कतार में लगता जा रहा है।
जिस गति से इस प्रक्रिया में तेजी आई है उसे देखते हुए आप कह सकते हैं कि वह दिन दूर नहीं जब समूचा समाज अमीर और गरीब की दो फांकों में बंट जाएगा। विकास के मामले में विभिन्न देशों की मौजूदा स्थिति का आकलन करने वाली रेटिंग एजेंसियां हर साल बताती हैं कि भारत में अमीरों की संख्या किस तेजी से बढ़ रही है। पर उसके मुकाबले गरीबी भी बढ़ रही है, भुखमरी( hungry)भी, बीमारियों से मरने वालों की संख्या भी।
स्त्रियों व विपन्न वर्ग पर अत्याचार भी बढ़ रहा है और इन सबसे ऊपर भ्रष्टाचार भी। इन रेटिंग एजेंसियों के आंकड़े हम इसलिए मानने को मजबूर हैं कि यही एजेंसियां जब हमारी विकास दर, हमारी आर्थिक शक्ति या हमारी अर्थव्यवस्था के आकार, विश्व में हमारी बढ़ती हुई हैसियत, हमारे बढ़ते हुए बाजार के आंकड़े पेश करती हैं तब हमारी सरकारें इसी को आधार बना कर अपनी पीठ थपथपाती हैं, इसी को आधार बना कर खूबसूरत रंगीन प्रचार सामग्री परोसती हैं।
और चलिए, अगर मान भी लें कि इन रेटिंग एजेंसियों का आकलन या अनुमान हर बार असंदिग्ध नहीं होता, उस पर कई सवाल उठाए जा सकते हैं; भुखमरी सूचकांक को हम अलग रख दें, तो भी अपनी आंखों से देखते हैं किसानों को खुदकुशी करते हुए, अपनी आंखों से देखते हैं कमजोर तबकों पर जुल्म होते हुए। अपनी आंखों से देखते हैं कि विषमता दिनोंदिन और बढ़ रही है, अपने अनुभव से जानते हैं कि हर काम के लिए रिश्वत देनी पड़ती है। नियुक्तियों और तबादलों में तो अवैध कमाई की कोई सीमा नहीं।
जनप्रतिनिधि जब अगली बार चुनाव लड़ते हैं तो उनके नामांकन पत्र ही बता देते हैं कि पांच साल में उनकी आर्थिक हैसियत में कैसा जबर्दस्त इजाफा हुआ है। क्या अपनी नजरें भी संदिग्ध हैं? नहीं, उनकी आंखों पर पट्टी बंधी है जिन्हें हमने ये सब देखने का जिम्मा सौंपा है।सत्तर बनाम साढ़े तीन साल की चर्चा चलती है।
बहस इस पर नहीं हो रही कि कौन ज्यादा बेहतर, कौन ज्यादा ल़ोककल्याणकारी, कौन-सी नीतियां अधिक जन-हितैषी हैं, बल्कि बहस इस ओर मोड़ दी गई है कि कौन कम बेईमान या कम भ्रष्ट है।
उदारीकरण और खुले पूंजीवाद की अंधी दौड़ में लोककल्याण की कसमें रोज टूटती हैं। हमने इसका कभी आकलन नहीं किया कि अमेरिकी विकास मॉडल हमारे लिए कितना मुफीद है। विकास का वही रास्ता वांछनीय हो सकता है जिसमें देश-विशेष की आबादी और उसकी बुनियादी जरूरतों का खयाल रखा जाए। पर आज दुनिया में विकास के एक ही मॉडल को सबके लिए उपयुक्त बताया जा रहा है।
एक समय देश की राजनीति में आर्थिक विषमता को लेकर जो बहस होती थी उसे 1990 के बाद से ही कूडेदान में डाल दिया गया।
अब अपने राजनेताओं का आकलन इस बात से होता है कि किसका किस उद्योग-समूह से प्रगाढ़ रिश्ता है। खादी और मखमल की सांठगांठ अब रात के अंधेरे में नहीं, खुलेआम कारपेट पर होती है। निवेशक सम्मेलन (इनवेस्टर्स मीट) आयोजित करने के लिए सरकारें लालायित रहती हैं।
सरकारों की स्थिति स्वयंवर में खड़ी उस युवती की भांति होती है जिसे हैसियत वाले दूल्हे की तलाश हो। समूची नौकरशाही घरातियों की भांति आवभगत में लग जाती है। यही लोग एक किसानों की जोत की जमीन को किसी कारखाने के लिए अधिग्रहीत करा देते हैं। यही लोग श्रम कानूनों में मुश्कें बंधवा देते हैं। हम निवेश तथा विकास दर के आंकड़े देख ताली पीटते हैं।
 कभी यह सवाल नहीं उठाते कि बरसों से ऊंची विकास दर के बावजूद करोड़ों लोग बेरोजगार क्यों हैं, क्यों करोड़ों लोग इलाज और शिक्षा का खर्च उठा सकने में अक्षम हैं? यह किसकी वृद्धि हो रही है? यही होना है और इसी को सही दिशा माना जा रहा है तो विषमता की बात कौन करेगा? लोहिया की तरह कौन खड़ा होगा, यह बताने के लिए कि देश के कितने लोग अधपेट सोने को विवश हैं!
hungry
कभी पूंजीपतियों से सत्ता की नजदीकी आलोचना का विषय बनती थी। इंदिरा गांधी और जयप्रकाश नारायण के बीच इसी बात को लेकर मतभेद बढ़ा। जेपी ने इंदिरा सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए। इंदिरा गांधी ने जवाब में कहा…उद्योगपतियों के रुपए पर पलते हुए आरोप लगाने वालों की वे परवाह नहीं करतीं। जेपी ने अपने खर्चे और आमदनी का ब्योरा चुनौती के साथ इंदिराजी को भेज दिया। इसके बाद भ्रष्टाचार और सत्ता की निरंकुशता के खिलाफ जेपी ने जो जंग छेड़ी उसका परिणाम दुनिया जानती है।
दीनदयालजी
लोहिया के इलाज के लिए बारह हजार रुपए इसलिए नहीं जुट पाए कि किसी उद्योगपति की देने की हिम्मत नहीं हुई, सरकार की मदद लेने से मना कर दिया और आम लोगों से चंदा जुटने में देर हो गई। दीनदयालजी विकट गरीबी में पले और जिंदगी भर यायावरी करते हुए कार्यकर्ताओं के घर भोजन किया, उन्हीं का भेंट किया हुआ कुर्ता-धोती पहना। अब कहां हैं राजनीति में ऐसे लोग?