सरकार के इस ‘बीटिंग ब्वॉय’ के मानवाधिकार की चिंता कौन करेगा!
खंडवा पुलिस विभाग ने विभागीय तौर पर एक वाद-विवाद प्रतियोगिता रखी थी, जिसका विषय ‘मानवाधिकार एवं कानून व्यवस्था’ था। इसके दोनों पक्षों पर पुलिस अधिकारियों और आरक्षकों ने अपना पक्ष मजबूती से रखा। मानवाधिकार के संरक्षण में व्यवहारिक दिक्कतों और अनुभवों को भी साझा किया गया। पुलिस कंट्रोल रूम में आयोजित इस प्रतियोगिता में मैं बतौर निर्णायक शामिल हुआ। यहाँ एक सवाल सहज़ रूप से मन में उठा कि समाज की अपराधियों से रक्षा के लिए तत्पर हमारी पुलिस को अपराधियों के भी मानवाधिकार की पूरी चिन्ता है। लेकिन, पुलिस के जवानों के भी अपने मानवाधिकार है, उसकी चिंता कौन करता है!
एक सेवानिवृत वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी मित्र जो इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) के एडीजी रह चुके हैं, वे पुलिस की पीड़ा इस तरह व्यक्त करते हैं कि पुलिस सरकार का बीटिंग ब्वॉय है। बीटिंग ब्वॉय दरअसल ब्रिटेन के राजघरानो में वहां के राजकुमारों के साथ बैठाए जाने वाले वो बच्चे हुआ करते थे, जिन्हे सिर्फ टीचर्स से पिटने के लिए बैठाया जाता था। वहां के शासक मानते थे कि राजवंश के बच्चों की गलतियों पर उनके टीचर्स को गुस्सा आना स्वाभाविक है। लेकिन, वे उन पर हाथ नहीं उठा सकते! ऐसे में उनका गुस्सा झेलने के लिए बीटिंग ब्वॉय की यह व्यवस्था थी।
ब्रिटेन के बीटिंग ब्वॉय से भारतीय पुलिस की तुलना कुछ ग़लत नहीं है। अक्सर हमारी पुलिस जनता के उस आक्रोश का सामना करती है, जिसके लिए सीधे तौर पर वो जिम्मेदार नहीं होती। बिजली कटौती लेकर कोई प्रदर्शन हो, तो बिजली कंपनी के अफ़सर सामने नहीं आते, उनसे पुलिस निपटती है। शहर में जलसंकट गहराए तो नगर निगम के बजाय जनता का सामना फिर पुलिस से होता है। किसानों को खाद-बीज न मिले तो कृषि विभाग के अधिकारी सामने नहीं आते। गड्ढेदार -जर्जर सड़कों की वज़ह से दुर्घटना हो और लोग आक्रोशित हो जाये तो सड़क निर्माण करने वाली एजेंसी सामने नहीं होती। ज़ाहिर है पुलिस उन सभी एजेंसियों के प्रति जनाक्रोश को झेलती है ,उससे निपटती है सरकार के बीटिंग ब्वॉय की तरह।
थाने में किसी अपराध में अभिरक्षा में लिए गए आरोपी को हृदयाघात होने पर उपचार मिलने में विलम्ब हो जाए, कोई अप्रिय घटना हो जाए तो बिना सुनवाई थाना प्रभारी का निलंबन तय है। लेकिन, वहीं किसी पुलिसकर्मी की ड्यूटी के दौरान यह स्थिति बने तब क्या होता है! किसी गंभीर जघन्य अपराध के आरोपी को जनाक्रोश से बचाने की जवाबदेही भी पुलिस की ही है लेकिन उस पर ही हमला हो जाए तो!
पिछले दिनों कोविड प्रोटोकॉल का निर्वहन करने पर एक पुलिस जवान को एक महिला ने सार्वजनिक तौर पर थप्पड़ भी मार दिया। लेकिन, उस जवान ने पलटकर कोई कार्यवाही नहीं की। किसी ड्रग एडिक्ट अपराधी को हिरासत में लेने में पुलिस की साँस फूलने लगती है, जब थाने में ड्रग के डोज़ के बिना वह छटपटाने लगता है। ऐसे अनेक शातिर अपराधी होते है, जो उन्हें गिरफ़्तार करने आई पुलिस के सामने खुद को ब्लेड से घायल कर लेते है। धार्मिक आयोजनों में शराब के नशे में क़ानून -व्यवस्था की धज्जियाँ उड़ाने वाले उद्दंड युवकों पर कार्यवाही करना भी आसान नहीं होता। ऐसी अनेक परेशानियों से पुलिस रोज़ रूबरू होती है।
इसके अलावा पुलिसकर्मियों के पारिवारिक जीवन की स्थिति तो सर्वविदित ही है ,हर त्यौहार पर ड्यूटी। कोई नियमित सामान्य अवकाश नहीं, 24 X 7 वाली कड़क ड्यूटी। पुलिस के वेलफेयर के लिए यदाकदा उन्हें नियमित अवकाश की कागजी घोषणाएं होती है जिन पर कोई अमल नहीं होता। लगातार नए थाने बन रहे है, अलग -अलग प्रकोष्ठ बन रहे है, पुलिस सेवाएं विस्तारित भी हो रही है! लेकिन, कोई नयी भर्तियां नहीं हो रही! ज़ाहिर तौर पर जितना स्टाफ़ है उसी पर कार्य का दबाव बढ़ रहा है। क्या पुलिस जवानो के अपने मानवाधिकार नहीं है? श्रम विभाग किसी नियोक्ता को इसलिए जुर्माना कर सकता है कि वह अपने कर्मचारी को सप्ताह में एक दिन की छुट्टी नहीं देता! लेकिन, नियोक्ता जब सरकार ख़ुद हो तब! यदि हमें मित्रवत व्यवहार करने वाली पुलिस चाहिए तो उसे अनुकूल वातावरण भी वैसा देना होगा।