रंगमंच को अभिनय कला का नशा माना जाता है। जिसने भी इस दुनिया में कदम रखा, रंगमंच उसकी रूह में उतर गया। फिर वह चाहकर भी रंगमंच की दीवानगी से खुद को जुदा नहीं कर सकता। दरअसल, रंगमंच इश्क का एक ऐसा दरिया है जिसकी गहराइयों में जिंदगी बसती है। वास्तव में यह जीवन का वो रंग है, जिसमें अभिनय की बारीकियां समाई होती है। यही कारण है कि लोगों का इससे कभी जुड़ाव कम नहीं हुआ। राज कपूर और शशि कपूर हिंदी फिल्मों के बड़े अभिनेता थे, पर उनकी जान ‘पृथ्वी थिएटर’ में बसती थी। इसलिए कि रंगमच ही वो माध्यम है, जहाँ अभिनय को तराशने का मौका मिलता है।
हर साल 27 मार्च को दुनियाभर में ‘रंगमंच दिवस’ मनाया जाता है और इसकी शुरुआत 1961 में अंतरराष्ट्रीय रंगमंच संस्थान ने की थी। इसका मकसद रंगमंच प्रेमियों को जोड़कर रखना है। लेकिन, आधुनिकता की चकाचौंध ने रंगमंच की चमक को थोड़ा फीका जरूर कर दिया। पहले फिल्म, फिर टेलीविजन और अब ओटीटी के दौर में रंगमंच की ख़नखनाहट थोड़ी कम हो गई। लेकिन, मराठी, बंगाली, इंग्लिश और गुजराती समेत कई भाषाओं में रंगमंच के दीवानों की कमी नहीं है। हिंदी में जरूर रंगमंच पनप नहीं पाया, पर इसनेओम पूरी, नसीरुद्दीन शाह, नाना पाटेकर और स्मिता पाटिल जैसे कुछ सितारे जरूर दिए, जिनका अभिनय करियर बेमिसाल रहा। प्रसिद्ध रूसी-अमेरिकी नाट्यकर्मी माइकल चेखव ने रंगमंच को एक ‘जीवंत कला’ कहा था। यह समाज की सच्चाई को सहजता से रूबरू कराता है और यह दर्शकों को जोड़कर रखता है।
रंगमंच जीवन का ऐसा किस्सा है, जो समाज की दकियानूसी परम्पराओं पर भी सवाल खड़े करता है। इसलिए कहा जा सकता है कि रंगमंच जीवन को दिशा भी देता है। ये समाज की बुराइयों से रूबरू कराता है, तभी तो इसे दिल का सुकून देने वाला माध्यम भी कहा गया। इसमें प्रेम का राग है, तो जुदाई का दर्द भी। रंगमंच जिंदगी की हर अच्छी बुरी घटना का जीवंत रूप भी है। यह समाज के अंदर घटने वाली बातों को दर्शकों के माध्यम से जनता तक पहुँचाने की कड़ी है। आज भले ही मनोरंजन के साधनों की भरमार हो गई हो। इंटरनेट की स्पीड ने मनोरंजन को 2-जी से बाहर निकालकर 4जी और 5जी की गति दे दी, फिर भी इसे चाहने वाले दर्शकों से इसे दूर नहीं कर सके।
आज ज्यादातर वही कलाकार सफल है, जो रंगमंच की दुनिया से होते हुए फिल्म, टीवी और ओटीटी प्लेटफॉर्म तक पहुंचे हैं। उनकी अदाकारी में एक अलग ही जीवंतता देखने को मिलती है। वरना टीवी को तो ‘बुद्ध बक्से’ की संज्ञा दी ही गई है। जबकि, रंगमंच को जीवन का राग कहा गया। ओम पूरी ने एक बार कहा था कि रंगमंच पर गलती के लिए कोई जगह नहीं है। जो किया वही अंतिम सत्य है। फिल्म और टीवी पर तो टेक पर टेक हो जाते हैं, पर रंगमंच इस सबकी इजाजत नहीं देता। वहां आपका समीक्षक दर्शक होता है, जो सब देखता और समझता है। इसलिए अभिनय का सबसे कठिन माध्यम कोई है तो वो रंगमंच है।
भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृति है और रंगमंच इसी संस्कृति की देन है। नाट्यकला के विकास का श्रेय भी भारत को ही जाता है। ऋग्वेद के सूत्रों में यम और यामी, पुरुरवा और उर्वशी के संवाद मौजूद है। भारत में सदियों पहले ही भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र की रचना की थी और कहा था कि नाट्यशास्त्र हमारी संस्कृति का हिस्सा रहा है, तभी तो इसे पंचमवेद तक की संज्ञा दी गई। पुरातन काल में हमारी संस्कृति और हमारी आस्था को भी नाटक के रूप में मंचन करके प्रस्तुत किया जाता था। जिससे लोगों की आस्था तक रंगमंच में जुड़ी होती थी।
रामायण व महाभारत का आज भी मंचन सुदूर-क्षेत्रों में देखा जा सकता है। आधुनिक भारत की बात करें, तो भारतेंदु हरिश्चंद्र ने रंगमंच में प्रयोग का दौर शुरू किया, उन्हें तो हिंदी रंगमंच का पितामह कहा जाता है। आज भी उनके नाटकों का मंचन किया जाता है। भारतेंदु ने अंधेर नगरी चौपट राजा, नील देवी, भारत-दुर्दशा जैसे नाटकों का लेखन किया। लेकिन, कहते हैं न कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है और बदलती तकनीक ने हर क्षेत्र में अपना प्रभाव डाला। कहा भी गया कि जो समाज जितना प्रगतिशील होगा वह उतना ही विकसित होगा। साहित्य के क्षेत्र में भी निरंतर परिवर्तन होते आ रहे हैं। नई नई तकनीकों का प्रयोग रंगमंच में भी दिखाई देने लगा है।
भारतीय रंगमंच का इतिहास देश में घटित घटनाओं के कर्मकांड का चिट्ठा है। जो इतिहास को वर्तमान से जोड़ता है। ऐसे में अगर रंगमंच को भी आधुनिकता से जोड़ते हुए आगे बढाने की संभावना तलाशी जाए, तो यह एक सुखद अनुभव वाली बात होगी। क्योंकि, यह बात निःसन्देह सच है कि तत्कालीन दौर में रंगमंच पर संकट कई तरीके का है। जो अर्थ और प्रोत्साहन के अभाव को झेल रहा है, लेकिन एक बात यह तय मानिए कि रंगमंच एक कला है, जो हर व्यक्ति के अंदर कहीं न कहीं जीवित है। ऐसे में नाटक और रंगमंच के मरने का तो सवाल ही नहीं उठता।
बस उसे प्रोत्साहित करने की जरूरत है। जिसके लिए प्रयास सामूहिक होना चाहिए। रंगमंच एक बहुआयामी विधा है, जो लगातार कलाकार और दर्शक की रचनात्मकता का विस्तार करती है। रंगमंच का विस्तार साहित्य से कहीं अधिक है। टेलीविजन लोगों के बेडरूम तक घुस गया, लेकिन रंगमंच की जगह वो कभी नहीं ले सकता। क्योंकि, रंगमंच अपने दर्शकों से एक तादात्म्य स्थापित करता है। जबकि, टीवी और ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म अश्लीलता की तरफ बढ़ गए, जिनका संस्कारों और संस्कृति से कोई लेना- देना नहीं। ऐसे में रंगमंच के जीवित रहने से न सिर्फ कुछ घरों का रोजगार जिंदा रहेगा। बल्कि हमारी एक पुरातन संस्कृति भी संरक्षित रहेगी।
सोनम लववंशी
पत्रकारिता में स्नातकोत्तर होने के साथ महिलाओं और सामाजिक मुद्दों की बेबाक लेखिका है। उन्होंने पत्रकारिता के कई संस्थानों में कार्य किया है।