वाह रे लोकतंत्र…गांधी को समर्पित जातिगत जनगणना…

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वाह रे लोकतंत्र…गांधी को समर्पित जातिगत जनगणना…

आजादी के 76 साल बाद बिहार सरकार ने जातिगत जनगणना कर आंकड़े जारी कर दिए हैं। यह भी जता दिया है कि बिहार में सवर्ण की जनसंख्या महज 15 फीसदी है और इसके मुकाबले पिछड़ा वर्ग, अति पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जाति की जनसंख्या 85 फीसदी है। इसके आधार पर अब समाज को सवर्ण और गैर सवर्ण में बांटने की अधिकारिक तैयारी का रास्ता साफ हो गया है। जातिगत आंकड़े जारी करने के लिए 2 अक्टूबर और गांधी जयंती का दिन भी सोच समझकर चुना गया। प्रेस कॉन्फ्रेंस में अपर मुख्य सचिव विवेक सिंह ने बताया कि जातिगत सर्वे के मुताबिक बिहार की कुल आबादी 13 करोड़ के करीब है। रिपोर्ट के मुताबिक अति पिछड़ा वर्ग 27.12 प्रतिशत, अत्यन्त पिछड़ा वर्ग 36.01 प्रतिशत, अनुसूचित जाति 19.65 प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति 1.68 प्रतिशत और अनारक्षित यानी सवर्ण 15.52 प्रतिशत हैं। इन आकंड़ों के जारी होते ही इस पर सियासी घमासान भी शुरू हो गया है, जिसके लिए यह आंकड़े जारी ही किए गए थे। राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) प्रमुख लालू यादव ने बिहार में जातिगत जनगणना के आंकड़ें जारी होने पर कहा कि आज गांधी जयंती पर इस ऐतिहासिक क्षण के हम सब साक्षी बने हैं। अब यह क्षण ऐतिहासिक है या नहीं, इस पर नई बहस शुरू हो गई है‌। अनेकों घोटालों के आरोपी लालू यादव को ऐसी टिप्पणी करने का अधिकार भी है या नहीं, वास्तव में बहस इस पर होना चाहिए।

कहा यह भी जा रहा है कि ये आंकड़े वंचितों, उपेक्षितों और गरीबों के समुचित विकास और तरक्की के लिए समग्र योजना बनाने और हाशिए के समूहों को आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व देने में देश के लिए नजीर पेश करेंगे। तो सवाल यह भी है कि पिछड़ा वर्ग को छोड़ भी दें, तब भी अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आंकड़े तो राज करने वाले नेताओं की आंखों के सामने 76 साल से मजबूर बनकर खड़े खड़े रोते रहे, तब इन वर्गों को समग्र तौर पर समृद्ध बनाने की नजीर इन्होंने क्यों नहीं पेश कर पाई? बिहार जातिगत आंकड़े पेश करने वाला पहला राज्य है, जहां पिछड़ा और अति पिछड़ा तो फिर भी मजे में हैं, दयनीय और अपराध के सर्वाधिक शिकार तो अनुसूचित जाति और जनजाति की आबादी है। वही आबादी जिसको नौकरियों में आरक्षण देने की संवैधानिक व्यवस्था आजादी के बाद ही कर दी गई थी। जातिगत जनगणना की जगह इन वर्गों का समग्र विकास और इनके लिए रोटी, कपड़ा और मकान की व्यवस्था न कर पाने की नैतिक जिम्मेदारी लेने की जेहमत सत्ताधारी दल के जिम्मेदार क्यों नहीं उठाते? आज शायद सबसे बड़ा सवाल यही है।

खैर इस बहस का अंत नहीं है। किसने क्या कहा, इसका जिक्र करना भी बकवास ही है। राजनेताओं को समीकरण साधने का नया मसाला मिल गया है। और गांधी जी को बेवजह घसीटकर अपनी पीठ थपथपाने का काम किया जा रहा है। जबकि 1930 के दशक के बाद से न केवल गांधी जी अपने लेखों में जाति व्यवस्था की समाप्ति की बात कर रहे थे, साथ ही साथ इसके लिए जमीनी स्तर पर अभियान भी चला रहे थे। सामाजिक न्याय और समानता की अवधारणा पर आधारित समाज की कल्पना गांधी जी ने की थी। 16 नवंबर 1935 को ‘हरिजन’ में छपे अपने लेख में गांधी जी जाति और जाति व्यवस्था की समाप्ति की बात लिखते हैं। उनके इस लेख का शीर्षक था “कास्ट हेज टू गो”। 1921 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की बागडोर संभालने के बाद उन्होंने देशभर में दरिद्रता से मुक्ति दिलाने, महिलाओं के अधिकारों का विस्तार, धार्मिक एवं जातीय एकता का निर्माण व आत्मनिर्भरता के लिये अस्पृश्‍यता के विरोध में अनेकों कार्यक्रम चलाये। अब उन्हीं महात्मा गांधी को बिहार सरकार ने जातिगत आंकड़े जारी कर श्रद्धांजलि अर्पित की है। गांधी जी की आत्मा को इससे शांति मिलेगी या फिर उनकी आत्मा को कष्ट होगा, यह सवाल विचारों के कटघरे में अपना जवाब पाने के लिए छटपटाता रहेगा। लोकतंत्र के इस स्वरूप को किस नजरिए से देखा जाए जिसमें जातिगत जनगणना कर गांधी को समर्पित किया जा रहा हो…?