अपनी भाषा अपना विज्ञान : प्रकृति और संस्कृति

अपनी भाषा अपना विज्ञान : प्रकृति और संस्कृति

Nature and Nurture

राज कपूर की फ़िल्म “आवारा” में नायक गरीब घर से है लेकिन आदर्शवादी है । 1950 के दशक में “नया दौर” का जमाना था । 1975 तक आते-आते मोहभंग होने लगता है । राज कपूर द्वारा निर्मित “धरम करम” में रणधीर कपूर इस बात का प्रतीक है कि अच्छे बाप की संतान ही अच्छी होती है । यह सोच परिवर्तन मुझे और अनेक समीक्षकों को अच्छा नहीं लगा था । It was regressive । एक प्रतिगामी कदम । राज कपूर से यह उम्मीद नहीं थी ।

बहस पुरानी है । किसी इंसान के व्यक्तित्व और तमाम गुण दोषों के गढ़े जाने में किसकी भूमिका ज्यादा है?

आज की चर्चा का विषय कुछ ऐसा है कि उसका उपसंहार और निष्कर्ष शुरू में ही बनाया जा सकता है । यह कि सब कहेंगे और सही कहेंगे कि हमें मालूम है कि प्रकृति और परवरिश दोनों की भूमिका रहती है।

कुछ प्रश्न उठते हैं । किसकी कितनी । 50:50 । या 70:30 या 30:70 । या 90:10 । या 10:90 । कौन ज्यादा कौन कम ? ऐसे भी है जो कहते हैं कि Nature या प्रकृति 100% है और ऐसे भी जो Nurture या Culture या अनुभव को 100 % मानते हैं ।

एक तरफ है – प्रकृति ।

Nature (अनुवांशिकता Heredity) आधुनिक विज्ञान की भाषा में जीन्स ।  कहने में आता है कि It is all in your DNA । जो कुछ है आपकी DNA है । You are your genes । इन्हीं के द्वारा निर्धारित होते हैं हमारे मस्तिष्क की न्यूरॉन कोशिकाएं, उनके प्रोटीन न्यूरोट्रांसमीटर, रसायन, उनके Synapses, परिपथ Neural Network । हमारी मानसिकता, बुद्धि, emotions आदि यहीं निवास करते हैं । इसे Genetic Determinism कहते हैं । आनुवांशिक नियति वाद । मानों कोई ड्रग एडिक्ट या बलात्कारी या हत्यारा कह रहा हो, मैं जिम्मेदार नहीं हूँ । मेरी जींस ने करवाया है । आनुवंशिकता की भूमिका सर्वोपरि मानी जाती है ।

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इसे Nativism या Innateness भी कहते हैं । DNA या जींस या जीनोम या जीनोटाईप को धारण किया जाता है प्रत्येक कोशिका के नाभिक में स्थित 23 जोड़ा अर्थात 46 धागों पर जिन्हें क्रोमोसोम कहते हैं । आधा जीनोम माँ से और आधा पिता से मिलता है । लगभग 22000 जीन होती है । पहले सोचते थे इससे कहीं अधिक होती होंगी । लेकिन मानव जीनोम प्रोजेक्ट के पूर्ण होने पर इतनी कम पाई गई हैं । बहुत थोडा सा DNA नाभिक के बाहर Cytoplasm में मौजूद माईटोकोंद्रीया में भी रहता है जो केवल माँ से प्राप्त होता है ।

दूसरी तरफ है – वातावरण, परवरिश

संस्कृति, जीवन अनुभव । भोगा हुआ यथार्थ । इस विचारधारा के अनुसार प्रत्येक नवजात शिशु एक कोरी पट्टी के समान होता है । A Blank Slate । या पट्टी या मिटटी का लौंदा । उसे पर जो कुछ भी लिखा जाता है वह दैनंदिन के अनुभवों द्वारा लिखा जाता है। मनुष्य की स्वयं की कोई प्रकृति नहीं होती । There is nothing as Human nature. । जो कुछ है संस्कृति और इतिहास है ।

दोनों विचारधाराओं का इतिहास पुराना है ।

Nature प्रकृति भारतीय मनीषा में आनुवंशिकता को महत्व जरूर दिया गया लेकिन वह संयत था । अतिवादी नहीं ।

“नीम य मीठो होय , सींचेऊ गुड़ घी से”

वंशानुगत बीमारियों के बारे में जान जान कर हमारे यहाँ परम्परा विकसित हुई की रिश्तों में विवाह नहीं होना चाहिये । सात पीढ़ी तक एक गोत्र । संबंध की मनाही थी ।

मानव स्वाभाव में कुछ है जो बदला नहीं जा सकता इसे स्वीकार किया जाता था ।

“स्वाभावों नोपदेशेन शक्यते कर्तुम अन्यथा ।।

सुतप्तमणि पानीयं पुनर्गच्छति शीत ताम ।।

उपदेश से स्वभाव को बदला नहीं जा सकता , भली प्रकार गरम किया हुआ, खौलता हुआ, पानी फिर ठंडा हो जाता है ।

लोक कथाओं में इंसानी समझ की अच्छी झलक मिलती है । एक राजा के पास प्रिय तोता था । तोते ने कहा राजन मुझे एक सप्ताह के लिए मेरे देश जाने दो, बहुत याद आ रही है । वहाँ से मैं आपके लिए अमृत फल लाऊंगा जो वृक्ष पर केवल एक बार फलता है । तोता चला गया । लौटते समय राह में थक कर वह एक वृक्ष पर सो रहा था । एक सांप ने उस फल को डस लिया । महल लौट कर तोते ने राजा को फल दिया, खाने के लिए । लेकिन मंत्री ने रोका, कहा इसे पहले कुत्ते को चखाते हैं । कुत्ता मर गया । राजा ने गुस्से में आकर तोते को मरवा दिया । और फल को दूर जंगल में फिकवा दिया । अनेक वर्षों बाद वहाँ एक पेड़ उगा जिस पर मात्र एक फल लगा । एक वृद्ध राहगीर ने उसे खाया । वह जवान हो गया । सन्देश यह कि बीज की मूल प्रवृत्ति नही बदलती, भले ही बाह्य आवरण बदल जाए, वातावरणीय कारणों से ।

भारतीय धर्म शास्त्रों में चार वर्ण माने गए हैं । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र । कहीं लगता है कि है इन्हें जन्मजात माना गया है तो कहीं ऐसा भी पढ़ने में आता है कि मनुष्य अपने कर्म के आधार पर इन्हें धारण कर सकता है ।

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वर्ण- व्यवस्था में वंश या कुल प्रधान नहीं ।। कर्म प्रधान है ।। अकर्म करने से उच्च कुल में जन्म लेने वाला भी पतित हो जाता है और श्रेष्ठ कर्म करने वाले तथाकथित नीच कुल में जन्म लेने वाले भी उच्च बनते हैं ।

वस्तुतः कोई कुल न तो उच्च है और न नीच । जिस वंश में श्रेष्ठ परम्पराए प्रचलित रहती हैं, सत्कर्म होते हैं, सज्जन और सेवा भावी सत्पुरुष उत्पन्न होते हैं, उन्हीं को ब्रह्म वंश कह कर सम्मानित करते हैं और जहाँ निकृष्ट परम्परायें चल पड़ती हैं, कुकर्म होते हैं और दुष्ट दुर्गुणी जन्मते हैं, वही नीच कुल कहा जाता है ।

यह परम्पराएँ बदलने पर वंश की उत्कृष्टता निकृष्टता भी बदल जाती है । वर्ण- व्यवस्था जन्म के आधार पर नहीं कर्म के माध्यम से ही बनी है ।

एकवर्ण मिदं पूर्व विश्वमासीद् युधिष्ठिर ।।

कर्म क्रिया विभेदन चातुर्वर्ण्यं प्रतिष्ठितम् ।।

सर्वे वै योनिजा मर्त्याः सर्वे मूत्रपुरोषजाः ।।

एकेन्दि्रयेन्द्रियार्थवश्च तस्माच्छील गुणैद्विजः ।।

शूद्रोऽपि शील सम्पन्नों गुणवान् ब्राह्रो भवेत् ।।

ब्राह्रोऽपि क्रियाहीनःशूद्रात् प्रत्यवरो भवेत् ।।

(महाभारत वन पर्व)

पहले एक ही वर्ण था पीछे गुण, कर्म भेद से चार बने । सभी लोग एक ही प्रकार से पैदा होते हैं। सभी की एक सी इन्द्रियाँ हैं । इसलिए जन्म से जाति मानना उचित नहीं हैं । यदि शूद्र अच्छे कर्म करता है तो उसे ब्राह्मण ही कहना चाहिए और कर्तव्यच्युत ब्राह्मण को शूद्र से भी नीचा मानना चाहिए ।

क्षत्रियात् जातमेवं तु विद्याद् वैश्यात् तथैव च ॥ (मनुस्मृति)

आचारण बदलने से शूद्र ब्राह्मण हो सकता है और ब्राह्मण शूद्र । यही बात क्षत्रिय तथा वैश्य पर भी लागू होती है ।

आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः ।। (वशिष्ठ स्मृति)

आचरण हीन को वेद भी पवित्र नहीं करते ।।

वेदाध्ययनमप्येत ब्राह्मण्यं प्रतिपद्यते ।।

विप्रवद्वैश्यराजन्यौ राक्षसा रावण दया ।।

शवृद चांडाल दासाशाच लुब्धकाभीर धीवराः ।।

येन्येऽपि वृषलाः केचित्तेपि वेदान धीयते ।।

शूद्रा देशान्तरं गत्त्वा ब्राह्मण्यं श्रिता ।।

व्यापाराकार भाषद्यैविप्रतुल्यैः प्रकल्पितैः।। (भविष्य पुराण)

ब्राह्मण की भाँति क्षत्रिय और वैश्य भी वेदों का अध्ययन करके ब्राह्मणत्व को प्राप्त कर लेता है । रावण आदि राक्षस, श्वाद, चाण्डाल, दास, लुब्धक, आभीर, धीवर आदि के समान वृषल (वर्णसंकर) जाति वाले भी वेदों का अध्ययन कर लेते हैं । शूद्र लोग दूसरे देशों में जाकर और ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि का आश्रय प्राप्त करके ब्राह्मणों के व्यापार, आकार और भाषा आदि का अभ्यास करके ब्राह्मण ही कहलाने लगते हैं ।

जातिरिति च । न चर्मणो न रक्तस्य मांसस्य न चास्थिनः । न जातिरात्मनो जातिव्यवहार प्रकल्पिता । (निरावलम्बोपनिषद्)

जाति चमड़े की नहीं होती, रक्त, माँस की नहीं होती, हड्डियों की नहीं होती, आत्मा की नहीं होती । वह तो मात्र लोक- व्यवस्था के लिये कल्पित कर ली गई ।

अनभ्यासेन वेदानामाचारस्य च वर्जनात् ।।

आलस्यात् अन्न दोषाच्च मृत्युर्विप्रान् जिघांसति।। (मनु.)

वेदों का अभ्यास न करने से, आचार छोड़ देने से, कुधान्य खाने से ब्राह्मण की मृत्यु हो जाती है ।।

अनध्यापन शीलं दच सदाचार बिलंघनम् ।।

सालस च दुरन्नाहं ब्राह्मणं बाधते यमः ।।

स्वाध्याय न करने से, आलस्य से ओर कुधान्य खाने से ब्राह्मण का पतन हो जाता है ।

दुर्भाग्य से मध्ययुग तक आते आते औपनिवेशिकता के दमन कारी तनावों के कारण हमारी जाति व्यवस्था विकृत और जड़ होती गई । आभिजात्य कुलीन, सामंत, राजे राजवाड़े अपने आप को श्रेष्ठ खून का मानते थे । उस समय जीन्स की कल्पना नहीं थी । मनुष्य के गुणों के आधार पर उन्हें सतोगुणी, रजोगुणी और तमोगुण में वर्गीकृत किया जाता था ।

प्राचीन यूनान में प्लेटो का मानना था कि मानव प्रजनन पर राज्य का नियंत्रण होना चाहिए ताकि सर्वश्रेष्ठ संताने जन्म लेवें । अच्छी गुणवत्ता वाले स्त्री-पुरुषों में संसर्ग कराया जाना चाहिए । पुराने रोमन साम्राज्य में कमजोर शिशु मरवा दिए जाते थे । वरिष्ठ दार्शनिक सेनेका ने सफाई देते हुए कहा था कि ऐसे शिशुओं का वध, तर्क-संगत है ताकि मूल्यवान और मूल्यहीन में भेद हो सके ।

इतिहास में ऐसे लोगों का बोल बाला रहा जो प्रकृति या Nature को अधिक बलशाली मानते रहे । ये डायलाग हमने खूब सुने हैं । ये हमारे खानदानी गुण हैं । “हमारी रगों में हमारे पुरखों का खून बह रहा है ।” “माँ जैसी बेटी, गेहूं जैसी रोटी”, “बाप जैसा बेटा, “सवार का घोडा, पूरा न सही पर थोडा थोडा” । अपनी जाति, नस्ल, कबीले को श्रेष्ठ मानने की परंपरा रही। संतानों के चेहरे में माँ-पिता, और अन्य परिजनों के रंग रूप ढूंढे जाते रहे। स्वभावगत गुणों और दुर्गुणों का चलन पीढ़ी दर पीढ़ी दर्शाया जाता रहा। अपने से इतर अन्य जातियों के लिए अपमान जनक शब्दों का प्रयोग होता रहा – मलेच्छ, अनार्य, असुर, वनवासी, अश्वेत, यहूदी, अछूत । भेदभाव, शोषण और अत्याचार का आधार जातिगत नस्लगत शुद्धता-अशुद्धता बनता रहा । लांछन, व्यंग्य, और चुटकुले चलते रहे ।

18वीं-19वीं शताब्दी में जब यूरोपीय देशों के गोरे लोगों द्वारा एशिया, अफ्रीका और अमेरिका में उपनिवेश बनाए गए तो वहां के मूल निवासियों को निष्कृष्ट कोटि का माना गया । गोरों ने स्वयं पर जिम्मेदारी ओढ़ी कि दुनिया को सभ्य बनाने का काम उन्हें ईश्वर ने दिया है । White man’s burden. (Not women’s burden) । स्त्रियां चाहे काली हो या गोरी उनका स्थान पुरुष के नीचे था । नस्लीय भेदभाव पर वैज्ञानिकता का मुलम्मा चढ़ाया जाता था । दास प्रथा स्वयं दासों के लिए लाभदायक है, यह जताया जाता था ।

डार्विन का विकासवाद केवल बायोलॉजी के लिए था । वनस्पति और प्राणियों में नई-नई स्पीशीज के उद्गम के बारे में । Origin of Species । हबर्ट स्पेंसर ने उसे समाजशास्त्र पर लागू किया । गलत किया । (Social Darwinism) उसने कहा कि कमजोर वर्ग के लोगों को सुधारने की कोशिश मत करो । मानव जाति का विकास अवरुद्ध होगा । राकफेलर और एंड्रू कार्नेगी जैसे अरबपति इस विचारधारा के समर्थक थे ।

आधुनिक युग में यूजेनिक्स विचारधारा के प्रणेता थे सर फ्रांसिस गाल्टन (1822-1911), डार्विन के कजिन लगते थे । डार्विन की कालजयी पुस्तक Origin of species पढ़ने के बाद गाल्टन मानने लगे थे कि अन्य प्राणियों की तुलना में Homo Sapience की श्रेष्ठता के विकास में एक बाधा है – “मानव संस्कृति” जो कमजोर सदस्यों को भी सहानुभूति के साथ बचाती है । इस चक्कर में समाज की औसत गुणवत्ता घटती जाती है । अपनी पुस्तक Heredetary Genius में गाल्टन ने लिखा कि प्रतिभा और योग्यता खानदानी गुण होते हैं । जिस तरह कुत्ते और घोड़े की अच्छी नस्लों के बीच ब्रीडिंग करवा कर और भी बेहतर प्राणी पैदा किए जाते हैं, वैसे ही अनेक पीढ़ियों तक यदि विवाह संबंधों को ठीक से चुना जावे तो मानव जाति को उच्च कोटि का बनाया जा सकता है ।

“Nature and Nurture” तथा “Eugenics” शब्द गाल्टन द्वारा पहली बार काम में लाये गये थे । ग्रीक भाषा में Eugenics का अर्थ होता था “Good in Stock” “अच्छी सामग्री” । गाल्टन और उसके शिष्य कार्ल पीअर्सन को सांख्यिकी (Statistics) की अच्छी समझ थी ।

यूजेनिक्स के दो प्रकार : सकारात्मक यूजेनिक्स में बेहतर गुण वाले स्त्री पुरुषों को अधिक संतान पैदा करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है । नकारात्मक यूजेनिक्स में खराब गुण वाले स्त्री पुरुषों को संतान पैदा करने से रोका जाता है । यह सोच अमेरिका व यूरोप में लगभग 50 वर्षों तक हावी रही (1890-1940) । इसकी सबसे घृणित परिणीति हिटलर के नाजी जर्मनी में देखी गई जहां लाखों यहूदियों का नरसंहार किया गया और लाखों विकलांगों, मंदबुद्धि, बीमार, जिप्सी आदि की जबरन नसबंदी कर दी गई । डॉक्टरों ने अमानवीय प्रयोग किये ।

आश्चर्य की बात है कि उस युग से लेकर आज तक अनेक सम्मानित लोग यूजेनिक्स के समर्थक थे – एलेग्जेंडर ग्राहम बेल, जॉन मेनार्ड कीन्स, फ्रांसिस क्रिस, थियोडोर रूजवेल्ट, मार्गरेट सेंगर (Planned Parenthood की संस्थापक), जूलियस हक्सले आदि ।

अनेक गोरे देशों में आव्रजन पर कठोर नियंत्रण रखा जाता था, अन्यथा चिंता रहती थी कि निम्न कोटि की नस्ल वाले Immigrants की अधिकता होने से राष्ट्र का Gene-Pool विकृत हो जाएगा ।

अनेक विचारकों का मानना है कि अच्छी जींस राष्ट्रीय प्राकृतिक संसाधन (Natural Resources) के समान होती है । नोबेल पुरस्कार विजेता, DNA की संरचना के खोजकर्ता, Human Genome Project के निर्देशक जेम्स वाटसन के अनुसार यदि संततियों को श्रेष्ठतर बनाने की विश्वसनीय और हानिरहित विधियाँ उपलब्ध हो गई तो उनके उपयोग को रोक पाना संभव नहीं होगा । जिनेटिक स्क्रीनिंग के माध्यम से यदि कमजोर बीमार बच्चों को पैदा होने से रोका जा सके तो वह सकारात्मक यूजीनिक्स का उदाहरण होगा ।

 

Blank slate या कोरी पट्टी तथा वातावरण को महत्व देने वाली सोच का इतिहास भी पुराना है ।

भारतीय वांग्मय में अनेक उदाहरण मिलते हैं । पंडित विष्णु शर्मा ने पंचतंत्र की कहानियाँ राजा के उद्दंड पुत्रों को सुधारने के लिए लिखी थीं ।

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जुड़वाँ तोतों सुकंठी और सुपंखी की कहानी में वातावरण की महत्ता दर्शायी गई है। एक तोता डाकुओं के घर में पला । उसने बोलना सीखा – मारो, काटो, लूटलो । दूसरा तोता मुनि के आश्रम में पला । उसने बोलना सीखा – आइये बन्धु, तनिक आराम कर लीजिये । भोजन पानी लीजिये ।

¨ अरस्तु ने DeAnima (आत्मा के बारे में) में लिखा “मन वह सब कुछ है जो सोचा जा सकता है, पर वास्तव में कुछ नहीं है जब तक कि सोचा न गया हो” ।

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¨ संत थामस एक्विनास (Summa Theologica) “मानव मेधा एक कोरी टेबलेट के समान है जिस पर बहुत कुछ लिखे जाने की संभावनाएं हैं ।”

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¨ मध्य युग में शब्द आता है Tabula Rasa (खाली टेबलेट)

¨ जाँन लाक (1632-1704) ने कहा – मन एक सफ़ेद कागज़ के समान है, जिस पर कुछ नहीं लिखा है, कोई विचार नहीं है । फिर यह सब कहाँ से आता है। एक शब्द का उत्तर है ‘अनुभव’ ।

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दूसरे विश्व युद्ध के बाद जब गोरे यूरोपीय देशों के नस्लवादी कारनामे उजागर हुए तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संयुक्त राष्ट्र संघ और UNESCO द्वारा “मानव अधिकार घोषणा पत्र” तैयार किया गया जिसमें Eugenics की घोर भर्त्सना की गई । मानव मात्र की समानता को आदर्श मात्रा मानते हुए नस्ल, जाति, रंग, धर्म, राष्ट्रीयता आदि को नकारा गया । लेकिन फिर भी चोरी छुपे छद्म नाम से अनेक वैज्ञानिक इस क्षेत्र में शोध व Marriage Counseling करते रहे हैं ।

Nature या आनुवंशिकी में लगभग 100 प्रतिशत विश्वास करने वालों की कुत्सित सोच के विरुद्ध प्रतिक्रिया हुई – बीसवी सदी के उत्तरार्ध से शुरू होकर आज तक प्रतिकार वाली सोच का बोलबाला रहा है । जिसके अंतर्गत निम्न सिद्धांत लोकप्रिय होकर अधि-मान्य हैं । Standard Social Science Theory, Critical Race Theory, Social Justice, Intersectionality, Its extrapolation to Indian caste system, Another kind of identity politics, Abelism, Meritocracy का विरोध । इन सिद्धांतों को भारतीय जाति प्रथा पर थोपा जा रहा है जो कि मेरे अनुसार गलत है ।

इन लोगों ने भी अति कर दी है ।

They deny “Human Nature” ये लोग मानव प्रकृति को पूरी तरह से नकारते हैं । नयी वैज्ञानिक खोजों और तथ्यों की अनदेखी करते हैं, उसके बारे में चर्चा भी नहीं होने देना चाहते । आज के व्याख्यान में इस अति के विरुद्ध भी मैं चर्चा करूँगा ।

कोरी पट्टी में विश्वास करने वाले लोग हवाला देते हैं : भेदभाव, शोषण, गरीबी और victimhood का । वे मानते हैं कि बायोलॉजिकल विज्ञान जीवन को मूल्यहीन बना देता है । सिर्फ भौतिकवाद । सिर्फ पदार्थ । जिसमें कोई आत्मा/रूह/spirit ना हो ।

रूढ़िवादी धार्मिक लोग तथा प्रगतिशील, उदार, नास्तिक लोग दोनों ऐसा मानते हैं । यह विज्ञान का दुर्भाग्य है । ऐसा क्यों ?

क्योंकि विज्ञान रिडक्शनिस्म के द्वारा उन मूल्यों के फुगावे को फुस्स करके रख देता है जिनके हम महत्वपूर्ण मानते हैं ।

एक मां अपने बच्चों को प्यार क्यों करती है ?

क्योंकि ऑक्सीटोसिन हार्मोन उससे यह करवाता है ताकि बच्चों में मौजूद माता की जींस जीवित रह कर आगामी पीढ़ियों में पहुंचती रहे । स्वार्थी जींस । “छी कितनी गन्दी व्याख्या ।”

“कहां मां का वात्सल्य, ममत्व और कहां यह स्वार्थपरक व्यवहार जो यांत्रिक और रासायनिक उपायों से संचालित है”।

लेकिन ऐसा नहीं है । स्वार्थी जींस द्वारा बहुत कुछ समझाया जा सकता है । माता-पिता के प्रति आदर और जिम्मेदारी, बच्चों से प्यार आदि । सब कुछ । प्रकृति अपनी जगह रहेगी ।

मेंढक और बिच्छू की कहानी । बिच्छू ने मेंढक से कहा “मुझे अपनी पीठ पर बैठा कर यह नदी पार करवा दो । मेंढक ने कहा “वादा करो की मुझे बीच धार में काटोगे नहीं।” बिच्छु ने कहा – “वादा रहा” । लेकिन उसने मेंढक को काट ही लिया । दोनों डूबने लगे। मेंढक ने पूछा ऐसा क्यों किया । बिच्छु ने कहा – क्या करूँ, यह मेरी प्रकृति है ।

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एक और कहानी । एक ब्राह्मण पानी में डूबते हुए बिच्छू को निकलने का बार बार प्रयास कर रहा था । बिच्छू बार बार काटता और पानी में गिर जाता । पूछे जाने पर ब्राह्मण ने कहा “जब वह अपनी अदना सा प्राणी अपनी प्रकृति नहीं छोड़ सकता तो मैं भला कैसे अपनी प्रकृति छोड़ दूँ ।

ऐसा ही कुछ मनुष्यों के साथ है । अच्छा और बुरा दोनों । बड़ी मछली छोटी मछली को खाती है । शक्तिशाली मनुष्य कमजोर का शोषण करता है ।

परमार्थ और भाई-भतीजावाद दोनों साथ साथ चलते हैं ।

हम स्वार्थी जींस की कठपुतलियां नहीं है ।

हमारी जटिल भावनाएं और तदनुसार व्यवहार, लाखों वर्षों में गढ़े गये हैं जिसे आकार देने में जींस की महत्वपूर्ण भूमिका रही है ।

विज्ञान की प्रगति के साथ समाज शास्त्र तक अनेक पुल

यह सही है कि 20वीं सदी के पूर्वार्ध तक प्राकृतिक विज्ञानों में काफी प्रगति हो चुकी थी । फिर भी समाजशास्त्र (Sociology) द्वारा निर्मित एक खाई खाड़ी हुई है । खाई किसके बीच ? पदार्थ और मन के बीच, भौतिक और आध्यात्मिकता के बीच, बायोलॉजी और संस्कृति के बीच, प्रकृति और समाज के बीच । एक तरफ Natural Science है, दूसरी तरफ Social sciences जिनकी तीन प्रमुख अवधारणाएं हैं –

  1. Blank slate कोरी पट्टी
  2. Noble Savage – आदर्श आदिमानव जिसे टेक्नोलॉजी और तथाकथित विकास में भ्रष्ट नहीं किया है
  3. Ghost in the machine – आत्मा या कुछ सूक्ष्म चेतना जो भौतिक से परे हो ।

बीसवी और इक्कीसवी सदी की वैज्ञानिक प्रगति के कारण उक्त खाई का तथा उसकी तीन अवधारणाओं का पटना शुरू हो चुका है ।

खुशी की बात है कि Natural Science के निकट संपर्क में आकर Social Science की व्याख्याएं बेहतर हो रही है ।

मन और पदार्थ की खाई पर पहला पुल : न्यूरोलॉजी

जिसने चेतना या Consciousness को Physics और Chemistry की भाषा में समझाया और मशीन में किसी भूत या आत्मा के होने की संभावनाओं की झाड फूंक कर दी ।

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ब्रेन के चप्पे चप्पे पर झंडे  गड़ते गए – यहां भाषा है, यहां स्मृति, यहां ध्वनियाँ, यहां दृश्य ।  पट्टी कोरी कहां है । कितने सारे जटिल सर्किट जन्म से उकेरे हुए होकर आते हैं ।

बायोलॉजी और कल्चर के मध्य खाई का दूसरा पुल : Cognitive Neuroscience (संज्ञानात्मक न्यूरो विज्ञान)

समाज विज्ञान में Mind या मन की परिकल्पना मात्र से परहेज हुआ करता था । जो कुछ है मनुष्य का व्यवहार है या संस्कृति ।

मन या माइंड की वैज्ञानिक समझ बढ़ी है । मानस की भौतिक व्याख्या पुख्ता हो रही है ।

मन कोरी पट्टी नहीं हो सकता । मन कितना कुछ कर सकता है । कोरी पट्टी कुछ नहीं कर सकती । कोरी पट्टी पर समाज-संस्कृति-इतिहास जो भी लिखेगा, उसे पढ़ने समझने वाला ऑपरेटिंग सिस्टम पहले से लोडेड होना जरूरी है । ऑपरेटिंग सिस्टम के वर्जन अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन वह 0.0 कभी नहीं । कोरी पट्टी अपने आप कुछ नहीं सीख सकती । बीज को हवा, पानी, खाद सब दे दो लेकिन जमीन सबसे पहले चाहिए । जमीन जो निर्गुण या कोरी नहीं वरन अनेक संसाधनों से युक्त soil होना चाहिए । तरह-तरह की soil में तरह-तरह के बीज रोप कर एक समृद्ध जंगल बनाया जाता है । मन मस्तिष्क के Pre-loaded operating system में विभिन्न इकाइयों को अलग-अलग डिजाइनों में जोड़कर अनंत रचनाएं गढ़ने की सामर्थ होती है ।

प्रसिद्ध भाषाविद नोआम चाम्सकी द्वारा प्रतिपादित यूनिवर्सल जेनरेटिव ग्रामर (Universal Generative Grammer) के अनुसार कुछ हजार शब्दों का एक कोश और व्याकरण के तीन चार दर्जन नियमों के आधार पर लाखों करोड़ों अपूर्व वाक्य बनाए जा सकते हैं ।

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इस सोच की आरंभित झलक हमारे यहां पाणिनि की अष्टाध्याई में देखी जा सकती है । दुनिया भर की संस्कृतियों की तमाम भिन्नताएं, माइंड के pre loaded operating system के सीमित algorithms द्वारा पैदा होना संभव है ।

बायोलॉजी और मानसिक के बीच खाई पर तीसरा पुल – Behavioural Genetics (व्यवहार अनुवांशिकी) –

जुड़वा identical twins पर शोध में सिद्ध हुआ है कि मानव व्यवहार, व्यक्तित्व और भावनाओं के संबंध में पाई जाने वाली भिन्नताओं का आधार जिनेटिक्स ही है ।

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जैसे कि आर्टिज्म, डिस्लेक्सिया, हाइपर एक्टिविटी, अटेंशन डिफिसिट, बाइपोलर रोग, शिजोफ्रेनिया, भाषागत दोष, गंभीर डिप्रेशन, मंदबुद्धिता , ओसीडी, यौन इच्छा, होमो सेक्सुअलिटी आदि ।

समरूपी जुड़वा की समानताएं तब भी बनी रहती है जबकि उन्हें जन्म से अलग-अलग घरों में पाला जाता है । गोद लिए जाने वाले बच्चों के गुण उनके माता-पिता और सगे भाई बहनों से अधिक मिलते हैं बजाय कि गोद लेने वाले माता-पिता या उनके बच्चों से ।

बुद्धिमत्ता (IQ), हिंसात्मकता, शांतिप्रियता, आर्थिक स्वार्थ की समझ, नशे की लत लगने की आशंका, एथेलेटिक क्षमता, संगीतात्मकता, कलात्मकता, व्यक्तिगत-स्वभाव आदि अनेक गुणों पर जीन्स का अच्छा ख़ासा प्रभाव प्रमाणित हुआ है ।

कुछ जींस खास तौर से पहचानी गई है जिनका मानसिक स्वास्थ्य और व्यवहार पर सुनिश्चित प्रत्यक्ष असर दिखाई पड़ता है । हटिंगटन रोग जीन और फॉक्स P2 जीन (भाषा विकास) ।

लेकिन अधिकांश मामलों में अनेकानेक जींस के लघु लघु प्रभाव (जो धनात्मक तथा ऋणात्मक हो सकते हैं) मिलकर किसी अवस्था के होने या ना होने की संभावनाएं को बढ़ाने या घटाते हैं। Polygenic Inheritance ।

निसंदेह इसमें वातावरण के साथ मिल जुलकर क्रिया होती है । Multifunctional inheritance जींस का प्रभाव व्यक्तित्व के निम्न पहलुओं पर भी पड़ता है – अंतर्मुखी या बहिर्मुखी, न्यूरोटिक या स्थितप्रज्ञ, उत्सुक या बोर, मित्रवत या झगड़ालू, आदर्शवादी या स्वार्थी ।

साइकोपैथी व्यक्तियों को कितना ही अच्छा वातावरण और परवरिश प्रदान करो उनकी मूल प्रवृति नहीं सुधरती ।

पिछले 10 वर्षों में नयी तकनीक द्वारा जेनेटिक शोध में क्रांति आई है । एक चम्मच लार /थूक /सलाइवा को लैब में भेज कर Genome Wide Association चीन्ह लिए जाते हैं । सस्ते में होने लगे हैं ।

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हजारों टुकड़ों वाली जिगसॉ पजल के पीसेस जल्दी-जल्दी फिट होने लगे हैं ।

ज्योतिष की जन्म कुंडली में गिने-चुने घरों में गिने-चुने ग्रह बैठे रहते हैं । जेनेटिक कुंडली में हजारों घर, हजारों कांबिनेशंस,  करोड़ Base Pairs – सैकड़ो बीमारियां या साइकोलॉजी की प्रवृत्तियां । Big Data और AI के बूते पर काम तेज हो रहा है ।

व्यवहार अनुवांशिकी Behavioural Genetics के तीन नियम

  1. All human behavioural traits are heritable – मानव व्यवहार की समस्त प्रवृत्तियों पर अनुवांशिकता का प्रभाव रहता है (कम या ज्यादा) (100% कभी नहीं)
  2. एक ही परिवार एक ही वातावरण में परवरिश का मानव व्यवहार पर कम असर पड़ता है, बजाय कि जींस के
  3. जटिल व्यवहारों में पाए जाने वाले अनेक भेद, प्रायः जींस और पारिवारिक वातावरण दोनों के द्वारा नहीं समझे जा सकते ।

संस्कृति और बायोलॉजी के मध्य खाई के ऊपर चौथा पुल – इवोल्यूशनरी साइकोलॉजी (विकासवादी मनोविज्ञान)

जिंदा रहने और अपनी संततियों का प्रजनन करने के लिए जब स्वार्थी जींस ऐसी ऐसी स्पीशीज गढ़ती जाती है जो बदलते हुए कठिन वातावरण में जिंदा रह सके तो उसकी परिणति उत्तम आंखों, हृदय, फेफड़े, लीवर और मस्तिष्क तक पहुंचकर रुक नहीं जाती । मस्तिष्क और मन के माध्यम से मनोविज्ञान/psychology का विकास भी survival of fittest की जद्दोजहद का हिस्सा है ।

इस जटिल मनोविज्ञान की भावभूमि हमारी पट्टी पर जन्म से मौजूद रहती है । आप में से किनकी एक से अधिक संताने है ? क्या आपने नन्हें शिशुओं के स्वभाव में आरंभ से ही कुछ अंतर नोटिस किये थे या नहीं ?

Anthropologist अर्थात नृविज्ञानी दुनिया भर की मानव कबीलों की संस्कृति का अध्ययन करते हैं । झाबुआ के भील, मंडला के गोंड, मेघालय के खासी, अंडमान के जरवा, अमेजॉन के कबीले । डोनाल्ड ब्राउन ने एक सूची तैयार करी है – Human Universals जो समस्त सभ्यताओं और संस्कृतियों में अनिवार्य रूप से पाए जाते हैं जबकि उनका इतिहास, भूगोल, वातावरण आदि इतने भिन्न होते हैं ।

¨ रोमांटिक प्यार ¨ सौंदर्य की चाहत ¨ कविताई कथोपकथन ¨ नृत्य संगीत ¨ मृत्यु का भय ¨ शोक ¨ अंधविश्वास ¨ तर्कशीलता ¨ खोजपरकता ¨ बीमार की सेवा ¨ दुखी को सहारा ¨ जैसे को तैसा ¨ स्वार्थ ¨ परमार्थ ¨ दादागिरी ¨ दासता

अनेक संस्कार, गोदना, खिलौने स्पोर्ट्स, स्त्री पुरुष भेद, युवा-वृद्ध भेद, पीढ़ी भेद, विवाह संस्था,  नामकरण, वर्गीकरण आदि आदि ।

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अनेक गुण वातावरण से प्रभावित हो सकते हैं लेकिन कोरी पट्टी के चलते उनका होना संभव नहीं है । उच्च कोटि के प्राइमेटस जैसे कि चिंपांजी, जो हमारे साथ 95% डीएनए का साझा करते हैं, उनमें भी अनेक ह्यूमन यूनिवर्सल पाए गए हैं जबकि उनके पास संस्कृति नहीं होती जैसे कि – स्थान बोध, औजार का उपयोग, ईर्ष्या, बच्चों का प्यार, बदले की भावना, शांति की चाहत, नर मादा में भेद आदि ।

विकासवादी मनोविज्ञान (Evolutionary psychology) ने Nobel Savage की कल्पना को ध्वस्त कर दिया है । जिंदा रहने के संघर्ष में आदर्शवादी, भोला भाला, शांतिप्रिय, न्यायप्रिय, प्रकृतिप्रेमी, समतावादी, आदिमानव फिट नहीं बैठता । एक रोमांटिक परिकल्पना जो रूसो से लेकर आधुनिक फिलॉस्फर्स , समाजशास्त्री और नृविज्ञानी को प्रिय रही लेकिन पुरातात्विक प्रमाणों पर भी खरी नहीं ठहरती । अंग्रेजी कवि लॉर्ड टेनिसन का वाक्यांश की Nature is Red in tooth and claw, मानव पर भी लागू होता है

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(दांतों और पंजों में प्रकृति लाल है) प्रागैतिहासिक काल के मानव कंकालों के अध्ययन से पता चलता है कि मानव द्वारा हिंसा के चिन्ह बड़े प्रतिशत में पाए गए हैं । यूरोपीय उपनिवेशियों द्वारा वनवासियों, मूल निवासियों को जंगली, बर्बर, असभ्य मानकर उनका शोषण और नरसंहार किया गया । उन्हें दास बनाया गया । शायद इस अपराध बोध के कारण White Man’s Burden का स्थान White Man’s Shame ने ले लिया और भोले भाले शांतिप्रिय, आदिमानव का सिद्धांत लोकप्रिय हुआ । लेकिन प्रमाणों के आधार पर यह गलत है । किसी भी समाज का समूह नाश हर स्थिति में गलत है, चाहे वे हिंसक हो या मित्रवत ।

डार्विनियन मनोविज्ञान ने न केवल “भले आदिमानव” की मूर्ति खंडित करी बल्कि उसे मूर्ति के अंदर प्राण प्रतिष्ठित “आत्मा, अंतरात्मा, प्रेम, स्वतंत्र, इच्छा” आदि संकल्पनाओं का भी खंडन किया जिनके बारे में अन्यथा माना जाता रहा है कि “महज बायोलॉजिकल और भौतिक” प्रक्रियाओं के बल पर भला ऐसी उद्दात और उच्च गुण कैसे समझ जाएंगे। जरूर अंदर और “कुछ होना” चाहिए The ghost in the machine has been exorcised

कोरी पट्टी की फिलासफी वालों द्वारा कुछ और तर्क दिए जाते हैं ।

  1. मानव जीनोम में जींस की कुल संख्या का पहले से अनुमानों से बहुत कम पाया जाना। “देखो देखो इतनी कम जींस (22000) से भला कोरी पट्टी को कैसे भरा जा सकता है ?” मेरे अनुसार कुल संख्या महत्वपूर्ण नहीं है, वे जींस कैसे काम करती है यह समझना जरूरी है । यह काम हो रहा है ।
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  3. आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस – (न्यूरल नेटवर्क्स ) यदि AI को फीडबैक द्वारा बनाया जा सकता है तो मानव मन को क्यों नहीं ?

       मेरे अनुसार शुन्य में शुन्य ही पैदा होता है । मस्तिष्क की जटिलता की कहीं से तो शुरुआत होनी ही होगी । न्यूरल नेटवर्क द्वारा कोरी पट्टी के बजाय pre loaded mind की कार्य प्रणाली को समझने में जरुर मदद मिली है ।

  1. न्यूरो प्लास्तिसिटी – यह सही है कि मस्तिष्क में अनुभवजन्य परिवर्तन होते हैं – प्रायः सूक्ष्म स्तर पर और कभी-कभी गूढ़ स्तर पर भी । इसमें नया कुछ नहीं है । कोरी पट्टी को पट्टी का बनाने से कुछ सिद्ध नहीं होता ।
  2. Epigenetics – एपीजिनेटिक्स (अधी-आनुवंशिकी) और कोरी पट्टी वालों द्वारा उसका हवाला । हमारे शरीर की प्रत्येक कोशिका में लगभग 22000 जींस रहती है । इन सबको सब जगह, सब समय सक्रिय रहने की आवश्यकता नहीं होती । कोई सोती है, कोई जागती है । किसी का बटन बंद रहता है, किसी का चालू हो जाता है । सही टिशु में सही समय की दरकार होती है । हमारे DNA की फाइन ट्यूनिंग के लिए कोशिकाओं में अनेक जटिल प्रणालियाँ होती है । शाब्दिक अर्थ है “जेनेटिक्स के ऊपर या अतिरिक्त” डी.एन.ए. की कल्पना आर्केस्ट्रा के एक लिखित स्कोर से करिए

       जिसे शायद बीथोवन या मोजार्ट ने कभी लिखा होगा । वाद्यवृन्द का नेता (Conductor) अपने हिसाब से उसमें अनेक Notations + Anotations जोड़ लेता है । प्रत्येक performance में कुछ भिन्नता होती है । एक ही रेसिपी और भिन्न शेफ, एक राग, अनेक गायक, ताश के पत्तों का एक सेट, अनेक खिलाडी, एक उपन्यास अनेक पटकथाएं (देवदास), एक सॉफ्टवेयर कोड, अनेक applications, एक शब्दकोश, अनेक कहानियाँ । इसी तरह मूल डीएनए वही रहता है लेकिन उसकी सक्रियता, मुखरता घटती बढ़ती रहती है ।

समाज शास्त्र द्वारा प्राकृतिक विज्ञानों को आत्मसात करने की जरूरत

बीसवी सदी का उत्तरार्ध शुरू होते-होते सोशल साइंस द्वारा अनेक कुत्सित विचारधाराओं का सफल दमन कर दिया गया था – स्त्री पुरुष भेद, पुरुष सत्तात्मकता, नक्सलवाद, गोरे काले का भेद के साथ, भेदभाव आदि ।

लेकिन इसी के सामानांतर अनेक क्षेत्रों में वैज्ञानिक प्रगति के कारण (कोरी पट्टी +  आदर्श आदि मानव + मानव मशीन में कोई शक्ति) की अवधारणाओं पर संदेह उठने लगे थे ।

समझदारी इसी में होती कि विज्ञान के विकास को सहज भाव से स्वीकार किया जाता । तथ्यों व प्रमाणों के आधार पर पुरानी थ्योरी को अस्वीकृत किया जाता । Human Nature के वैज्ञानिक आधारों को मान्यता मिलती । लेकिन दुर्भाग्य कि राजनीतिक कारणों से ऐसा नहीं हो पा रहा है ।

चूहों में जो माताएं अपने बच्चों को खूब प्यार करती है, चाटती है, ध्यान रखती है, वे बच्चे बड़े होकर स्वस्थ रहते हैं, अच्छा व्यवहार करते हैं । इसके विपरीत ध्यान न रखने वाली माताओं के बच्चे घुस्सैल, चिड़चिडे होते हैं, तनाव नहीं सहन कर पाते । दोनों समूह का डीएनए एक जैसा था लेकिन जन्म के बाद मिलने वाले अनुभवों के कारण Epigenetic परिवर्तन हुए ।

इसी तरह की शोध मनुष्यों में करना मुश्किल है फिर भी माना जाता है कि जीवन के आरंभिक वर्षों में बेहतर परवरिश मिलने से डीएनए में लिखित नियति को कुछ हद तक (या शायद बहुत हद तक) बदला जा सकता है ।

स्कूल जाने के पहले के पांच वर्ष अत्यंत महत्वपूर्ण हैं । पोषण, हायजीन, साफ़ सफाई, इन्फेक्शन कंट्रोल, लाड़ प्यार पढना-लिखना चित्र बनाना, मनोरंजन, खिलोने, खेलकूद, सामाजिकता आदि का सकारात्मक असर पड़ता है ।

So far so good । यहाँ तक ठीक है । लेकिन इस generic सलाह के आगे Parenting Industry द्वारा micromanagement व्यर्थ और भ्रामक है। क्या Human Nature अपरिवर्तनशील है । शायद हाँ, शायद नहीं । शायद बहुत धीरे धीरे बदलता है । जैसा कि Steven Pinker की पुस्तक Better Angels of our nature में दर्शाया गया है । लेकिन मानव प्रकृति को पूरी तरह नकार कर उसे एक ख़ास ढांचे में ढालने की totalatarian तानाशाही कोशिशे घोर दुःख का कारण बनती हैं ।

Nurture का पक्ष लेने वाले विचारक एपिजेनिटिक का हवाला बढ़ चढ़ कर देते हैं । हालांकि मुझे इसका उल्लेख अतिरंजित लगता है । कुछ शब्द है जिनका उपयोग मिथ्या विज्ञान की श्रेणी में आने की आशंका अधिक रहती है । जैसे ‘न्यूरो’, ‘क्वांटम’, ‘नैनो’, ‘एपिजेनेटिक’ आदि। दीपक चोपड़ा जैसे लोग इस वैज्ञानिक शब्दावली का दुरुपयोग करते हुए दावे करते हैं की “मन की सोच से पदार्थ बदला जा सकता है, बीमारियां ठीक की जा सकती है” ।

एपिजिनेटिक्स के जटिल विज्ञान का अतर्कसंगत उल्लेख दक्षिण पंथी और वामपंथी दोनों समूहों द्वारा किया जाता है ।

The religious right (धार्मिक पोंगा पंथी) को मौका मिलता है चार्ल्स डार्विन की Theory of Evolution को गलत बताने का । मार्क्सवादी कहते हैं कि Human Nature जैसी कोई अवधारणा नहीं होती । जो कुछ है, भोगा हुआ यथार्थ है जिसे सुधारने के लिए क्रांति की जरूरत है ।

एपिजेनेटिक प्रक्रिया में हिस्टोन प्रोटीन का मेथिलेशन और एसिटीलेशन, एक या दो पीढ़ी से नीचे अवतरित नहीं होता है । ये परिवर्तन अस्थाई होते हैं और आसानी से परिवर्तित किया जा सकते हैं । इसलिए अनेक बीमारियों के उपचार में इसके उपयोग की अच्छी संभावना है । लेकिन किसी नई स्पीशीज के निर्माण में और नये महत्त्वपूर्ण गुणों के स्थायी निर्धारण में इनका कोई योगदान नहीं है । उसके लिए तो मूल जीनोम डीएनए चाहिए ।

नारीवाद और कोरी पट्टी

फेमिनिज्म या नारीवाद का कोरी पट्टी के विचार से साम्य हैं । इस आंदोलन से मेरा परिचय 1970 में हुआ जब Germain Greer की प्रसिद्ध पुस्तक Female Enuch मेरे हाथ लगी थी ।

उसी को आधार बनाकर मैंने एमजीएम मेडिकल कॉलेज छात्र संघ की वार्षिक पत्रिका में लेख लिखा था “स्त्रीत्व का बायोलॉजिकल सच”। तब में नहीं जानता था कि 50 वर्षों बाद मैं विपरीत विचारधारा वाला हो जाऊंगा । मेरे आगामी व्याख्यानों में से एक होगा – स्त्री पुरुष भेद – 19-20 या जमीन आसमान ?

नारीवाद की प्रथम लहर 1960 से 1970 में आई थी जो नैतिकता का तकाजा करती थी । It was a moral Doctrine. सहस्त्राब्दी के बदलने के साथ वर्तमान नारीवाद… Gender Feminism है, जो स्त्री पुरुष भेद के Binary Biological तथ्यों को पूरी तरह से नकारता है । फिफ्टी शेड्स ऑफ़ ग्रे में यकीन करता है ।

Gender को एक सामाजिक अवधारणा मानता है । सांस्कृतिक मार्क्सवादियों और उत्तर आधुनिकतावादियों के अनुसार मनुष्य की एक केंद्रीय चाहत होती है “शक्ति, पावर” जिसे हासिल करने के लिए, बचाए रखने के लिए शोषक वर्ग के सभी नुमाइंदे गोरे लोग, अमीर लोग, सवर्ण और ब्राह्मण और पुरुष वर्ग नाना प्रकार के हथकंडे अपनाते हैं । व्यक्ति रूपी इकाई के स्तर पर कुछ नहीं होता। समूहगत Dynamics काम करती है और Gender के सतरंगे इंद्रधनुष पर अपने सफेद और काले रंग थोपने की कोशिश करती है । मैं इस सोच से असहमत हूं ।

अंतरों को स्वीकार करना, भेदभाव को स्वीकार करना नहीं है ।  अंतरों का होना, भेदभाव का प्रमाण नहीं है । अन्य कारण भी हो सकते हैं ।

परिणाम में समता और अवसरों में समता एक दूसरे के पर्यायवाची नहीं हैं । कौन किस करियर को चुनता है यह बायोलॉजी पर निर्भर करता है । या फिर Chance Accident व संयोग पर स्त्रियाँ किन्ही क्षेत्रों में कम हैं यह उनकी बायोलोजी से प्रभावित choice के कारण भी हो सकता है ।

नारीवादी प्रकाशनों में सूसन ब्राउनमिलर की एक  पुस्तक “हमारी इच्छा के विरुद्ध” (Against our will) 1975 बहुत प्रसिद्ध है । उसके अनुसार बलात्कार का सेक्स से कोई लेना देना नहीं है । वर्तमान में प्रचलित Rape की ऑफिशियल थ्योरी के अनुसार पुरुष अपने Penis रूपी हथियार का हिंसक उपयोग नारी जगत को सतत भयाक्रांत अवस्था में रखने और उन पर अपनी सत्ता बनाएं रखने के लिए करता है । पुरुष और स्त्री की सेक्स चाहत में बायोलॉजिकल भिन्नताएं होती है इस बात को नहीं माना जाता । स्त्रियों की आजादी की चर्चा होती है कि वह चाहे जैसे कपड़े पहने, पुरुष को स्वयं पर नियंत्रण करते आना चाहिए । धार्मिक रूढ़िवादी लोग अपनी संकुचित सोच के चलते स्त्रियों को नसीहत देने लगते हैं , तो उनकी फजीहत होने लगती है । बीच में बुरे फंसते हैं बायोलॉजिस्ट जिनकी शोध सच में बताती है कि स्त्री और पुरुष की स्लेट पर जन्म से अलग-अलग इबारते लिखी होती है ।

सच बोलने का मतलब बलात्कारी को माफ करना बताया जाता है जबकि वैज्ञानिकों की ऐसी मंशा कभी नहीं रहती । किसी भी समस्या को हल करने के लिए सच को साहस के साथ स्वीकारना जरूरी है।

राजनीति और कोरी पट्टी

1960-70 के दशक में मार्क्सवादी सोच से प्रभावित रेडिकल साइंस मूवमेंट में तमाम उस शोध का घोर विरोध करना शुरू किया जिसमें जींस द्वारा IQ के निर्धारण की चर्चा हो या समस्त समाजों में (गोरे, काले, आदिवासी) में चेहरों की भाव मुद्राओं की समानता का उल्लेख हो या नोबेल पुरस्कार विजेता हुबेल और वीजल द्वारा खोजा गया हो कि बिल्लियों के ब्रेन में आंखों से प्राप्त दृश्य जानकारी की पड़ताल का सिस्टम जन्म से ही बन चुका होता है ।

ई.ओ. विल्सन की किताब सोशियोबायोलॉजी 1975 में आई थी । अनेक प्राणियों के व्यवहार का सूक्ष्म विस्तृत अध्ययन था । चीटियां, कीड़े, मछलियां, पक्षी और मनुष्य भी । डार्विन का सिद्धांत मूल पृष्ठभूमि था । सामाजिक संगठन बनाने वाले प्राणियों में कौन-कौन से गुण प्रवृत्तियां एक समान पाई जाती है और कौन सी भिन्न । भाषा और संस्कृति का क्या संबंध है । डार्विनियां विकास प्रक्रिया में प्राकृतिक चयन द्वारा कैसे नये नये एडाप्टेशन (अनुकूलन) विकसित होते हैं । नैतिकता और आदर्शवाद की सोच और भावना का विकास भी इसी Biological Process का एक परिणाम है । विल्सन ने उम्मीद करी थी बायोलॉजी – सोशल साइंसेस और फिलासफी के मध्य एक साझी समझ (Consilience) विकसित होगी ।

Radical Scientists की प्रतिक्रिया उग्र थी । उसके अनुसार संस्कृति अपने आप में स्वतंत्र, स्वस्फूर्त होती है, व्यक्तिक अनुभवों और आवश्यकताओं से प्रभावित नहीं होती है । विल्सन पर सोशल डार्विनिस्ट और Eugenetist का लेबल लगाकर कहा गया था कि इस तरह की सोच समझ शक्तिशाली और दमनकारी समूह पर अपनी दादागिरी को बनाए रखने के काम आती है । विल्सन और उसके समर्थकों को Determinism (नियतिवादी) और Reductionism (न्युनकरण) का दोषी कहा गया ।

इस राजनीतिक विरोध के पीछे चार असंगत अनावश्यक भय रहे हैं –

  1. असमानता का भय – यदि लोगों में जन्मजात भिन्नताएं हैं (पांचो उंगलियां बराबर नहीं होती) तो भेदभाव और दमन को न्यायोचित ठहराया जा जा सकेगा ।
  2. मनुष्य को संपूर्ण रूप से परिपूर्ण न बना पाने का भय – The fear of Inperfectability यदि मनुष्य को बायोलॉजी में अनैतिक, हिंसक, लिंग भेदी जैसी प्रकृतियां जन्मजात मौजूद है तो उन्हें सुधारने की कोशिश करना व्यर्थ है ।
  3. The fear of Determinism (नियतिवाद का भय) – यदि मनुष्य बायोलॉजी का गुलाम है तो इसकी स्वतंत्र इच्छा क्या होगी? क्या उसे नैतिक जिम्मेदारी से छूट नहीं मिल जाएगी ?
  4. The fear of Nihilism (नकारवाद या शून्यवाद का भय) – यदि मनुष्य बायोलॉजी द्वारा निर्मित है तो जीवन के उच्चतर उद्देश्यों और अर्थों का क्या होगा?

मन की बायोलॉजिकल व्याख्या से अनेक लोग इसलिए डरे रहते हैं वह “नैतिक नकर” Moral Nihilism को बढ़ावा दे सकती है । धर्मभीरु और नास्तिक, दोनों पक्ष के लोग कहते हैं कि यदि मनुष्य ईश्वर या प्रकृति द्वारा किन्ही उच्च उद्देश्यों द्वारा नहीं बनाया गया है या वह महज स्वार्थी जींस की कठपुतली है तो फिर उसके आदर्शविहीन, मूल्यहीन मशीन या गुलाम बनने से कौन रोक पाएगा ? जैसा कि हिटलर के समय में जर्मन नागरिकों का हुआ था ।

यह भय गलत है । यह सही है कि बायोलॉजिकल इवोल्यूशन को प्रत्यक्ष रूप से नैतिकता और आदर्श मूल्य से कोई सरोकार नहीं है लेकिन उस प्रक्रिया से निर्मित मानव में यह नितांत संभव है (और प्रमाणित है) कि उसके बड़े और जटिल मस्तिष्क में प्राकृतिक और सहज रूप से Moral Sense रोपित और पल्लवित रहता है । उसके लिए ईश्वर या माई बाप सरकार की जरूरत नहीं होती । मुश्किल तो तब आती है जब धर्मांध या नास्तिक तानाशाह दोनों, जरूरत से ज्यादा मूल्य आधारित नियमों, कायदों से समाज को जकड देते हैं । ऐसे लोग या तो आयातोल्ला होते हैं या स्टालिन।

मार्क्सवाद और फासीवाद के एक जैसे खतरे

उपरोक्त चारों भय निराधार है असली भय तो यह है कि मानव प्रकृति को नकारना और कोरी पट्टी को स्वीकारना जो कहीं अधिक नुकसानदायक है ।

मार्क्सवादी और नाजी-फासीवाद दोनों एक दूसरे के धुर विरोधी रहे हैं । मार्क्स नस्लीय श्रेष्ठता को नहीं मानता था । उसे जेनेटिक्स में विश्वास नहीं था । हिटलर के लिए जर्मन जाति श्रेष्ठ थी तथा अन्य कमतर । लेकिन दोनों में अनेक समानताएं रही है । दोनों विचारधाराओं के कारण करोड़ों लोगों का नरसंहार हुआ, अमानवीय क्रूरता बरती गई ।

मार्क्स और एंजिल के अनुसार

“इतिहास और कुछ नहीं, मानव के स्वभाव के होते रहने वाले सतत परिवर्तनों की श्रृंखला है”

 “मानव चेतना से उसका अस्तित्व निर्धारित नहीं होता, उसकी सामाजिक अवस्था, चेतन को निर्धारित करती है ।”

माओत्सेतुंग ये कहा –

“एक कोरे कागज पर कोई दाग नहीं होते – नए और सुंदर शब्द और चित्र उसे पर लिखा जा सकते हैं ।”

खर्मर रूज़ (कम्बोडिया)

“केवल नवजात शिशु ही दाग विहीन होता है ।”

मार्क्सवाद और फासिज्म दोनों मानवताओं को नया स्वरुप प्रदान करने की चाहत रखते हैं ।

मार्क्स ने लिखा “बड़े पैमाने पर, पूरी जनसंख्या के स्तर पर मानव का परिवर्तन जरूरी है”

हिटलर ने लिखा “मेरी नेशनल सोशलिस्ट पार्टी नया मानव निर्मित करना चाहती है”

दोनों विचारधाराए एक क्रांतिकारी आदर्शवाद से इस हद तक ग्रस्त है कि उन्हें अत्याचार से कोई परहेज नहीं ।

दोनों कोरी पट्टी में या इंसान के मन को “एक मिट्टी का लोंदा” होने में विश्वास करती है ।

यह विकृत सोच समस्त सर्व्सत्तात्मक (Totalatarian) राज्यों में पाया जाता है फिर शासक चाहे स्टालिन जैसे नास्तिक हो या अयातुल्लाह और ISIS जैसे धर्मान्ध ।

हिटलर ने 1913 में म्यूनिख में मार्क्स का अध्ययन किया था और विश्वास किया था कि इतिहास दो समूह के मध्य द्वन्द के रूप में होता है, जिसके परिणाम स्वरुप बेहतर समूह की अंतिम विजय होती है । मार्क्स के अनुसार विजेता होंगे सर्वहारा (Proletariat) और हिटलर के अनुसार जर्मन आर्य और अयातुल्लाह या ISIS के अनुसार इस्लाम । इस प्रक्रिया में निम्न कोटि की जातियां यहूदी (हिटलर के लिए), बुर्जुआ (मार्क्स के लिए) काफिर (इस्लामी के लिए) का (समूहनाश) Genocide होना अनिवार्य है ।

दो तरह की विश्व दृष्टी : आदर्श लोक तथा त्रासद

कोरी पट्टी में विश्वास करने को Utopian Vision कहा जा सकता है । यूटोपिया अर्थात आदर्श लोक जो केवल कल्पना में संभव है । यह अव्यावहारिक है । इसे जोर जबरदस्ती से लागू करने पर दुष्परिणामों से मानव इतिहास भरा पड़ा है ।

इसके विपरीत बेहतर विकल्प है Tragic Vision त्रासद सोच । जिसके अनुसार मनुष्य की नियति सदैव अपूर्ण दोष-युक्त रहेगी । उसी के साथ सामंजस्य बिठाते हुए बेहतरी के प्रयास करते हैं और जो सफल हुए हैं।

आदर्श लोक विजन वाले विचारक  – जॉर्ज बर्नार्ड शॉ, राबर्ट कैनेडी, रूसो, थॉमस पेन, कार्ल मार्क्स, जस्टिस अले वारेन, जान कैनेथ गालब्रेथ

त्रासद विजन वाले विचारक – थामस हाब्स, एडमंड वर्क, जेम्स मेडिसन, जिस्टस ओलिवर होल्म्स, फ्रेड्रिक हयाक, मिल्टन फ्रीडमेन, कार्ल पापर, ग्रीक त्रसादी नाटकों के लेखक, वाल्मीकि (रामायण), वेदव्यास (महाभारत)

मार्क्सवाद में दोनों विजन का एक अपवित्र घालमेल है जिसमे भूतकाल को त्रासद चश्मे से और भविष्य को कल्पना लोक के चश्मे से देखा जाता है ।

विज्ञान पर रोक लगाने की नापाक कोशिश

जेनेटिक इंजीनियरिंग के क्षेत्र में प्रगति के साथ पेड़, पौधे, भोज्य पदार्थों को परिवर्तित करके GMO (Genetically Modified Food) की उपलब्धता बढ़ गई है । मानव जीवन से छेड़छाड़ फिलहाल मना है । लेकिन कौन जाने, निकट भविष्य में नियम बदल सकते हैं । चीन जैसे तानाशाही देश यदि करने लग जावें तो उन्हें कौन रोकेंगे ।

आज की तारीख में अनेक नीति शास्त्री (Ethicists) जिनेटिक इंजीनियरिंग शोध पर प्रतिबंध लगवाना चाहते हैं । एक तरफ उनका मानना है कि मनुष्य में जन्मजात गुण नहीं होते, जो कुछ होते हैं संस्कृति, नस्लवाद, जातिवाद, लिंग भेद, गरीबी, शोषण आदि के कारण होते हैं । जो कुछ करना है वातावरण जनित अनुभवों को सुधारने के लिए करो । जींस से छेड़छाड़ मत करो ।

अजीब विरोधाभास है । जब आप Innateness या प्रकृति को मानते ही नहीं तो उसमें परिवर्तन की चिंता क्यों करते हो ? उनको यह भी चिंता है कि जिनेटिक उन्नयन द्वारा हम समाज में एक और वर्ग विभेद पैदा करेंगे । ‘Have’ and ‘Have Not’ . Genetically enhanced and not enhanced . इसकी विपरीत दिशा से जेनेटिक इंजीनियरिंग का विरोध धार्मिक रूढ़िवादियों द्वारा भी किया जाता है। उनके अनुसार इंसान को ईश्वर का खेल नहीं खेलना चाहिए।

20वीं सदी में कला – सौंदर्य को नकारना, मानव प्रकृति को नकारता है।

अनेक कला समीक्षाको और बुद्धिजीवियों द्वारा प्राय: दुख प्रकट किया जाता है कि समाज में कला रसास्वादन की प्रकृति घट रही है । मुझे ऐसा नहीं लगता । केवल Elite Art को छोड़कर । जैसे कि रूप विहीन आधुनिक कला, छंद विहीन काव्य, कथा विहीन कहानी, जटिल लफ्फाजी से परिपूर्ण निबंध, रौनक विहीन शहर विन्यास (चंडीगढ़), चरित्र विहीन इमारतें ।

कला की अनुभूति की जन्मजात प्रवृत्तियां इंसानी प्रकृति के मूल गुणों में से एक है । कोरी स्लेट वाले Post-Modernist लोग सौंदर्य बोध को नकार के ऐसी कला को बढ़ावा देते हैं जो आम जनता को पसंद नहीं आती । इसलिए बुद्धिजीवियों को रोना आता है । वरना कला का आनंद सदैव रहा है और रहेगा ।

Nature और Nurture के आगे तीसरा आयाम

भारतीय मनीषा ने माना है कि किसी व्यक्ति के विकास और व्यवहार को ढालने में नेचर और नर्चर दोनों की महती भूमिका होती है ।

इस संदर्भ में “प्रकृति” और “पुरुष” को समझना चाहिए ।

प्रकृति मानव स्वभाव है । “पुरुष” ब्रह्माण्डीय चेतना है । वर्ग संघर्ष, जाति संघर्ष, शोषक और शोषित की Binary, Victimhood के खिलाफ गुस्सा, क्रांति की चाहत, सर्वहारा की तानाशाही आदि सोच का अपना ऐतिहासिक महत्व और उद्देश्य है । लेकिन उसकी अति गलत हो जाती है। सहअस्तित्व और सामंजस्य का भी स्थान है ।

प्रकृति का अर्थ होता है प्राकृत अर्थात पहले से उत्पन्न या सहज जैसा । इसे हम blank slate का खंडन मान सकते हैं । प्राकृत शब्द, पहले से ही विशेष धर्म या गुणों के साथ जन्म ले रहे वानस्पतिक और जीवात्मक पदार्थ के लिए उपयोग होता है ।

“पुरुष” को अर्थात्मक और जागृत आत्मा के रूप में समझा जाता है । यह आत्मा ब्रह्म का अंश मानी जाती है ।

भारतीय वांग्मय, दर्शन और साहित्य में “आत्मबोध” और वैयक्तिक विकास को महत्त्व दिया गया है ।

अद्वैत वेदांत और बौद्ध मत में माना जाता है कि self  या “स्व” पहले से पूर्ण रूप नियत नहीं होता, पहले से आंशिक गढ़ा हुआ होता है । उसमें परिवर्तन की नमनीयता होती है । उसके स्वरूप को बदला जा सकता है । बाह्य वातावरण, जीवन के अनुभवों, परवरिश सांस्कृतिक परिवेश आदि को पर्याप्त महत्व दिया जाता है । वातावरणीय प्रभावों की शुरुआत गर्भ से हो जाती है। हमारे यहाँ गर्भाधान संस्कार होता है । RSS द्वारा एक प्रकल्प चलाया जा रहा है ।

उसकी वैज्ञानिकता पर मुझे पूर्ण विश्वास नहीं है लेकिन वामपंथियों द्वारा उसकी आलोचना करते समय हिटलर, फ़ासीवाद, नाज़ीवाद, Racial Purity जैसे विशेषणों का उपयोग गलत है ।

अर्जुन का आख्यान क्या बताता है ? एक मानस यात्रा जो भ्रम –दुविधा-संदेह से शुरू होकर आत्मबोध-ज्ञान-कर्तव्य बोध और कर्मशीलता तक पहुंचती है ।

कृष्ण के साथ से मिले अनुभव के कारण अर्जुन अपने पहले से नियत धारणाओं को छोड़ पाता है और स्वयं की पहचान और उद्देश्य की गहन समझ विकसित कर पाता है ।

भारतीय दर्शन मानता है कि व्यक्ति में पहले से हुई हुई अनुकूलन/ कंडीशनिंग के बंधनों को तोड़कर वैयक्तिक विकास, स्वयं की खोज और अपनी वास्तविक प्रकृति को साकार करने की क्षमता होती है ।

उत्तिष्ठ जागृत प्राप्य वरान्निबोधत (कठोपनिषद) ।

आध्यात्मिक ज्ञान साधना से प्रेरित होकर मनुष्य स्वयं को बदलता है, संघर्ष करता है, परिस्थितियों का सामना करता है, जीतता है, हारता है, सिर्फ दोषारोपण नहीं करता ।

कौन व्यक्ति कितना संघर्ष करेगा ? कितना प्रयत्न करेगा ? क्या यह भी उसकी जीन में लिखा हुआ आता है ? क्या वह यह कह कर पल्ला झाड सकता है – क्या करूं, मुझे संघर्ष करने की करने वाली जींस ही नहीं मिली । या फिर उसके जीवन अनुभव उसे प्रेरणा देते हैं । कैसे गुरु मिले, भाग्य ने क्या मोड लिए, कैसी संगत मिली । फिर घूम फिर वही प्रश्न बेताल का – Nature या Nuture ? नहीं, Nature and Nurture

(अपूर्व) विक्रम का यह उत्तर सुनते ही बेताल उड़ गया। अगली कहानी सुनने के लिए फिर मिलेंगे ।

Author profile
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डॉ अपूर्व पौराणिक

Qualifications : M.D., DM (Neurology)

 

Speciality : Senior Neurologist Aphasiology

 

Position :  Director, Pauranik Academy of Medical Education, Indore

Ex-Professor of Neurology, M.G.M. Medical College, Indore

 

Some Achievements :

  • Parke Davis Award for Epilepsy Services, 1994 (US $ 1000)
  • International League Against Epilepsy Grant for Epilepsy Education, 1994-1996 (US $ 6000)
  • Rotary International Grant for Epilepsy, 1995 (US $ 10,000)
  • Member Public Education Commission International Bureau of Epilepsy, 1994-1997
  • Visiting Teacher, Neurolinguistics, Osmania University, Hyderabad, 1997
  • Advisor, Palatucci Advocacy & Leadership Forum, American Academy of Neurology, 2006
  • Recognized as ‘Entrepreneur Neurologist’, World Federation of Neurology, Newsletter
  • Publications (50) & presentations (200) in national & international forums
  • Charak Award: Indian Medical Association

 

Main Passions and Missions

  • Teaching Neurology from Grass-root to post-doctoral levels : 48 years.
  • Public Health Education and Patient Education in Hindi about Neurology and other medical conditions
  • Advocacy for patients, caregivers and the subject of neurology
  • Rehabilitation of persons disabled due to neurological diseases.
  • Initiation and Nurturing of Self Help Groups (Patient Support Group) dedicated to different neurological diseases.
  • Promotion of inclusion of Humanities in Medical Education.
  • Avid reader and popular public speaker on wide range of subjects.
  • Hindi Author – Clinical Tales, Travelogues, Essays.
  • Fitness Enthusiast – Regular Runner 10 km in Marathon
  • Medical Research – Aphasia (Disorders of Speech and Language due to brain stroke).