ओ रे गर्वित केतकी
ओ रे गर्वित केतकी,
काहे यूँ इतराए ।
सुरभित तू मनमोहिनी,
शिव पर चढ़ी न जाय ।।
स्वर्ण केतकी निखर उठी,
मादक अति मकरंद ।
डोल रहे चहुंओर फणि ,
पाकर के मधु गंध ।।
पावस आते खिल उठे,
सूचीपत्र दुकूल ।
लिपट रहे पन्नग जहां,
स्थिरगंधा के फूल ।।
शार्क मत्स्य-सी उठ खड़ी
इंदुकली निज पात ।
ऊर्ध्व मुखी हो कर रही
जैसे शशि से बात ।।
मोहक लगती वाटिका,
पावस खिलते फूल ।
दीर्घपत्र मुकुलित हुए ,
महक-महक जम्बूल ।।
गर्वित होकर यूँ खड़ी
जैसे मछली शार्क ।
सौरभ सबको बांटती
मेध्या निज श्र्वेतार्क ।।
शीश उठाए मुग्ध-सी
पिय सों लागे नेह
धूलिपुष्पा खिल उठी
अमृत बरसे मेह
– वंदना दुबे
नाम- वंदना दुबे
निवास स्थान- धार मध्यप्रदेश ।
शिक्षा- हिन्दी साहित्य, संगीत एवं अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर तथा
बी एड ।
लगभग पच्चीस वर्षो तक व्याख्याता पद पर कार्यरत रही ।
संगीत, साहित्य और कला में विशेष रुचि ।
तीन निजी पुस्तकें एवं अनेक साझा संग्रह प्रकाशित ।
आकाशवाणी और दूरदर्शन पर रचनाओं का प्रसारण।
भारत भवन एवं आकाशवाणी में गायन की प्रस्तुति ।
विभिन्न सामाजिक-साहित्यिक संस्थाओं से संबद्धता।
इंटैक की आजीवन सदस्य ।
देश की विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
कविता में प्रयुक्त जटिल शब्दों का अर्थ
दुकूल= वस्त्र
फणि= नाग
पन्नग= सर्प
श्वेतार्क = सफेद अर्क
स्थिरगंधा- हमेशा बनी रहने वाली खुशबू
इंदुकली = इंदु( चंद्रमा) चंद्रकला की तरह पत्तियाँ और श्वेत वर्ण
ऊर्ध्वमुख= आकाश की ओर मुख
दीर्घपत्र= लंबे या बड़े पत्ते
धूलिपुष्पा = रेत (धूल) पर ही फूल खिलते हैं