
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जयंती पर विशेष: आज भी प्रासंगिक, आज भी प्रेरणास्रोत
राजेश जयंत की रिपोर्ट
‘यूं ही उन्हें राष्ट्रकवि नहीं कहा गया, वे साहित्य, समाज और देश की आत्मा तक पहुंचे हैं।
जी हां, हम बात कर रहे हैं साहित्य के युग दृष्टा कवि मैथिलीशरण गुप्त की। जिन्होंने हिंदी काव्य को देशभक्ति, सामाजिक चेतना, सांस्कृतिक गौरव और मानवीय संवेदनाओं से रंगा। उनकी कविताएं केवल शब्द नहीं, वो आज तक प्रवाहित होने वाली ऊर्जा हैं, जो भारतीय आत्मा को झकझोरती हैं। हिंदी साहित्य के महानायक की कविताएं आज भी सामाजिक चेतना, देशभक्ति और मानवीय मूल्यों की बात करती हैं। उनका लेखन सिर्फ आज़ादी की लड़ाई का साक्ष्य नहीं बल्कि हिंदी कविता के विकास, नवजागरण और आज भी प्रासंगिक बहसों का आधार है। उनकी जयंती (3 अगस्त) पर पूरा देश नमन करता है उस विराट कवि को, जिसने हर भारतीय को उनकी राष्ट्रीय पहचान और दायित्व का अहसास कराया। उनकी जयंती पर गुप्त जी के अमर व्यक्तित्व व कृतित्व की बात करना बेहद प्रासंगिक है।

जीवनवृत्त और व्यक्तित्व
मैथिलीशरण गुप्त का जन्म 3 अगस्त 1886 को उत्तर प्रदेश के झांसी जिले के निकट चिरगांव में एक वैश्य परिवार में हुआ। उनके पिता रामचरण गुप्त खुद भी हिंदी प्रेमी थे और गुप्त जी को साहित्य की प्रेरणा विरासत में मिली। उनकी औपचारिक शिक्षा सीमित रही लेकिन घर पर ही हिंदी, संस्कृत, अंग्रेजी और बंगला का गहरा अध्ययन किया। बचपन में मंच नाम ‘स्वर्णलता’, ‘रसिकेंद्र’ जैसे छद्म नामों से ब्रज और खड़ी बोली, दोनों में कविताएं लिखीं।
उनकी साहित्यिक प्रतिभा को परिमार्जन और दिशा मिली आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के संपर्क में आकर। अपने समय के क्रांतिकारी विचारों ने उनकी रचनाओं को राष्ट्रीय तथा सामाजिक चेतना का स्वर दिया। साहित्य जगत में उन्हें प्यार से ‘दद्दा’ कहा जाता था। गुप्त जी के जीवन का हर मोड़ संघर्ष, संवेदनशीलता और विचारधारा की मिसाल बना।
साहित्यिक कृतित्व और योगदान
गुप्त जी खड़ी बोली के पहले महान कवि माने जाते हैं। हिंदी कविता को उन्होंने ब्रज की रचनाशीलता से निकालकर राष्ट्र, समाज और व्यक्ति के सरोकारों से सीधा जोड़ा।

उनकी प्रमुख रचनाएं हैं:
-भारत-भारती (1912): देशभक्ति, सांस्कृतिक जागरण, स्वावलंबन
-साकेत (1931): उर्मिला के नज़रिए से रामकथा
-यशोधरा, पंचवटी, जयद्रथ-वध, शकुंतला, नहुष, कुणाल गीत, कर्बला, रंग में भंग, किसान, सैरंध्री, वन वैभव
-नाटक: अनघ, दिवोदास, तिलोत्तमा, चंद्रहास
-अनुवाद: अनेक संस्कृत, बांग्ला नाट्य और महाकाव्य
उनकी रचनाओं में रामायण, महाभारत, बौद्ध दृष्टांत, देश-समाज की समस्याएं, धार्मिक नैतिकता, महिला शक्ति और सांस्कृतिक चेतना प्रमुखता से उभरती है।
‘राष्ट्रकवि’ की उपाधि और सम्मान
1912 में प्रकाशित ‘भारत भारती’ उनके काव्य जीवन की मील का पत्थर रही। महात्मा गांधी ने उन्हें सबसे पहले ‘राष्ट्रकवि’ कहा और भारत सरकार ने उन्हें पद्म भूषण एवं पद्म विभूषण से अलंकृत किया। वे राज्यसभा में मनोनीत सदस्य रहे और हिंदी विश्वविद्यालय ने उन्हें ‘डी लिट’ की उपाधि भी दी।
गुप्त जी के निधन (12 दिसंबर 1964) के बावजूद उनकी रचनाएं और विचार साहित्य, समाज और युवा पीढ़ी के लिए आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं।

प्रासंगिकता
मैथिलीशरण गुप्त के विचार, आज के सामाजिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय विमर्श में बार-बार लौटते हैं।
-भारत-भारती की उक्ति- “कुछ काम करो, कुछ नाम करो…” आज भी प्रेरणा देती है।
-सामाजिक समरसता, राष्ट्रीय एकता, नारी सम्मान, नैतिकता- गुप्त जी की कविताएं इन विषयों पर आज भी मार्गदर्शन कर रही हैं।
-सामाजिक विघटन, पहचान का संकट, कर्तव्यों की उपेक्षा- इन सबका समाधान उनकी कविता की पंक्तियों में छुपा है।
-नए दौर के लिए भी उनके विचार व मार्गदर्शन अद्भुत हैं- साकेत की उर्मिला जैसी स्त्री पात्रों के माध्यम से गुप्त जी ने नारी विमर्श के उच्च मानक प्रस्तुत किए।
-“हम कौन थे, क्या हो गए हैं; और क्या होंगे अभी…” जैसे कथन आज भी आत्मविश्लेषण का मंत्र हैं।
निष्कर्ष: मैथिलीशरण गुप्त सिर्फ एक कवि नहीं, युग दृष्टा, समाज सुधारक और नैतिकता के अद्वितीय प्रतिनिधि हैं। आज के युवाओं के लिए उनके विचार दिशा देने वाले हैं।
उनका जीवन, साहित्य और सोच सिखाते हैं- अपने देश, समाज और आत्मा के प्रति सच्चे बनो, राष्ट्र सर्वोपरि है, कर्म को जीवन का मंत्र बनाओ और साहित्य से जुड़ो।
उनकी जयंती पर हम सबका दायित्व है- गुप्त जी की प्रेरणा को आगे बढ़ाएं, उनकी रचनाओं से सीखें और समाज में रचनात्मक ऊर्जा का संचार करें।
नर हो, न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो
जग में रह कर कुछ नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो, न निराश करो मन को..
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