
एक अद्भुत और अद्वितीय व्यक्ति:”मेरी माँ “-
माँ एक अद्भुत और अद्वितीय व्यक्ति है जो हर किसी के जीवन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। ‘मेरी माँ ‘श्रृंखला के माध्यम से हम अपनी माँ के प्रति अपना सम्मान,अपनी संवेदना प्रकट कर सकते हैं. माँ हर बच्चे के लिए कुदरत का ऐसा तोहफ़ा है जैसे लगता हो ईश्वर ने खुद पृथ्वी पर आकर रहना स्वीकारा है. पूरी कायनात के बदले बच्चा माँ का ही चुनाव करेगा और माँ भी अपने बच्चे का ही। ये ऐसा रिश्ता है जिसमें ईश्वर दिखता है। माँ यीशु मसीह और हिन्दू देवी देवता दोनों को मानती है। एक ओर पूजा-पाठ भी करती है और एक ओर प्रार्थना बायबल और मदर मैरी को भी मानती है।कुछ इसी तरह से अपनी माँ के व्यक्तित्व पर बात कर रही है ,सुप्रसिद्ध कवियत्री – रीता दास राम. आइये हम इस संस्मरण में एक और माँ से मिलते हैं ,उनकी बेटी के इस माँ को रेखांकित करते इस लेख में —
9 . My Mother Smt. Nirmala Das : “हम माँ-बेटी की एक अलग दुनिया”- रीता दास राम

– रीता दास राम
माँ हर बच्चे के लिए कुदरत का ऐसा तोहफ़ा है जैसे लगता हो ईश्वर ने खुद पृथ्वी पर आकर रहना स्वीकारा है। बच्चे की परवरिश नहीं बल्कि उसकी हर कीमत पर सुरक्षा, साथ और जिम्मेदारी की भूमिका ही मुख्य रही होगी। माँ का होना क्या होता है किसी बच्चे से पूछिए। पूरी कायनात के बदले बच्चा माँ का ही चुनाव करेगा और माँ भी अपने बच्चे का ही। ये ऐसा रिश्ता है जिसमें ईश्वर दिखता है।
जब भी औरत के बारे में विचार किया सबसे पहले जेहन में मां आईं। उसका जीवन समाज के अन्य औरतों की कहानी कहता था। उसके जीवन से गुज़र कर सोचना हर औरत के जीवन से होकर गुजरना था। उन के संघर्ष, हिम्मत, शक्ति, जिजीविषा, धीरज, चेतना हर औरत का संबल रही है। हर औरत अपने दुखों से गुजरते हुए दूसरी औरत के दुखों से हिम्मत सहेजती है। जब निगाह दूसरों तक जाती है तो सबसे पहले मां दिखाई पड़ती हैं। जिसके जीवन संघर्ष हर बेटी को लड़कर आगे बढ़ने का हौसला देते हैं।
माँ के बिना मेरा अस्तित्व ही नहीं। बचपन से यही महसूस करती रही हूँ। घर में पाँच भाई बहनों में सबसे छोटी हूँ। हमेशा माँ का साथ मिला। सबसे छोटी होने की वजह से हर एक का लाड़ प्यार भी मिला। शादी के बाद महसूस किया कि मेरे बिना रहना, माँ के लिए भी कितना मुश्किल रहा। मुझे ये पता चला जब माँ ने खुद बताया, “तू शादी हो कर चली गई और मुझे रात को नींद भी नहीं आती थी”। कई बार नींद खुलती। नींद में तुझे पास में टटोलती कि तू किधर है। यह सुन मैं माँ के सामने रो भी न पाई लेकिन अब तक शिकायत करती हूँ कि इतनी भी जल्दी क्या थी कि मेरी शादी इतनी जल्दी क्यों कर दी। मेरी शादी के मंडप में ही कुछ लोगों ने कहा “अरे रानी क्या इतनी भारी पड़ रही थी, उसकी शादी इतनी जल्दी क्यों कर दी”। मैं बाइस साल की थी। यह वह दौर था जब अमूमन इस उम्र में शादी के लिए लड़के ढ़ूँढे जाते थे लेकिन मेरे केस में लड़के वाले खुद आए थे और शादी पक्की हो गई।

मेरी शादी के बाद माँ ने मुझे बहुत मिस किया। यह बात उन्होंने कई सालों बाद बताई। मैं उनके लिए जैसे बेबी डॉल थी। ‘मेरा साथ’ उनके लिए जैसे जीवन का वो हिस्सा था जिसके बिना वें अधूरापन महसूस करती थीं। उनके लिए मेरा न होना असहय होता रहा लेकिन उन्हें मेरे बगैर भी जीना सीखना था क्योंकि यही हमारा समाज है। यही जीवन था। मैं चकित और दुखित भी हुई कि माँ ये फील कर रही है। मैं मुंबई में और माँ नागपुर में थी। मेरी शादी के बाद तुरंत मम्मी पापा मेरे पास रहने आए कुछ दिन रहे भी लेकिन बीत चुका समय वापस नहीं लौटता। ये मां जानती थी। मुझे देख संतोष सहेज कर चली गई।
माँ के लिए हम चारों बहनें एक सी थीं, हैं पर मैं सबसे छोटी और सबसे दूर, यह बात कहीं न कहीं पूरे कचोट के साथ मायने रखती है कि जब चाहे मम्मी बाकी बहनों से नागपुर में ही मिल सकती थीं परंतु मेरे साथ उन्हें यह सुविधा नहीं थी। मुझसे मिलने के लिए मेरे आने तक उन्हें सालों का लंबा इंतज़ार करना या मेरे पास मुंबई आना, दो ही ऑप्शन बचते। शादी के बाद अपने घर की अपनी परेशानी में जुटी मैं मुंबई से बार-बार नागपुर नहीं आ पाती।
खैर, यह समाज का नियम है बेटी को एक दिन घर से जाना ही पड़ता है और माएं बेटियों की याद में जीवन बिताने के लिए मजबूर होती हैं जबकि बेटियां अपने नई जगहों में रहने-सहने की कोशिश कर रही होती हैं। बेटियां जैसे जड़ समेत उखाड़ दिया गया पौधा हो जिसे कहीं और लगाने की कोशिश जी रही होती हैं। वहीं माँएं बेटियों से रिक्त हुए घरों की रिक्तता को जिसे वें भर तो नहीं सकती, देखती हुईं जीवन के ड्राइनेस को महसूस करती है।
माँ को बचपन से आसपास महसूस किया। उन्हें मेरी बेपरवाह चिंता होती थी। मेरे बहुत दुबले पतले शरीर ने उसे हमेशा चिंतित रखा। उसे मैंने सुबह से रात तक घर के काम में लगे हुए देखा। सुबह का नाश्ता, खाने की तैयारी, खाना खाने के बाद, अचार पापड़ वड़ी बनाने में जुटे रहना। कभी हमारे कपड़ों को दुरुस्त करना, कभी रात के भोजन की तैयारी में लगना। काम जैसे सिलसिलेवार उसकी नजरों के सामने कतार में अपनी बारी का इंतजार करते। मां निपटाती जाती और मैं इंतजार में होती कि मां का काम खत्म हो और मुझे गोदी में लें। मां बताती मैं मां का पल्लू पकड़कर पीछे पीछे घूमती रहती। अपनी किसी बहनों को मां के पास सोने नहीं देती। जैसे मां पर मेरा एक छत्र राज हो। बहने मुझसे बड़ी थी तो जिद्द भी नहीं करती।
मां को मैंने हमारे पीछे सारी जिंदगी लगाते देखा। बावजूद इसके मम्मी पापा अपने लिए भी वक्त निकालकर कभी-कभी सिनेमा देखने जाते देखा। कभी- कभार हम भाई-बहन मम्मी पापा के साथ जाते। मम्मी के रहन सहन, तौर तरीके, व्यावहारिकता में मैंने आधुनिकता देखी। पुराने चीजों के सामने नए तरीके को अपनाने की पहल देखी। वें हम बच्चों को भी प्रोत्साहित करती। नए फ़ैशन के कपड़े खरीदना। सिलाना। बच्चों को इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ाना उन्हें रुचिकर लगता। सांस्कृतिक कार्यक्रम हो या खेल हमें भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करती। उत्साहवर्धक किस्से सुनाती कि हम अपनी उलझनों से बुझे नहीं बल्कि डटे रहे, उत्साहित हो।
मां ने पढ़ाई में हम बेटियों की दुविधाओं और परेशानियों में धीरज बंधाया। कक्षा में सबसे छोटी दिखती मैं परीक्षा में अव्वल आती तो बस मां की वजह से। मां दसवीं उत्तीर्ण थीं। मुझे पढ़ाई में होने वाली कठिनाइयों को मेरी सूनी आँखों से पहचान जाती और पूछती क्या कठिन लग रहा है और तरीके सुझाती। मां के युक्तिपूर्ण सुझाए रास्तों को मैं समझने लगी और अपनी छोटी मोटी समस्याओं को सुलझाने लगी। मां ने जीवन जीने के तरीकों पर प्रकाश डाला। रास्ते सुझाए। सहना, लड़ना, तर्क करना, बड़ों का आदर करना, छोटों से प्यार करना, सोच समझ कर निर्णय लेना मां के बताए रास्ते थे जिस पर मैं चलती रही। मुझे खुद पता नहीं चला कि कब मेरी सोच विकसित होकर दृढ़ होती चली गई। आज मां जब ऊहापोह में होती है तो मुझसे बात करती है। सलाह लेती है। कभी कभी तो कहती है तू साइकोलॉजी पढ़ी है ना तू अच्छा सोचती है।
मां बहुत सुंदर हैं। इतनी ही सुंदर जितनी सभी की माएं हुआ करती है। मां को घर के सभी लोगों की देखभाल और चिंता करते देख हम भाई-बहन बड़े हुए। यही सहेजने वाली दृष्टि सभी के भीतर पनपते लगी। आज मेरे से दो साल बड़ी बहन भी बिलकुल मां की तरह मेरा ख्याल रखती है। सिर्फ़ मेरा ही नहीं सभी आपस में मिलजुल कर एक दूसरे की परवाह करती हैं। परेशानियां हो तो भी मां अब भी मिलजुल कर रहना सिखाती है।
माँ और बेटी की रिश्ते में सबसे अहम पल वह होता है जब बेटी की डिलीवरी होती है। बेटी की डिलीवरी माँ-बेटी को आत्मिक रूप से और करीब ला देती है। एक दूसरे के दर्द को देखना, समझना, सहना, सहारा देना, तकलीफ में खड़े रहना, कई बातें हैं जो इंसानियत सहेजती है। बच्चे का जन्म वह पल है जो कहीं न कहीं सास को भी बहु से जोड़ता है। ये रिश्ते एक दूसरे में बँधते गूथते मजबूत होते हैं। डिलीवरी के कष्ट भरे दिनों में माँ का साथ बेटी को शारीरिक और भावनात्मक दोनों सहारा देता है। यही वह क्षण है जब बेटी अपनी माँ के दुखों को और भी अच्छे से समझते हुए औरत के जीवन को जानती है। बच्चे के जन्म और परवरिश में माँ, नानी और दादी तीनों की अहम भूमिका होती है। ये तीनों ही माँ के रूप हैं। जिसने इस संसार के विस्तार में अपनी सशक्त भूमिकाएं निभाई है। मैंने अपनी नानी और परनानी को भी देखा है, दोनों में माँ का वजूद दिखाई पड़ता है।

पिताजी के चले जाने के बाद मां उदास रहने लगी हैं। अशक्त भी हो गई हैं। पापा, मां की हिम्मत और शक्ति थे। आजकल मां, पिताजी को बहुत याद करती हैं। उनकी तस्वीर से बातें करती हैं। मां और पिताजी ने लव मैरिज की थी, यह 1960 की बात है। हम बच्चों ने मां-पिताजी का हमेशा प्यारा सा साथ और प्यारा सा रिश्ता देखा। लगता था जैसे वें एक दूसरे के लिए ही बने हों। आज भी मां को पिताजी की याद करते देखती हूँ तो उनके बीच का प्यार महसूस करती हूँ। पिता जब थे मां को अपनी आंखों से ओझल नहीं होने देते। घर से कहीं जाने नहीं देते थे। मां का अपने भाई (मामाजी) के घर जाना भी पिताजी को बेचैन कर देता था, माँ जाती भी तो जल्द लौट आती थीं। सोचती हूँ, मां अब पिताजी के बगैर कैसी रहती होंगी! क्या सोचती होंगी! कैसे जीती होंगी।
पिताजी की मृत्यु के बाद दो बार मां का सोडियम कम हुआ और उन्हें अचानक हॉस्पिटल में एडमिट करना पड़ा। राहत की बात है कि वह दोनों बार स्वस्थ होकर घर लौट आई। धीरे-धीरे संभल-संभल कर लाठी के सहारे चलती मां, दिन में कई बार बाइबल पढ़ती हैं। यीशु मसीह की तस्वीर को देख प्रार्थना करती हैं। हम मिलने जाते हैं तो बहुत खुश होती हैं। हमें बार-बार मिलने बुलाती हैं। मुझे मुंबई से आने में लेट होना, उसे बेचैन करता है। वह बेसब्री से मेरा रास्ता देखा करती है। मेरे समझाने पर भी उसका मेरे लिए इंतजार कम नहीं होता। जब भी संभव हो मैं मां से मिलने चली जाती हूँ, जाती रहूंगी।
मां की अक्सर इच्छा होती है कि कहीं बाहर घूमने जाय। जब तक थोड़ी अच्छी थी भैया अपनी कार में बिठाकर घुमा लाते थे। दुर्गा पूजा के दौर में उन्हें हर मुहल्ले में सजी दुर्गा माँ की विशाल मूर्तियों के दर्शन कराते,लेकिन रास्ते में मां को कहीं उतरने नहीं देते। माँ यीशु मसीह और हिन्दू देवी देवता दोनों को मानती है। एक ओर पूजा-पाठ भी करती है और एक ओर प्रार्थना बायबल और मदर मैरी को भी मानती है।बहनें केक ले जाती है और गिफ्ट दें, माँ का जन्मदिन मनाती। अब माँ की अशक्तता के चलते लड़खडाकर गिरने का डर बना रहता है इसलिए सभी उन्हें बाहर जाने से रोकते हैं। कहीं जाने नहीं देना ही सही लगता है बल्कि हम सभी बहनें उनसे बार-बार मिलने जाते हैं। हम सभी बहनों को देख माँ बहुत खुश होती हैं। हमें देखना माँ के लिए जैसे उत्सव जीना होता है।
अस्सी पार मां का बच्चों जैसा जिद्द करना कभी-कभी आंखों में नमी ला देता है। जब वें अच्छी थी, सभी बहनों के घर जाकर रही।एक अच्छा समय बिताया। मेरे साथ मुंबई भी आई। पंद्रह बीस दिन मेरे साथ रही। जब पापा थे, मम्मी-पापा दोनों मेरे पास कई बार आकर रहे। कभी कभी दो-दो महीना मेरे घर रहते। उनके जाने के बाद मेरे बच्चे उन्हें बहुत याद किया करते थे। उनके बूढ़े हो जाने पर अब हम उनसे मिलने जाया करते हैं। हम बहने जब भी मां से मिलने जाती हैं, उनकी पसंद की चीजें उनके लिए ले जाती हैं। देखकर वें खुश होती है। आज भी हमारे जन्मदिन के लिए आशीर्वाद स्वरूप हमारे हाथों में पैसे पकड़ना नहीं भूलती। अब भी जब मां से मिलती हूँ, बचपन की यादें ताजा हो जाती है। बचपन का वो समय था जब मां को मैं एक सेकेंड नहीं छोड़ती थी और मैं आज उनसे इतनी दूर मुंबई में रहती हूँ। सोचते ही आँखें सजल हो जाती हैं।
मां सबसे ज्यादा मेरे लिए चिंता करती थी। मेरी एकदम दुबली-पतली काया और मेरा घर में सबसे छोटा होना सभी का मेरी ओर ध्यानाकर्षित करता। फिर भी मेरी पढ़ाई पर उन्होंने कोई समझौता नहीं किया। दो बस बदल कर कैम्पस जाने और वापस लौटने में शाम हो जाती थी। फिर भी मैं कॉलेज जाती। उनका कहना था जब तक शादी नहीं हो जाती, पढ़ती रहो। घर का काम अपने जिम्मे ले माँ हम सभी बच्चों को पढ़ने के लिए समय देती।
मां बेटियों की दुनिया ही अलग होती है। ये रिश्ता बहुत कुछ कहता है। कहता है वह बातें भी जो पिता और भाईयों से नहीं होती;न मां की, न ही बेटी की। एक समय होता है बचपन जब मां अपनी बेटियों को संभालती है और फिर वो समय भी आता है बुढ़ापा जब बेटियां अपनी मांओं को संभालती है। ये ऐसा रिश्ता है जिसका कोई दूसरा ऑप्शन नहीं। बहु बहुत आहिस्ते से बेटी में तब्दील होती समाज में एक सुंदर उदाहरण पेश करती है। बिन बेटी की माएं वाकई इस रिश्ते कई आत्मिक सुगंध को तरसती होंगी।
मां के मन की थाह जितना बेटी ले सकती है बेटा नहीं ले सकता। निसंदेह, इस बात के अपवाद जरूर होंगे। लेकिन यह एक सामान्य सा नज़रिया है जो अपनी बात अपने तरीके से रखता है।

– रीता दास राम् (कवयित्री / लेखिका)
कांजुर मार्ग पश्चिम, मुंबई.
मो. 9619209272. संप्रति : कवयित्री / लेखिका, वर्तमान आवास : मुंबई, महाराष्ट्र।
शिक्षा : एम.ए., एम फिल, पी.एच.डी. (हिन्दी) मुंबई विश्वविद्यालय, मुंबई।
प्रकाशित पुस्तकें –
* कविता संग्रह: 1“तृष्णा” 2012 (अनंग प्रकाशन, दिल्ली).
2“गीली मिट्टी के रूपाकार” 2016 (हिन्दयुग्म प्रकाशन,दिल्ली)
* कहानी संग्रह –1 “समय जो रुकता नहीं” 2021 (वैभव प्रकाशन, रायपुर) 2 “चेक एंड मेट” 2025 (पुस्तकनामा, दिल्ली)
* उपन्यास : “पच्चीकारियों के दरकते अक्स” 2023, (वैभव प्रकाशन, रायपुर)
* आलोचना : 1 आलोचना और वैचारिक दृष्टि 2024 (अनंग प्रकाशन दिल्ली 2 “हिंदी उपन्यासों में मुंबई” 2023(अनंग प्रकाशन, दिल्ली)
* संयुक्त संपादन : “टूटती खामोशियाँ” 2023 (त्रिभाषीय काव्य संकलन)विद्यापीठ प्रकाशन, मुंबई विश्वविद्यालय के पत्रिका की पुस्तक।
* संपादन – 1 “हमारी अम्मा : स्मृति में माँ” – भाग 1 (2025) ‘पुस्तकनामा’ दिल्ली। 2 “हमारी अम्मा : स्मृति में माँ” – भाग 2 (2025) ‘पुस्तकनामा’ दिल्ली। 3 “कविता में स्त्री : समकालीन पुरुष कवि” (2024) ‘आपस प्रकाशन’ अयोध्या।
* उपन्यास “पच्चीकारियों के दरकते अक्स” पर लघु शोध सम्पन्न (एस.एन.डी.टी महिला विश्वविद्यालय)
कविता, कहानी, लघुकथा, उपन्यास संस्मरण, स्तंभ लेखन, साक्षात्कार, लेख, प्रपत्र, आदि विधाओं में लेखन द्वारा साहित्यिक योगदान।हंस, नया ज्ञानोदय, शुक्रवार, दस्तावेज़, पाखी, नवनीत, वागर्थ, चिंतनदिशा, आजकल, लमही, कथा, उत्तरप्रदेश, छत्तीसगढ मित्र, अनभै के अलावा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, साझा काव्य संकलनों, वेब-पत्रिका, ई-मैगज़ीन, ब्लॉग, पोर्टल, में कविताएँ, कहानी, साक्षात्कार, लेख प्रकाशित। काव्यपाठ, प्रपत्र वाचन, वक्ता, संचालन द्वारा मंचीय सहभागिता।सम्मान – काव्य संग्रह ‘तृष्णा’ को ‘शब्द प्रवाह साहित्य सम्मान’ 2013,उज्जैन।* ‘अभिव्यक्ति गौरव सम्मान’ 2016,नागदा।* ‘गीली मिट्टी के रुपाकार’ को ‘हेमंत स्मृति सम्मान’ 2017,गुजरात विश्वविद्यालय।* ‘शब्द मधुकर सम्मान’ 2018,दतिया, म प्र।* साहित्य के लिए ‘आचार्य लक्ष्मीकांत मिश्र राष्ट्रीय सम्मान’ 2019, मुंगेर बिहार।* ‘हिंदी अकादमी, मुंबई’ का ‘महिला रचनाकार सम्मान’ 2021, मुंबई।* ‘हिंदी अकादमी, मुंबई’ का “शिक्षा भूषण सम्मान” 2022, मुंबई।
* ‘हिंदी अकादमी, मुंबई’ का “अंतर्राष्ट्रीय साहित्य सेतु सम्मान” 2023 लंदन पार्लियामेंट में।* उपन्यास ‘पच्चीकारियों के दरकते अक्स’ को ‘कादंबरी सम्मान’ 2024 जबलपुर।





