बेवजह नहीं पनपते नन्हे कैक्टस

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रमेश चंद्र शर्मा की कविता 
शहर के गमले !
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बेवजह नहीं पनपते
नन्हे मासूम कैक्टस
शहर के गमलों में !
जहां तहां उगते नहीं
लिजलिजे बदसूरत
अनचाहे 🍄 कुकुरमुत्ते !
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उर्वरा धरा के
तिरस्कार ने खड़े किए
उसर में अंधे बबूल !
विरोध का प्रतीक बन
मेड़ों पर सिर उठा रही
विक्षिप्त कुछ नागफनी !
बंजर जमीन पर
जीवन तलाश रही
निरपराध झाड़ियां !
अस्वीकार की मार ने
विद्रोही स्वर दे दिए
जंगल के स्वान को !
तिरस्कृत हुई सदा
वटवृक्ष के सामने
निरपराध अमरबेल !
पलायन को विवश
उपवन से बहिष्कृत
सुकोमल रातरानी !
संक्रमण के दौर में
प्रदूषित कुछ विचार
पा रहे खाद पानी !
जड़ों से कट रहे
जमीन खुद छोड़ रहे
ज्ञान के मसीहा !
असंतोष उग रहा
सड़क के आसपास
हरी घास की तरह !
अलमारी में बंद है
विवेक के विस्तार की
सीलबंद कुछ किताब !
हाशिए पर बैठकर
अनंत की कल्पना
अनायास कौन करता !
दिगंत के विस्तार में
रोज शामिल हो रहे
हल खोजते कुछ प्रश्न !
संभ्रांत होने की ललक
जड़ों को ही काट देती
जमीन से उखाड़ कर !
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# रमेश चंद्र शर्मा ,इंदौर

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