Silver Screen: जब भी परदे पर आया तो दिलों पर छाया लोक संगीत!
जब से फ़िल्में बनना शुरू हुई, तब से अब तक के दौर में बहुत कुछ बदला। सरसरी नजर दौड़ाई जाए तो कई कालखंड ऐसे नजर आएंगे, जब गीतकारों ने हिंदी, उर्दू और पंजाबी के अलावा कई और भाषाओं और बोलियों के गीतों को अपने गीतों में जगह दी! सिनेमा के संगीत ने सिर्फ तुकबंदी वाले गीतों को ही कथानक का हिस्सा नहीं बनाया, बल्कि लोकगीतों को भी उसी शिद्दत से पिरोया गया! इसलिए कि लोक संगीत हमारी संस्कृति का एक सुरीला हिस्सा है! पर्व, तीज, त्यौहार और रस्मों-रिवाजों में गाए और बजाए जाने वाले गीतों को जब फिल्मों ने अपनाया तो वे अपनी सीमा से निकलकर दुनियाभर में छा गए।
इसलिए कि फ़िल्मी गीतों में सिर्फ शब्दों का ताना-बाना नहीं बुना जाता, इसके अलावा भी बहुत कुछ होता है। फिल्म के कथानक और पृष्ठभूमि के अनुरूप गीतों की रचना की जाती है। ऐसे में कई बार जब लोकगीतों को फिल्म के कथानक के अनुरूप पाया जाता है, तो उसे जगह दी जाती है। देखा गया है कि जब भी लोकगीतों और धुनों के प्रयोग किए, वे लोकप्रिय हुए। फिल्मों में बरसों से अलग-अलग प्रांतों का लोक संगीत सुना जा रहा है। लेकिन, सबसे ज्यादा लोकप्रियता मिली पंजाब, उत्तर भारत, राजस्थान और गुजरात के लोक संगीत को! ओपी नैयर, रवि, जीएस कोहली और इसके बाद में पंजाब की पृष्ठभूमि से आए संगीतकारों ने वहाँ के लोक गीतों को फ़िल्मी कलेवर में पिरोया!
1981 में आई ‘लावारिस’ में अमिताभ बच्चन के कवि पिता हरिवंशराय बच्चन ने अवधी लोकगीत से प्रेरणा लेकर ‘मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है’ गीत रचा था। ये गीत अपने दिलचस्प अंदाज के कारण बेहद लोकप्रिय भी हुआ। इतने सालों बाद आज भी इसे पसंद करने वालों की कमी नहीं है। इसी तरह यश चोपड़ा की फिल्म ‘सिलसिला’ का होली गीत ‘रंग बरसे भीगे चुनर वाली’ में पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोकगीतों का रंग हैं। लोकगीतों में अजब सी मस्ती होती है, जो सुनने वाले के दिल को प्रफुल्लित कर देती है। होली पर कई गीत गाए जाते हैं, पर बात ‘सिलसिला’ के लोकगीत ‘रंग बरसे’ के बिना बात पूरी नहीं होती। अमिताभ के ही गाए ‘बागबान’ के गीत ‘होली खेले रघुवीरा अवध में होली खेले रघुबीरा’ भी उतना ही पसंद किया जाता है। ‘गोदान’ के गीत ‘होली खेलत नंदलाल बिरज में’ को कोई भूल नहीं सकता! वी शांताराम की फिल्म ‘नवरंग’ के गीत ‘अरे जा रे हट नटखट न खोल मेरा घूँघट’ का जादू भी आज तक बरक़रार है।
मनोज कुमार की फिल्म ‘क्रांति’ के गीत ‘चना जोर गरम बाबू’ पर भी लोकरंग का प्रभाव स्पष्ट दिखाई दिया था। राजश्री की फिल्म ‘नदिया के पार’ में पूर्वांचल के एक पारंपरिक ब्राह्मण परिवार का कथानक था, तो वही प्रभाव गीतों में भी नजर आया। फिल्म के सभी गीत अवधी और भोजपुरी के लोकगीतों से प्रभावित थे। इस फिल्म के गीतों में कहीं न कहीं पूर्वांचल के लोकगीत सांस लेते सुनाई दिए थे। ‘बहारों के सपने’ फिल्म के गीत आजा पिया तोहे प्यार दूं, चुनरी संभाल गोरी उड़ी चली जाए रे में ब्रज के लोकगीतों का असर महसूस किया जा सकता है। ‘मिलन’ के गीत ‘सावन का महीना पवन करे सोर’ में भी गाँव के जीवन की निश्छलता दिखाई देती है।
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किशोर कुमार की ‘पड़ोसन’ के गीत ‘इक चतुर नार’ तथा ‘मेरे भोले बलम’ गीतों में लोकांचल को कौन महसूस नहीं करता! ‘सरस्वतीचंद्र’ के गीत ‘मैं तो भूल चली बाबुल का देस’ और ‘अनोखी रात’ के गीत ‘ओह रे ताल मिले नदी के जल में’ भी लोक जीवन की झलक है। राज कपूर की फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ के गाने मोहे अंग लग जा बालमा, ए भाई ज़रा देख के चलो, तीतर के दो आगे तीतर और ‘सावन भादों’ के गीत ‘कान में झुमका चाल में ठुमका’ में तो गाँव महकता है। ‘हीर राँझा’ फिल्म के गाने तेरे कूचे में तेरा दीवाना, डोली चढ़के, नाचे अंग वे गीतों में तो साफ़ पंजाब की मिट्टी की सुगंध है। नितिन बोस की फिल्म ‘गंगा जमना’ के गीतों पर उत्तर प्रदेश और बिहार की बोलियों विशेषकर अवधी, भोजपुरी तथा ब्रज की छाप थी। नैन लड़ जइहैं तो मनवां, ना मानूँ ना मानूँ ना मानूँ रे, ढूंढो ढूंढो रे साजना, दो हंसों का जोड़ा, तोरा मन बड़ा पापी जैसे गीत से लोक जीवन से जुड़े थे।
उत्तर भारत की लोक धुनों का भी फिल्मों में जमकर उपयोग हुआ! ‘सिलसिला’ का होली गीत ‘रंग बरसे भीगे चुनर वाली रंग बरसे‘ और ‘लम्हे’ का ‘मोरनी बागा में बोले आधी रात को’ अपने माधुर्य के कारण दिल के अंदर तक उतर जाता है। राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने भी ‘दिल्ली-6’ में छत्तीसगढ़ का लोकगीत शामिल किया था ‘सैंया छेड़ देवे, ननंद चुटकी लेवे’ को काफी पसंद किया गया! कल्याणजी-आनंदजी, इस्माइल दरबार और संजय लीला भंसाली ने भी अपने गीतों में गुजरात के लोक संगीत की मिठास घोली! गरबा और डांडिया गुजराती लोक संगीत का हिस्सा है। लेकिन, फिल्मों में गुजराती लोक संगीत की शुरुआत का श्रेय कल्याणजी-आनंदजी को दिया जाता है। ‘सरस्वतीचंद्र’ में लोक धुन पर बना गीत ‘मैं तो भूल चली बाबुल का देस’ फिल्म की जान बन गया था। उन्हें इस गीत की रचना पर राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। गुजराती लोक धुन पर ही उन्होंने ‘जौहर महमूद इन हांगकांग’ में ‘हो आयो-आयो नवरात्रि त्यौहार हो अंबे मैया’ गीत बनाया, जो आज भी सुनाई देता है। गुजरात के संगीत की लोकप्रियता ने ही इसे सिनेमा संगीत में ऊँचा स्थान दिलाया!
‘इंग्लिश विंगलिश’ की भावुकता ‘नवराई माझी लाडा ची’ के बिना दिल को पकड़ नहीं पाती। ‘माचिस’ को याद करते ही ‘चप्पा चप्पा चरखा चले’ अपने आप होंठों पर आ जाता है। ‘मिशन कश्मीर’ का गीत ‘भुंबरो भुंबरो श्याम रंग भुंबरो’ के बिना पूरी नहीं लगती। ‘हम दिल दे चुके सनम’ में ‘निम्बुडा निम्बुडा’ ही नायिका के भोलेपन और उसकी अल्हड़ता को उभार सकता है। इतना ही नहीं, फिल्म न चले लेकिन उसके लोकगीत उसे हमारे यादों में बसा देते हैं। चाहे वह ‘दिल्ली-6’ का ‘ससुराल गेंदा फूल’ हो या ‘दुश्मनी’ का ‘बन्नो तेरी अखियां सुरमेदानी’ गीत हो! ‘तीसरी कसम’ यदि अमर हुई है, तो वह भी उसके लोक संगीत के कारण। फिल्म संगीत से लोक संगीत की हिस्सेदारी को अलग कर दिया जाए, तो सुरों की ये दुनिया विधवा की जिंदगी की तरह बेरंग हो जाएगी।
‘गोदान’ का गीत ‘पिपरा के बतवा सरीखे मोर मानव के हियरा में उठत हिलोर’ नायक के मन में अपने गाँव की हूक जगाता है और गांव की सौंधी सुगंध याद दिलाता है। वैसे ही जैसे ‘मेरे देश में पवन चले पुरवाई ओ मेरे देश में’ कराता है। ‘मेरा रंग दे बसंती चोला मेरा रंग दे चोला’ पंजाब का बच्चा-बच्चा गाता है। ऐसा कौन होगा जो ‘ए मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछड़े चमन, तुझ पे दिल कुर्बान’ पर आँखें नम न करता हो। खासकर वे जो अपने वतन से दूर है तो! क्योंकि, इस गीत में मिट्टी की महक है। ये लोक संगीत की ही तरंग है कि नौशाद एक ही फिल्म में ठेठ भोजपुरी में सुनाते हैं ‘नैन लड़ गई हैं तो मनवा मा खटक होई बे करी’ तो उसी नायक से पंजाबी ताल पर भी गंवा देते हैं ‘उड़े जब जब जुल्फें तेरी’ और किसी दर्शक को यह बात खटकती भी नहीं। आज दशकों बाद भी ये दोनों गाने हमें आनंदित करते हैं।
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कुछ संगीतकारों के गीतों में तो लोक संगीत की खुशबू ही महकती रही है। नौशाद के गीतों में उत्तर भारत का लोक संगीत महकता था, तो अनिल बिस्वास और सलिल चौधरी के गीतों में रवींद्र संगीत हिलोरें मारता था। खय्याम ने पहाड़ी लोक संगीत से अपने गीतों को समृद्ध किया, तो सचिन देव बर्मन के गीतों में तराई का लोक संगीत था। ओपी नैयर, उनके सहायक जीएस कोहली और उषा खन्ना के गीतों में पंजाब की मस्ती साफ़ सुनाई देती थी जिसे लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने भी कुछ हद तक अपनाया। कल्याणजी-आनंदजी ने गरबे पर आधारित गीतों से चाशनी घोली तो आनंद मिलिंद के पिता चित्रगुप्त ने पूर्वी और उत्तर भारत के लोक संगीत से सिने गीतों को सरोबार किया।
हरिप्रसाद चौरसिया और शिव शर्मा के साथ साथ विशाल भारद्वाज ने उत्तर भारत और कश्मीर के लोकगीतों का सुंदर उपयोग किया है। लक्ष्मीकांत प्यारेलाल और आरडी बर्मन ने गोवा के लोक गीतों को भी अपनाया। बॉबी का ‘है है है है रे साहिबा’ और ‘सागर’ का ‘ओ मारिया ओ मारिया’ ऐसे ही गीत हैं। राजेश रोशन ने इसी तर्ज पर मूंगड़ा रे मूंगड़ा में गुड़ की डली’ गीत रचा था। ख़ास बात तो यह कि फिल्मों के गीतों में लोक गीतों का यह घालमेल इतनी सफाई से किया कि दर्शक समझ ही नहीं पाए। ‘नया दौर’ में धोती-कुर्ता पहने दिलीप कुमार और घाघरा चोली पहने वैजयंती माला पंजाब के लोक गीतों पर क्यों थिरकी या फौजी ड्रेस पहने मिथुन के साथ राजस्थानी वेशभूषा में अनिता राज ‘गुलामी’ में ‘जिहाल ए मस्कीं मकुन ब रंजिश’ पर क्यों झूमे! यह लोक संगीत का जादू ही था, जिसने प्रांत और भाषा की दीवार ढहाकर कानों में माधुर्य और पैरों में थिरकन भरने का कमाल किया।