कानून और न्याय:अनुच्छेद 370 प्रावधान जम्मू-कश्मीर के लिए अनूठा नहीं!

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कानून और न्याय:अनुच्छेद 370 प्रावधान जम्मू-कश्मीर के लिए अनूठा नहीं!

 

सर्वोच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ ने पूछा कि ऐसी स्थिति में 1957 के बाद क्या होगा, जब संविधान सभा भंग हुई। उन्होंने पूछा कि आप संवैधानिक मशीनरी कैसे स्थापित करेंगे! ऐसा नहीं हो सकता कि चूंकि कोई संविधान सभा नहीं है, आप अनुच्छेद 370 को निरस्त करने या संशोधित करने के प्रस्ताव पर बिल्कुल भी विचार-विमर्श नहीं कर सकते हैं। हम देखते हैं कि उन्होंने किस प्रक्रिया का पालन किया। आपके अनुसार इसे करने की सही प्रक्रिया क्या होगी! इस पर कपिल सिब्बल का कहना था कि ऐसी कोई प्रक्रिया नहीं थी, जो अनुच्छेद-370 को निरस्त कर सके। इस अनुच्छेद ने जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा के विघटन के बाद स्थायित्व ग्रहण कर लिया था। हालांकि, पीठ इससे संतुष्ट नहीं दिखी। जस्टिस कौल ने मौखिक रूप से टिप्पणी की कि आप क्या यह कह रहे हैं कि संविधान के अन्य प्रावधान एक प्रक्रिया के माध्यम से संशोधन करने में सक्षम हो सकते हैं। बुनियादी ढांचे के खिलाफ प्रावधानों के अलावा, यह एक प्रावधान है जिसे कभी भी संशोधित नहीं किया जा सकता। संविधान भी एक जीवंत दस्तावेज है। क्या आप कह सकते हैं कि इसे बदलने की कोई व्यवस्था नहीं है। आप यह कह रहे हैं कि इसे बदला नहीं जा सकता, भले ही पूरा कश्मीर इसे चाहे!

दूसरे याचिकाकर्ताओं में से याचिका के वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि विशेष प्रावधान जम्मू-कश्मीर के लिए अनूठा नहीं है। कई दूसरे राज्यों के पास भी यह है। सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस सूर्यकांत की सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ को संबोधित करते हुए डाॅ राजीव धवन ने कहा कि राज्यों की स्वायत्ता हमारे संविधान के लिए मौलिक है। वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन ने भारतीय संविधान की विविधता को उजागर करने के लिए भारतीय संविधान के विभिन्न प्रावधानों के माध्यम से समझाया। उन्होंने यह रेखांकित किया कि जम्मू और कश्मीर (जेएंडके) एकमात्र राज्य नहीं था, जिसे स्वायत्तता प्रदान की गई थी। उनके अनुसार यह संविधान का मौलिक हिस्सा है। उन्होंने तर्क दिया कि सत्ता का लोकतंत्रीकरण आवश्यक है। इसके अस्तित्व के बिना राज्यों को दी गई स्वायत्तता तथा जरूरत पड़ने पर लोगों को दिए गए विशेष प्रावधान और रियायतें, भारत का आवश्यक भाग है।

राज्यों की स्वायत्तता संविधान के लिए मौलिक है, विशेष प्रावधान नियमित विशेषताएं हैं। इसके बजाए यह महासंघ के भीतर स्वायत्तता और लोगों के संबंध में बनाए गए विशेष प्रावधान थे, जिसने संविधान को बनाया। विभिन्न राज्यों को स्वायत्तता देने वाले संविधान के विभिन्न प्रावधानों के बारे में वरिष्ठ अभिभाषक धवन ने बहस के दौरान कहा कि इसे हटा दें। हमें इतने बड़े संविधान की जरुरत भी नहीं है। उन्होंने अपने तर्कों के इस चरण की शुरूआत अनुच्छेद 164 के प्रावधान के साथ की। इसमें विशेष रूप से कहा गया कि बिहार, मध्यप्रदेश और उड़ीसा राज्यों में, आदिवासी कल्याण का प्रभारी एक अलग मंत्री होगा। यह अनुसूचित जाति एवं पिछड़ा वर्ग कल्याण का या कोई अन्य कार्य का प्रभारी भी हो सकता है।

इसके बाद उन्होंने अनुच्छेद 371 और 371-ए से लेकर 371जे तक की बात कही जो विभिन्न राज्यों के लिए विशेष प्रावधान प्रदान करते हैं। संदर्भ के लिए अनुच्छेद 371 गुजरात और महाराष्ट्र से संबंधित प्रावधानों का प्रावधान करता है। अनुच्छेद 371-ए नागालैंड के लिए, 371-बी असम के लिए, 371-डी आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के लिए, 371-ई आंध्र प्रदेश में केंद्रीय विश्वविद्यालय के लिए, 371-एफ सिक्किम के लिए, 371-जी मिजोरम के लिए, 371-एच अरूणाचल प्रदेश के लिए, 371-आई गोवा के लिए और 371-जे कर्नाटक के लिए है। इसके अतिरिक्त, उन्होंने इस बात पर भी प्रकाश डाला कि अनुच्छेद 239-ए और 239-एए क्रमशः केंद्र शासित प्रदेशों पांडिचेरी और दिल्ली के लिए विशेष शासन व्यवस्था करते हैं।

उन्होंने दो क्षेत्रों के बारे में विस्तार से बताया। वे थे अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन और नियंत्रण से संबंधित प्रावधान। इन अनुसूचियों के साथ उन्होंने अनुच्छेद 244-ए और अनुच्छेद 275 का भी उल्लेख किया। उन्होंने तर्क दिया कि एक साथ पढ़ने पर ये प्रावधान भारत के भीतर स्वायत्त राज्यों पर विचार करते हैं और विविधता को ध्यान में रखते हुए ऐसे क्षेत्रों की विशेष विशेषताएं देते हैं। उन्होंने कहा कि नागालैंड में स्वायत्त परिषदें हैं। ये भारत की संघीय एकता के लिए सुरक्षित उपाय हैं, जैसा कि 370 था। यह हमारे संविधान में संघवाद की बुनियादी संरचना का हिस्सा है। संविधान में इनके संबंध में संघवाद के लिए सीमाएं हैं। उन्होंने जोर देते हुए कहा कि हमारा संविधान स्वायत्त राज्य बनाने से नहीं कतराता। राज्यों की स्वायत्तता हमारे संविधान के लिए मौलिक है। स्वायत्तता हमारे संविधान से अलग नहीं है। यह कहना कि संविधान में विशेष प्रावधान नहीं किए जा सकते, संविधान के लिए एक अभिशाप होगा।

ये विशेष प्रावधान कुछ वर्गों से संबंधित हैं। ये प्रावधान हमारे संविधान की नियमित विशेषताएं हैं। इनके बिना, एससी, एसटी, ओबीसी के लिए इतना कुछ नहीं किया जा सकता था। इस संदर्भ में डाॅ धवन ने कहा कि भारतीय संविधान दुनिया के सबसे विविध संविधानों में से एक है। इस दलील पर जस्टिस कौल ने जवाब दिया कि आप सही कह रहे हैं, हमारा संविधान संभवतः पूरे योरप की तुलना में अधिक विविधतापूर्ण है। अपनी दलीलों को और विस्तार से बताते हुए डाॅ धवन ने कहा कि भारत सिर्फ एक असममित संघ नहीं है, बल्कि वास्तव में एक बहुसममित संघ है। उन्होंने यह भी कहा कि योरप, अमेरिका, सब-सहारा अफ्रीका, दक्षिणी समुद्र के कुछ हिस्सों को लें, मैंने इन्हें असममित प्रावधान कहा है। ये वास्तव में बहुसममित प्रावधान हैं। यह हमारे संविधान को दुनिया के किसी भी अन्य संविधान से भिन्न बनाता है। विषमता के सरल उदाहरण कनाडा हैं, आपके पास एक क्षेत्र में फ्रेंच और दूसरे में अंग्रेजी है या फिर बेल्जियम, जहां तीन भाषाएं हैं वे असममित हैं। भारतीय संविधान बहु सममित है जिसमें से जम्मू और कश्मीर भी एक हिस्सा है।

उनके अनुसार 370 को केवल अनुच्छेद 368 के माध्यम से ही संशोधित किया जा सकता है। उन्होंने तर्क दिया कि अनुच्छेद 370, 1950 से 26 जनवरी 1957 तक पूरी तरह से लागू था। जम्मू-कश्मीर संविधान सभा के पास अनुच्छेद 370 में संशोधन करने का विकल्प था। हालांकि, विधानसभा ने अनुच्छेद में संशोधन करने की शक्ति का प्रयोग नहीं किया और 1957 में भंग कर दिया। विधानसभा भंग होने से अनुच्छेद 370 (2) एवं (3) समाप्त हो गए। अनुच्छेद 370 (1) जीवित रहा और लागू रहा। इसी के अनुसार, आईओए के भीतर के मामलों में केवल जम्मू-कश्मीर सरकार के साथ परामर्श की आवश्यकता थी। लेकिन, अनुच्छेद 370(1) के तहत भारतीय संविधान के अन्य प्रावधानों को लागू करने के लिए अनिवार्य रूप से सहमति प्रक्रिया का पालन करना जरुरी था।

इस प्रकार, अनुच्छेद 370 को भंग करने के लिए, भारतीय संविधान में संशोधन करने और फिर अनुच्छेद 370 को निरस्त करने की उचित प्रक्रिया अनुच्छेद 368 के अनुसार अपनाई जानी थी। ऐसा इसलिए था, क्योंकि अनुच्छेद 370(1) एक कार्यकारी शक्ति है। इसका उपयोग भारतीय संविधान में संशोधन करने के लिए नहीं किया जा सकता है। इसे केवल अनुच्छेद 368 के माध्यम से ही संशोधित किया जा सकता है। इसी तरह, जम्मू-कश्मीर संविधान में संशोधन करने की शक्ति भी संघ के पास नहीं है। जम्मू-कश्मीर संविधान की धारा 147 में निहित है, जिसका उपयोग पहले जम्मू-कश्मीर संविधान में संशोधन करने के लिए किया गया था।

एक और संविधान जम्मू-कश्मीर को भारत में सम्मिलित मानता है। दूसरी तरफ जम्मू-कश्मीर को एक अस्थाई तौर से विशेष दर्जा भी देता है। ऐसे में दारोमदार उच्चतम न्यायालय पर आता है कि संविधान एवं इन सब अनुच्छेदों की व्याख्या करें और इस मामले में अंतिम आदेश प्रदान करें। कानून के विभिन्न पहलूओं की व्याख्या भी की जाएगी। भारत सरकार की तरफ से भी अपना पक्ष एवं विधिक पहलूओं को सर्वोच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ के सामने रखा जाएगा। लेकिन, इसे हर भारतीय नागरिक को जानना चाहिए। यह सवाल दिलचस्प होने के साथ भारत की आत्मा से भी जुड़ा हुआ है।