गांधी का सब धर्मों के प्रति समानता का भाव…

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गांधी का सब धर्मों के प्रति समानता का भाव…

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी होते तो आज हिंदू और हिंदुत्व की व्याख्या अपनी तरह से करते। 21 वीं सदी में भारत में हिंदू और हिंदुत्व को लेकर चर्चा विशेष रूप से हो रही है। पर गांधी गीता में  गोता लगाकर ही जिंदगी की हर समस्या का समाधान पा लेते थे। और वैष्णव भजन गाकर अपनी आत्मा को तृप्त कर लेते थे। हिंदू धर्म में इतने गहन विश्वास का ही परिणाम था कि वह सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखने की क्षमता रखते थे।

महात्मा गाँधी का जन्म हिंदू धर्म में हुआ था। और उनके पूरे जीवन में अधिकतर सिद्धान्तों सत्य, अहिंसा, प्रेम, ब्रह्मचर्य आदि सबकी उत्पति हिंदू धर्म से प्रेरित मानी जाती है। वहीं साधारण हिंदू की तरह वे सारे धर्मों को समान रूप से मानते थे और इसलिए उन्होंने धर्म-परिवर्तन के सारे तर्कों एवं प्रयासों को अस्वीकृत किया। वे ब्रह्मज्ञान के जानकार थे और सभी प्रमुख धर्मो को विस्तार से पढ़ते थे। उन्होंने हिंदू धर्म के बारे में कहा कि हिंदू धर्म, इसे जैसा मैंने समझा है, मेरी आत्मा को पूरी तरह तृप्त करता है, मेरे प्राणों को आप्लावित कर देता है। जब संदेह मुझे घेर लेता है, जब निराशा मेरे सम्मुख आ खड़ी होती है। जब क्षितिज पर प्रकाश की एक किरण भी दिखाई नहीं देती। तब मैं ‘भगवद्गीता’ की शरण में जाता हूँ और उसका कोई-न-कोई श्लोक मुझे सांत्वना दे जाता है। और मैं घोर विषाद के बीच भी तुरंत मुस्कुराने लगता हूं। मेरे जीवन में अनेक बाह्य त्रासदियां घटी है और यदि उन्होंने मेरे ऊपर कोई प्रत्यक्ष या अमिट प्रभाव नहीं छोड़ा है तो मैं इसका श्रेय ‘भगवद्गीता’ के उपदेशों को देता हूँ। गाँधी ने भगवद् गीता की व्याख्या गुजराती में भी की है। महादेव देसाई ने गुजराती पाण्डुलिपि का अतिरिक्त भूमिका तथा विवरण के साथ अंग्रेजी में अनुवाद किया है। गाँधी के द्वारा लिखे गए प्राक्कथन के साथ इसका प्रकाशन 1946 में हुआ था।

गाँधी का मानना था कि प्रत्येक धर्म के मूल में सत्य और प्रेम होता है। उनका कहना है कि ‘कुरान’, ‘बाइबिल’, ‘जेन्द-अवेस्ता’, ‘तालमुड’, अथवा ‘गीता’ किसी भी माध्यम से देखिए, हम सबका ईश्वर एक ही है और वह सत्य तथा प्रेम स्वरूप है। ढोंग, कुप्रथा आदि पर भी उन्होंने सभी धर्मो के सिद्धान्तों के प्रति सवालिया रुख अख्तियार किया। वे एक अथक समाज सुधारक थे।

उन्होंने समाज में धर्म कब नाम पर कुरीतियों का विरोध भी खुलकर किया। उन्होंने लिखा कि जिस तरह मैं ईसाई धर्म को स्वीकार नहीं कर सका, उसी तरह हिंदू धर्म की संपूर्णता के विषय में अथवा उसके सर्वोपरि होने के विषय में भी मैं उस समय निश्चय नहीं कर सका। हिंदू धर्म की त्रुटियां मेरी आँखों के सामने तैरती रहती थीं। यदि अस्पृश्यता हिंदू धर्म का अंग है जो ऐसा जान पड़ा कि वह एक सड़ा और बाद में जोड़ा गया अंग है। अनेक संप्रदायों और अनेक जाति-भेदों का होना भी मेरी समझ में नहीं आता था। केवल वेद ही ईश्वर-प्रणीत हैं, इस बात का क्या अर्थ है। यदि वेद ईश्वर-प्रणीत हैं, तो बाइबिल और कुरान क्यों नहीं हैं?

मुझे प्रभावित करने के लिए जिस तरह ईसाई मित्र प्रयत्नशील थे, उसी प्रकार मुसलमान मित्र भी प्रयत्नशील थे। अब्दुल्ला सेठ मुझे इस्लाम का अध्ययन करने के लिए प्रोत्साहित करते रहते थे। उसकी खूबियों की चर्चा तो वे किया ही करते थे। पर गांधी जी ने साफ किया कि जितनी जल्दी हम नैतिक आधार से हारेंगे उतनी ही जल्दी हममें धार्मिक युद्ध समाप्त हो जायेगा ऐसी कोई बात नहीं है कि धर्म नैतिकता के ऊपर हो। उदाहरण के तौर पर कोई मनुष्य असत्यवादी, क्रूर या असंयमी हो और वह यह दावा करे कि परमेश्वर उसके साथ हैं, कभी हो ही नहीं सकता।

गांधी के इन भावों की व्याख्या अपनी तरह से की जा सकती है। पर गोता लगाने पर ही सत्य को महसूस किया जा सकता है। मूल भाव यही है कि सभी धर्म सत्य और प्रेम का मार्ग दिखाते हैं और बुराईयों से दूर रहने की सीख देते हैं। अपने धर्म में गहन विश्वास पैदा कर सभी धर्मों को समान भाव से देखने की दृष्टि विकसित की जा सकती है…।