सांच कहे ता! एक गाँधीवादी की चुनाव व्यथा!

817

सांच कहे ता! एक गाँधीवादी की चुनाव व्यथा!

जयराम शुक्ल

 

मुद्दतों बाद महात्मा गांधी ने सोचा कि भारतवर्ष में जाकर क्यों न चुनाव लड़ कर देखा जाए कि अब क्या हाल है।

पुनर्जन्म की झंझट में फंसे बिना वे अपने अनुयायी दादूदयाल दयापति की आत्मा में प्रवेश कर गए और टिकट की अर्जी दिलवा दी।

दयापति आलाकमान के फॉर्मूले से निकले ऐसे उम्मीदवार हैं जिन्हें भीषण विचारमंथन के बाद टिकट दी गई थी।

यह टिकट उन निंदकों के मुंह पर तमाचा थी, जो प्राय: कहा करते थे कि राजनीति बेईमानों की बपौती बन चुकी है और नागनाथ-सांपनाथ के अलावा कोई विकल्प नहीं।

दयापति ईमानदारी में हरिश्चंद्र, समाजसेवा में बिनोवा भावे, विद्वता में विवेकानंद हैं, आत्मा में गांधी घुसे ही हैं।

टिकट घोषित होने के बाद दयापति जी जैसे ही पार्टी कार्यालय पहुंचे उनकी आंखें फटी रह गईं। देखा कि पार्टी दो गुटों में बदल चुकी है।

असंतुष्ट गुट की बैठक वहां चल रही थी। उनके कान में जैसे ही सुनाई दिया कि – आलाकमान अंधा हो गया है… दयापति जैसे सड़ियल उम्मीदवार को उतारकर खुदकुशी की है… हम लोग उसे हरगिज नहीं जीतने देंगे।

बेचारे दयापति ऐसे कटुवचन सुनते ही उल्टे पांव भागे और सीधे आलाकमान के दफ्तार पहुंचे। घुसते ही पार्टी प्रवक्ता से सामना हो गया।

प्रवक्ता उन्हें देखते ही बोल पड़ा- दयापति जी आपने तो पार्टी को कहीं का नहीं छोड़ा। जब आप पर इतने एलीगेशन थे तो पहले हिंट क्यों नहीं किया?

दयापति बोले – मतलब! फाइल के पुलिन्दे निकालता हुआ प्रवक्ता बोला – ये हैं आपके खिलाफ फ्रॉडगीरी के दस्तावेज, बड़े छुपे रुस्तम निकले!

ये हलफनामा देख रहे हैं न – यह एक महिला का है जिसका कहना है कि आपके उससे अवैध संबंध रहे हैं, एक औलाद भी है। उसने डीएनए टेस्ट कराने की मांग की है।

दरअसल दयापति जी के आलाकमान पहुंचने के पहले ही एलीगेशन पहुंच चुके थे।
तभी आलाकमान का बुलावा आया।

आलाकमान दरअसल कुछ नहीं, ये जनता द्वारा रिजेक्टेड कुछ बुद्धिविलासियों का छोटा सा समूह होता है जो राजनीति का ज्ञान बघारता है और सुप्रीमों की कृपा से राज्यसभा की सांसदी को भोगता है।

चूंकि दयापतिजी को टिकट देने का राजनीतिक नवाचार सुप्रीमों ने ही किया था इसलिये आलाकमान का दायित्व बनता है कि वे दयापति को पूरा सपोर्ट करें।

गांधी टोपी लगाए एक बुजुर्ग आला मेम्बर ने कहा – दयापति जी आप घबराइये नहीं, राजनीति में आरोप-प्रत्यारोप चलते ही रहते हैं। झूठ के पांव नहीं होते, क्षेत्र की जनता आपको चुनकर निंदकों को करारा जवाब दे देगी।

प्रदेश व जिला वालों को अभी कहे देता हूं, किसी ने चू-चपड़ की तो उन्हें शंट कर दिया जाएगा।

दयापति जी को सामने चुनाव दिख रहा था। उन्होंने वक्त जाया करना ठीक न समझा। उल्टे पांव क्षेत्र में लौट आए। पार्टी कार्यालय पहुंचे तो माहौल बदला सा था।

सभी असंतुष्ट अचानक संतुष्ट हो चुके थे। पार्टी अध्यक्ष ने कहा – दयापति जी पूरा संगठन आपके साथ है – चुनाव लड़िये दिल खोलकर – फिर हें.. हें.. करता हुआ अन्य पदाधिकारियों को आंख मारी।

एक पदाधिकारी उठा और दयापति के कानों में बुदबुदाने लगा – दयापति जी विचलित होकर लगभग चीख उठें – सुनिये हम वोटरों को दारू-दक्कड़ न बांटेंगे न बांटने देंगे। दरअसल पदाधिकारी एक गाड़ी और दारू के लिए बीस हजार रुपये मांग रहा था।

दयापति अपने घर पहुंचे तो देखा नात-रिश्तेदार उनकी दलान में जमा थे। उनके एक बड़बोले भतीजे ने कहां – क्यों फूफाजी पार्टी ने अच्छा माल-टाल दिया होगा… इधर भी कुछ ढीलिये तब न निकलेंगे प्रचार में।

इस बीच गांव का सरपंच आ गया। दयापति को एक कोने ले जाकर बोला, गांवों की दलित बस्ती मुझे सौंप दीजिये आप आगे की देखिये। फिर रुककर बोला, हमने हिसाब लगाया है, दारू, कम्बल व वोट के दिन भोजन भंडारे का कोई सवा तीन लाख रुपये का खर्चा है।

दयापति सरपंच से निपटते कि उनके एक पुराने साथी आ गए। जो हाल ही में पटवारी से रिटायर हुए थे। टीटीएस (तीन तेरा सवा लख्खी) और डिएमटियों को एक कर दिया जाए तो चुनाव निकला समझिए।

दयापति यह कह पाते कि मुझे जातीय आधार पर चुनाव नहीं लड़ना है, रिटायर्ड पटवारी बोल पड़ा – उधर ठाकुर, पटेल, दलित सब लामबंद हो रहे हैं। चलिये ज्यादा देर नहीं – पांच गाड़ियों व उनके डीजल के खर्चे का प्रबंध करिये सब मैनेज हो जाएगा।

दयापति को दिन में ही हरिश्चंद्र, बिनोवा, विवेकानंद सपने में आने लगे। अदृश्य आवाज गूंजी इन सबको छोड़कर अकेले ही आगे बढ़ो, यानि एकला चलो। दयापति ने सभी से माफी मांगी व अकेले ही वोट मांगने निकल पड़े।

वे उस गांव में गए जिस गांव में स्कूल व सड़क बनवाने के लिये संघर्ष किया था। प्रवेश करते ही दो युवक मिले। दयापति उनसे वोट की अपील करते कि वे गाड़ी के पिछवाड़े कुछ तलाश करने लगें। भई कुछ है, दारू-सारू है कि वैसे ही भिखमंगे की तरह निकल पड़े वोट मांगने।

तरुणाई की इस ढिठाई पर दयापति को बड़ा कष्ट हुआ। वे बोले बेटा तुम लोग भारत के भविष्य हो – नया इतिहास गढ़ो हमारे साथ मिलकर।

दोनों युवक बोल पड़े – आपने हमें बुद्धू समझ रखा है क्या? तमाम चंदा लेकर माल अकेले ही पेल जाना चाहते हो। तुमसे तो अच्छा वो परदेसीलाल है जो ढोंग तो नहीं करता।

दयापति खेत की मेड़ पर भारत के भविष्य के बारे में सोच ही रहे थे कि भैय्याजी आ धमके।

दयापति जी, कुछ पैकेज वैकेज है! दयापति ने कहा, हमारी सरकार बन जाने दो इस क्षेत्र के विकास का स्पेशल पैकेज दिलवाएंगे।

भैय्या जी ने कहा, पब्लिसिटी का पैकेज, जीतना है तो प्रेस को मैनेज करना पड़ेगा। ये पैकेज उल्टी खबरों को सीधा करके आप की पब्लिसिटी को सही लाइन पर ले जाएगा।

दयापति के सामने लोकतंत्र का चौथा खंभा हिलते हुए दिखने लगा। कहीं सिर पर ही न गिर पड़े, वे वहां से आगे बढ़ लिये। तभी एक तेज बदबू का झोका उनकी नाक में घुसा।

आंखें फेरी तो उनकी पार्टी के पदाधिकारी, विरोधी प्रत्याशी के साथ जाम लड़ाते हुए चहक रहे थे, डीएनए टेस्ट का दावा करने वाली वो महिला मटक रही थी।

यह वाकया मतदान के एक दिन पहले का था। उन्होंने आसमान की ओर देखा, तो हरिश्चंद्र, बिनोवा, विवेकानंद की आंखों से आंसू झर रहे थे।

आंसुओं की बारिश से दयापति भीग गए। ऐसे लगा कि उनका एक बार फिर कायान्तरण हो रहा है… गांधी जी उनकी आत्मा से निकलकर तेजी के साथ राजघाट की ओर भाग चले।