Ram Mandir: राम जन्म भूमि आंदोलन के समय शंकराचार्य कहां थे ?
जिस किसी ने भी भारत को विविधताओं का देश कहा होगा तो तय जानिये कि गहन शोध के बाद ही कहा होगा। ऐसा देश इस ब्रम्हाण्ड में और कहां मिलेगा, जो अपने ही आराध्य,देवी-देवताओं पर सवाल खड़े करता है,अंगुली उठाता है।उन्हें साधिकार मिथक मानता है और सरकारें हलफनामा देकर कहती है कि राम काल्पनिक हैं। अब जाकर समझ आ रहा है कि पग-पग शमशीर,डग-डग वीर वाली इस देव भूमि पर दूर देश से छंटाक भर मुगल,अंग्रेज आकर सात सौ साल तक अत्याचार,व्याभिचार,लूटमार मचाते रहे, राज करते रहे तो अपने बाहुबल,बुध्दिबल से नहीं, बल्कि हमारी अनेकता से,परस्पर ईर्ष्या से,अंदरूनी खींचतान से,समान मान्यताओं के अभाव-अकाल से,एक-दूसरे को नीचा दखाने के चरित्र से और सच कहूं तो केवल अपने हित की चिंता की वजह से।
आज भी कुछ नहीं बदला। एक ओर देश सनातनी मूल्यों की मान्यताओं की डोली सजा रहा है,अपने आदर्श मर्यादा पुरुषोत्तम राम के मंदिर को भव्यता प्रदान कर रहा है,राम लला की प्राण प्रतिष्ठा के लिये वंदनवार सजा रहा है तो दूसरी ओर होड़ लगी है,इस बात की कि किसे बुलाया,किसे नहीं बुलाया ? क्यों नहीं बुलाया ? या हम नहीं जायेंगे या राम केवल उनके नहीं हैं या राम के नाम पर भाजपा-संघ राजनीति कर रहे हैं। विसंगति यह है कि बेहद निचले दर्जे की राजनीति तो वे ही कर रहे हैं, जो दूसरों पर राजनीतिक इवेंट बनाने का आरोप लगा रहे हैं। यह और बात है कि अब नये भारत में ऐसे लोगों की कोई परवाह नहीं करता, जो केवल आरोप-प्रत्योराप लगाने,छिद्रान्वयन में अपनी समग्र ऊर्जा लगाते हैं।
आरोप-प्रत्यारोप,मान-मनुहार,उलाहने के इस खेल का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण पहलू तो यह है कि इसमें कुछ स्वनामधन्य शंकराचार्य भी शामिल हो गये लगते हैं। वे शंकराचार्य, जो कल तक सनातनियों के पूजनीय रहे। हिंदुओं के धार्मिक मार्गदर्शक रहे, वे लोकेषणा के फेर में उस संसारी की तरह बयानबाजी कर रहे हैं, जैसे चुनावी राजनीति का खिलाड़ी करता है। चूंकि कुछ धर्माचार्यों ने अपने पद के प्रतिष्ठानुकूल संयमित व्यवहार नहीं किया तो आमजन के बीच भी उन्हें लेकर टीका-टिप्पणी का दौर चल पड़ा है। समझने वाले जानते हैं कि यह सब प्रकारातंर से हिंदू समाज का सनातनी मान्यताओं के ध्वाजावाहकों को भटकाने,विचलित करने का खटकरम ही है।
यह कितने शर्म और दुर्भाग्य की बात है कि जिन श्री रामचंद्र जी के अयोध्याा आगमन पर,उनकी जन्म भूमि में प्रस्थापित होने के चिर अविस्मरणीय पल को दिलोदिमाग में अंकित कर लेने को समूचे हिंदुस्तान को उमड़ पड़ना था,घर-घर दिवाली-होली मनना चाहिये,देश में आनंद-उल्लास की शीतल हवा बहना चाहिये, वहां आलोचना,आरोप,असहमति के अंधड़ उड़ रहे हैं। हालांकि अधिसंख्य देशवासियों की भावनाएं श्री राम मंदिर व राम लला के साथ है और उस अनमोल घड़ी के नजदीक आने के साथ ही उनके दिलों की धड़कन भी तेज होती जा रही है।इस बीच कुछ लोग अपने शाश्वत चरित्र के मद्देनजर कुछ न कुछ सुरसुरी छोड़कर विघ्न खड़ा करने से भी पीछे नहीं रहने को उद्यत हैं।
राम मंदिर के मसले पर दो शंकराचार्यों के विवादास्पद बयान भी सामने आ रहे हैं। कहा जा रहा है कि चूंकि मंदिर भवन निर्माण अधूरा है तो प्राण प्रतिष्ठा नहीं की जा सकती या शास्त्र सम्मत नहीं कहलाती।एक एतराज यह भी सामने आ रहा है कि मूर्ति स्थापना का कार्य केवल ब्राह्मणों की उपस्थिति या उनके हस्ते ही किया जा सकता है।उनका सीधा संकेत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ,चंपत राय आदि की ओर है।ऐसा कहने वालों के शास्त्र ज्ञान और पूजा—अनुष्ठान की विधि प्रक्रिया को चुनौती देने की तो खैर कोई बात ही नहीं,लेकिन विनम्रता के साथ यह जरूर कहना चाहूंगा कि पुरातन काल की तमाम बातों को वर्तमान संदर्भ और समय में अक्षरशः नहीं माना जा सकता। इक्कीसवीं सदी में जब मंदिरों की पूजा दलित भी करने लगे हैं और पर्याप्त संख्या में गैर ब्राह्मण भी इसे संपादित कर रहे हैं, तब ये तर्क बेमानी है कि पूजा,अनुष्ठान केवल ब्राह्मण ही कर सकते हैं या गर्भ गृह में वे ही रह सकते हैं।
माफी चाहूंगा,लेकिन एक शंकराचार्य तो इस मत के हैं कि मनु स्मृति को इस समय जस का तस लागू किया जाए। क्या सनातनी संत,महात्मा और आमजन इससे सहमत हो सकते हैं।जो धर्म,शास्त्र,वेद और विद्वान सर्व धर्म समभाव की बात करते हों।भगवान की पूजा को सबका अधिकार मानते हों ,वहां क्या मनु स्मृति की इस तरह की असंगत बयानबाजी को माना जा सकता है ? एक और बात यदि मनु स्मृति को ही मानना है तो दलितों को तो धार्मिक आख्यान सुनने का भी अधिकार नहीं।इतना ही नहीं तो जिनके कानों में भी धार्मिक आख्यान की आवाज भी सुनाई दे जाए,उसके कानों में सीसा डाल देना चाहिए। सोचिए,क्या सनातनी परंपरा में,हिंदू धर्म में,वेदों में इस तरह की बातों का कोई स्थान हो सकता है ?
एक और बात।जो अपने को शंकराचार्य कहते हैं,ऐसे महामना को भारत के संत समाज, आचार्य, महामंडलेश्वर,अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद और काशी की विद्वत परिषद ने मान्यता ही नहीं दी है।सुप्रीम कोर्ट ने उनकी इस प्रक्रिया पर रोक भी लगा रखी है तो वे शंकराचार्य कैसे हुए ?
इससे हटकर भी बात करें तो 1947 से 2023 तक कितने शंकराचार्यों ने राम मंदिर के लिए सड़क पर,अदालत में,संत समागमों में लड़ाई लड़ी? यह कार्य राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ,विश्व हिंदू परिषद और भाजपा ने किया। फैसला न्यायालय से आया,लेकिन संघर्ष तो राजनीतिक ही था। तब आज वे राम मंदिर शुभारंभ और राम लला प्राण प्रतिष्ठा पर अंगुली उठाने के हकदार तो बिलकुल नहीं हो सकते। राम मंदिर निर्माण अभियान तो भाजपा,संघ का ही था और इसका श्रेय भी निर्विवाद रूप से वे ही लेंगे।उन्होंने कभी नहीं कहा कि राम केवल उनके हैं। वे तो हर भारतीय के,प्रत्येक सनातनी के हैं।
इसलिए इस देव कार्य को सम्पूर्ण उत्साह और सहयोग,समर्थन से संपन्न होने देना समूचे सनातन समाज का दायित्व है।इस पुण्य बेला में बेवजह का विघ्न उत्पन्न कर कथित धर्माचार्य अपना मान सम्मान ही कम करवा रहे हैं। वे यदि राजनीतिक विरोधियों की भाषा की बजाय राम का काम निर्विघ्न होने देंगे तो उनकी निष्क्रियता को भी समाज भुला देगा।