प्रसंग : वैलंटाइन डे: गुलजार हुआ बाजार मगर बेजार है प्यार!  

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प्रसंग : वैलंटाइन डे: गुलजार हुआ बाजार मगर बेजार है प्यार!

वरिष्ठ पत्रकार अरुण नैथानी का विश्लेषण 

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ग्लोबलाइजेशन और उदारीकरण की फिजा में बाजार ने केवल शेयर मार्केट ही नियंत्रित नहीं किया, उसकी नजर सदियों से बहते शाश्वत प्रेम के स्रोतों पर भी पड़ी। बाजार अपने साथ कारोबार के गुण-सूत्र ही नहीं लाता, वह हमारे जीवन व्यवहार को बदलने की पुरजोर कोशिश करता है। ताकि इंसान को उत्पादन बना सके। पश्चिमी बाजार के अपने नायक हैं। उसके अपनी सुविधा के पर्व-त्योहार होते हैं। ये वे त्योहार होते हैं जो बाजार को ऊर्जा देते हैं। कारोबार को सींचते हैं। फिर धीरे-धीरे देश-दुनिया में एक प्रेम का देवता अवतरित हुआ। उस देश में भी जहां प्रेम की आध्यात्मिक और सांसारिक प्यार की अविरल धाराएं बहती रही हों।

मीरा और राधा का निच्छल प्रेम, जहां प्रेम का विपुल साहित्य रचा गया हो। अब चाहे वे निराकार-साकार भक्ति-प्रेम की अजस्र धाराएं हों, या बाह्य प्रेम की रीतिकालीन धारा। उस देश में जहां कामसूत्र और अजंता-एलोरा की गुफाओं में प्रेम के उदात्त रूप की अभिव्यक्ति हुई हो। जिसके मूल में सामाजिक वर्जनाएं नहीं थी, बल्कि सामाजिक मर्यादाएं थीं। प्रेम का वह उत्कृष्ट रूप, जो आज तुरत-फुरत प्यार करने वाली पीढ़ी शायद ही समझ पाए। तभी ये पीढ़ी प्यार की अभिव्यक्ति के लिये चाकलेट व टैडी बीयर का सहारा लेती नजर आती है।

जलवायु परिवर्तन और अलनीनो प्रभाव से ग्रसित हमारे मौसम के बावजूद अपने आसपास के वातावरण को महसूस कीजिए। कुदरत मुस्करा रही है। फूल खिले हैं खेत-खलिहान और घर आंगने में। वृक्षों पर नई कोपलें हैं। फलदार वृक्षों में बौर आने को है। थोड़ी-ठंड, थोड़ी गर्मी। कुदरत अपनी केंचुली बदल रही है। नये सृजन को तैयार है कायनात। किसान के आंगन में फसलें लहलहा रही हैं। खेतों में पीली सरसों मन मोह रही है। वासंती बयार चारों ओर अपनी मोहक अदा दिखा रही है। ऐसे में जंगल में मोर ही नहीं, मन-मयूर भी नाच उठे तो उसे इंसान की स्वाभाविक प्रतिक्रिया ही कहा जाएगा।

इस सम्मोहक वातावरण में यदि एक विदेशी प्रेम के देवता का अभिषेक बाजार करे तो उसकी कामयाबी का श्रेय हमारे परंपरागत प्रेमिल अहसासों तथा परिवेश को है। ऐसे में ही हफ्ते भर का प्रेम कैलेंडर लागू करने के लिये टैडी-बीयर और चाकलेट के सहारे की जरूरत बाजार को है। अपने देश में हफ्ता नहीं, साल के 365 दिन प्रेम का कैलेंडर है। दैहिक नहीं, शाश्वत प्रेम का।

अपने आसपास वसंत पंचमी को महकते देखिए। भूल जाइए कि आज वसंत पंचमी है। महसूस कीजिए कि कुदरत वसंत के रंग में रंगी है। किसान के खून-पसीने से महकते पीली सरसों के खेत को देखिये। सारी कायनात मुस्करा रही है। कह रही है देखो, इस मंडराते भंवरे से पूछो कि प्यार क्या होता है। अपनी जरूरत के लिये फूलों के पराग को लेकर उड़ जाता है। मासूम फूलों व कलियों को नहीं मसलता है। उसका प्रेम सदियों से शाश्वत है। आसमान में लहराती-इठलाती पतंगों से पूछिए वे किसके प्यार में बहकी हुई हैं। किसके प्यार में कट जाने को तैयार हैं। आखिर इतनी ऊंचाई पर जाने के बाद उसे फिर धरती पर लौटने की जरूरत क्यों होती है? प्रेम का अपना अनुशासन है। अपनी मर्यादा है।

सदियों से अटूट प्रेम और समर्पण की असंख्य कहानियां हमारे साहित्य और इतिहास के पन्नों पर दर्ज हैं। प्यार के लिये समर्पण और त्याग की कहानियां। सिर्फ एक खास दिन या सात दिन के टाइम टेबल के साथ नहीं। प्रेम मानव की सर्वोच्च सुकोमल अभिव्यक्ति है। समाज ने उसका विरोध कभी नहीं किया। सिर्फ उसके मर्यादा लांघने और फूहड़ प्रदर्शन का विरोध किया है। हर समाज के अपने कायदे-कानून होते हैं। उसके तालिबानी बनने की अपनी ठोस वजहें हैं। प्यार नफासत का नाम है। प्यार इंतजार का नाम है। प्यार परिपक्व उम्र का खिदमतगार है। वह अभिव्यक्ति में मर्यादा मांगता है। वह दैहिक मांसलता का तलबगार नहीं है।

वसंती बयार में पीत वस्त्रों में सजी-धजी कुदरत का इतराना देखिए। उसके साथ-साथ चलते सदियों से हमारे पूर्वजों द्वारा अर्जित संस्कारों का इजहार देखिए। घरों में पीले चावलों की महक देखिए। आकाश में इठलाती पतंगों को देखिए। खेतों में पीत वस्त्र धारण किए फसल को देखिए। प्रेम की सकारात्मकता को देखिए। किसी को रिझाने के लिये बाजारी उत्पादों की जरूरत नहीं होती। बाजार तो निर्मम है। बारिश होती है तो उसका छाता निकल आता है। सर्दी होती है तो गर्मी देने वाले उत्पादों का बाजार सज जाता है। ठंड होती है तो वह लोगों को डराकर अपने उत्पाद बेचना शुरू कर देता है। प्रदूषण बढ़ता है तो एयर प्यूरिफायर बेचने लगता है। त्योहार आते हैं, तो उपहारों की सेज सजा देता है। फिर वसंत का यौवन निखरता है तो प्रेम को बाजार बना देता है।

प्रेम तो सुकोमल अहसासों का इजहार है। जीवनपर्यंत साथ निभाने का वादा है प्यार। नये दौर का फलसफा, पहले उन्मादी प्यार, फिर कोर्ट-कचहरी के लिये तैयार। प्यार एक ठहराव का नाम है। ऐसी उच्छृंखलता क्योंकि प्रेम के इजहार के लिये बने गेड़ीरूट पर पुलिस-प्रशासन को निगाह रखनी पड़ती है। प्यार अराजकता का नाम नहीं है। उसकी संवेदनशीलता को महसूस करने की जरूरत है। ये रिश्तों का फास्ट-फूड नहीं है। धीमी आंच में पकने के बाद ही किसी व्यंजन में लजीज स्वाद आता है। वैसे ही प्रेम भी धीरे-धीरे अपनी पूर्णता को प्राप्त करता है।

सभ्य समाजों का दस्तूर रहा है कि रिश्तों की पवित्रता के लिए एक अनुशासित व्यवहार को तरजीह दी जाती है। यही किसी समाज का ताना-बाना भी तय करता है। उसमें पीढ़ी-दर-पीढ़ी अनुभवों का हस्तांतरण होता है। तभी वह पूर्णता से संपूर्णता की ओर बढ़ता है। समाज से मान्यता पाता है। ऐसे में प्रेम का इस तरह का इजहार न हो कि जिसे देख पुरानी पीढ़ी शर्मसार हो जाए।

इस प्रेम की सघन अभिव्यक्ति विवाह संस्था के रूप में देखिए। मां-बाप अपनी जीवन भर की पूंजी लगाकर बच्चों के प्रेमिल अहसासों को संबल देते हैं। उसमें जुटने वाले नाते-रिश्तेदार और मित्र ऐसे प्रेम को मान्यता देते हैं। यही वजह है कि भारत में वैवाहिक रिश्ते दीर्घकालीन होते हैं। भारत वह समाज है जिसने प्रेम को प्रतिष्ठा दी है। अलगाव को नहीं स्वीकारा है। यही वजह है कि इस समाज की डिक्शनरी में तलाक व डाइवोर्स शब्द का पर्यायवाची नहीं है। ये समाज प्रेमिल अहसासों को सार्थक परिणति तक पहुंचाने में विश्वास रखता है। तुरत-फुरत बाजारी प्रेम में वो गारंटी नजर नहीं आती जो सात जन्मों के बंधन की बात कह सके।

भारतीय परंपरा में वसंत पंचमी ज्ञान और विवेक की देवी सरस्वती को याद करने का दिन भी है। ये दिन सिर्फ प्यार में बहकने का ही दिन नहीं है। ये कलम पूजा का दिन भी है। जीवन के सात्विक मूल्यों की प्रतिष्ठा का भी दिन है। यह बताने के लिये कि हमें जीवन यात्रा में रिश्तों के निर्वाह में सात्विक व्यवहार की जरूरत भी है।

यह दिन देश के गांव-देहात में होलिका की स्थापना का दिन भी है। यह बताने के लिये कि ठीक चालीस दिन बाद रंगों की बहार आने वाली है। प्रेमिल अहसासों में शुष्क स्पर्श की अभिव्यक्ति का पर्व होली के आने की तैयारी है। मन के कलुष को त्याग कर प्रेम के रंग बरसाने का उत्सव आने को है। यह भी कि वासंती रंग से शुरू होकर चटख रंगों में रंग जाने का उत्सव आने ही वाला है।