कहानी: एक बूँद समंदर

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कहानी: एक बूँद समंदर

मीनाक्षी दुबे

बंद आँखों में फिर वही सैलाब… ठाठें मारता पानी… गोल-गोल भँवर में तेजी से घूमता और शोर मचाता पानी, सारी चीजों को अपने-आप में डुबोता हुआ पानी..।
ओह्ह..!! फिर वही सपना, वही तकलीफ़… मैं अपने-आप-को सपने की गिरफ्त से छुड़ाने की कोशिश में लग गई। मैं पसीने से तरबतर और थरथराते शरीर के साथ उठकर, बिस्तर पर बैठ गई। उस दिशा में कान लगाए जहाँ से पानी टपकने की आवाज़ आ रही थी, टप-टप, टप-टप।
मैं आवाज़ का पीछा करती बाथरूम तक जा पहुँची। मैंने देखा कि बाथरूम के नल से अपनी लयबध्द आवाज़ में मंद-मंथर गति से पानी टपक रहा है, टप-टप, टप-टप। पानी की इस छोटी-सी बूँद की यह टप-टप ही इतनी सघन जल-राशि में बदल गई थी। अक्सर यह सपना मुझे झकझोर जाता है और पीछे छूटे बचपन की ओर ले जाता है। जब मैने पहली बार ऐसा ही एक सपना देखा था।
तब गर्मी की छुट्टियाँ चल रही थी। दिन भर के खेलकूद और मस्ती के बाद छोटा भाई और मैं थककर आँगन में बिछी खटिया पर लेटे थे। जाने कब आँख लग गई और नींद में ही एक शोर सुनाई देने लगा, कई तरह की आवाजों से गड्डमड्ड शोर। बहते पानी की आवाज़ इन सब आवाजों पर भारी होने लगी।
ऐसा लगने लगा की पानी गाँव की कच्ची-पक्की नालियों में दौड़ते हुए, बेकाबू होकर, अब छोटी-बड़ी गलियों में भी घुस आया है। धीरे–धीरे गाँव की मुख्य सड़क और बाजार में भी दूर-दूर तक पानी फैल गया है। चारों ओर से पानी बढ़ रहा है, घने अंधेरे की तरह गहराते इस पानी में धीरे–धीरे सब कुछ डूब रहा है।
आँगन की लीपन-छाबन के साथ में आँगन में इकट्ठा हम सब चचेरे-ममेरे, भाई-बहनों की हँसी, ठहाक़े डूब रहे हैं। गीत, चुटकुले, कहानी, पहेलियाँ भी डूब चली। ओटले पर बैठे हम बच्चों के हाथों से छूटकर गुनगुनी धूप के टुकड़े भी डूबने लगे। मैं अपनी बंद आँखों से इस सैलाब मे सब कुछ डूबते हुए देख रही थी कि अनायास किसी आवाज़ से मेरा सपना टूट गया।
उनींदी आँखों से मैने देखा कि बिजली गुल है। लालटेन जल रहा है। दादी माँ अपनी गुस्से भरी आवाज़ में लगातार किसी को कोस रही है-
“वे राक्षस, बड़े-बड़े जूते और हाथ में जरीबें लेकर अंग्रेजों की तरह घर में घुस आए, चौका और देव-घर भी नहीं छोड़ा उन दुष्टों ने।‘’
‘’चौके में तो रोटी बन रही थी। बच्चे खा रहे थे तब भी बिना पूछे चौके-चूल्हे तक घुस आए, बच्चों के हाथ से रोटी छूट गई।‘’
‘’तामण में कितनी देर तक देव डूबे पड़े रहे। जरूर बड़ी सजा मिलेगी उन दुष्टों को।”
दादी माँ दुख और गुस्से से लगातार बड़बड़ा रही थी। उनके आँसू बह रहे थे, माँ की आँखें भी डबडबाई हुई थी। पिताजी अनायास उठ खड़े हुए और धीर-गंभीर स्वर में बोले-
“कैसा दुख… कैसा गुस्सा… एक दिन तो यह सब होना ही था, बल्कि और पहले हो जाना चाहिए था।”
इतना कहकर वे अपने कमरे में जाकर लालटेन के उजाले में कुछ कागज तैयार करने लगे। मैं कभी रोती हुई दादी माँ और माँ को देखती तो कभी गहराती रात में, लालटेन के उजाले में काम करते हुए पिताजी को। मुझे पिताजी पर गुस्सा आ रहा था कि इन दोनों को चुप कराने के बजाय वे अपनी लिखा-पढ़ी में आखिर कैसे व्यस्त हो गए।
सुबह पिताजी के स्कूल जाने के बाद मैंने देखा कि उनकी टेबल पर उनकी कक्षा के बच्चों की एक रिज़ल्ट शीट रखी है जिसकी इंक-पेन की लिखाई पर एक बड़ा-सा धब्बा बन गया है जैसा एक बूँद पानी गिरने से बनता है। शायद इसी वजह से पिताजी रात को दूसरी रिज़ल्ट शीट बना रहे होंगे।
सेटेलमेंट ऑफिस वाले अब रोज़ मोहल्ले में आते, हर घर की नपती करते, नाप-जोख कागज पर लिखते, मुआवजे में मिलने वाले रुपयों के बारे में बताते और चले जाते। पूरे मोहल्ले में हड़कंप मचता, सब दुखी होते और फिर ख़ामोशी छा जाती।

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दादी माँ जहाँ अपने घर को लेकर भावुक हो उठी थीं वहीँ हम सबके भविष्य को लेकर चिंतित भी थी। यह घर दादाजी और उनके जीवन-संघर्षों का प्रतीक तो था ही, बुआ और पिता जी के बच्पन की यादें भी इस घर से जुडी थी।
अब दादी माँ उन सैटलमेंट ऑफिस वालों को लगातार कोसती रहती। उनका बड़बड़ाना चलता ही रहता। सब मिलकर उन्हें समझाने की कोशिश करते पर वे किसी की कोई बात नहीं मानती केवल पिताजी की ऊँची आवाज़ सुनकर ही चुप होतीं। कुछ देर की चुप्पी के बाद वे फिर बड़बड़ाने लगती। धीरे-धीरे उन्होंने पिताजी की आवाज़ को सुनना भी बंद कर दिया। उनका खाना-पीना भी कम होने लगा, रात की नींद तो जैसे उड़ ही गई थी।

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वे किसी अँधेरे कोने में बैठकर ऐसे आँसू बहाती जैसे किसी अपने की मौत का शोक प्रकट कर रही हों, किसी अदृश्य को अपने घर के किस्से सुनाते हुए, वे घर छोड़ने के दुःख से दुखी हो जाती। दिन-दिन भर उनका शोक चलता रहता, हम उन्हें घेर कर उनके पास बैठ जाते, उनका दुःख दूर करने की कोशिश भी करते पर वे अपनी ही दुनिया में गुम रहतीं। अपने घर में रहते हुए भी वे अपने घर से, अपने परिवार से दूर हो रही थीं। उन्हें हम सब कभी तो अपने लगते और कभी वे हमें पराया समझ लेतीं। सारे सांसारिक रिश्तों से दूर उनकी एक अलग ही दुनिया बनती जा रही थी।
उनकी आँखों का सारा पानी बह चुका था, अब उनमें केवल वीरानी दिखाई देती। इस वीरानी में हम स्नेह का बिरवा तलाशते हुए थक जाते। सभी को दुलार करने वाली दादी माँ अब केवल हड्डियों का ढाँचा भर दिखतीं। हम सब उन्हें देख दुखी होते रहते।
ऐसे ही खामोशी भरे दिनों में मैंने फिर से यही डूब का सपना देखा।
मैने देखा कि, चारों ओर लबालब पानी भरा है, गर्मी भरी दोपहरी में बड़ियाँ सुखाती और कच्ची कैरी के अमोलों की निगरानी करती दादी माँ जो थोड़ी देर पहले यहीं थी अब कहीं दिखाई नहीं दे रही हैं। आँगन में सूखते, उनके बनाए हींग और नमक मिले इमली के लड्डू कुछ दूर लुढ़के और फिर वे भी पानी में डूबने लगे। दादी माँ के चश्में के साथ उनकी कुबड़ी (लाठी) भी बहने लगी। जब उनकी साड़ी का नर्म आँचल और आँचल में समाई ममता भी, पानी में बह चली तो मैं जोर से चिल्लाने लगी और दादी माँ को डूबने से रोकने की कोशिश करने लगी, तभी छोटी बुआ ने मुझे झकझोर कर जगा दिया और पूछने लगी-
“क्या हुआ, कोई बुरा सपना देखा क्या?”
मै बहुत डर गई थी, मैने कसकर बुआ का हाथ पकड़ लिया और कहा-
“हाँ, बहुत बुरा सपना देखा।”
तभी मेरे कानों में गीता-पाठ करते पिताजी की आवाज़ सुनाई दी और माँ और बुआ सहित इकट्ठा परिवार-जनों की सिसकियाँ भी। मै घबराकर वहाँ जा पहुँची।
पिताजी ने अपनी आँख में आई पानी की एक बूँद को अंगुली मे सहेज कर दूर छिटक दिया और फिर से पाठ करने लगे-
‘’वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोsपराणि
तथा शरीराणि यथा विहाय
जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही॥‘’
‘’जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है।‘’
श्लोक पढने के बाद जब भावार्थ पढते हुए पिताजी की दूसरी आँख से भी इसी तरह पानी की एक बूँद झर्र से झरी तो मुझे यही लगा कि कूलर की हवा के झपाटे से पिताजी की आँख में पानी आ गया है।
दादी माँ के जा चुकी थी, यह पूरा दिन दुख और परेशानी में बीता। रात को जब मैं सोने लगी तो वह सपना याद आया। मुझे लगा कि शायद सभी घर वालों के आँसू ही बाढ़ बनकर सपने में आए हों…।
इसी बीच पूरा एक साल बीत गया, साल भर दादी माँ बहुत याद आई.. । दादी माँ की बरसी की पूजा के बाद अब रात हो चली थी। नीला आसमान तपती धरती को ठंडक देने की कोशिश में लगा था लेकिन रुक-रुक कर चलते हवा के गरम झोंके उसकी इस कोशिश को नाकाम कर रहे थे। आसमान की चादर में टँके सितारे अपनी भरपूर चमक के साथ टिमटिमा रहे थे। हमेशा की तरह इन सितारों में सप्तर्षि, पुच्छल तारा, ध्रुव तारा और आकाश गंगा ढूँढने वाले वाले हम दोनों भाई-बहन आज, अपनी-अपनी खटिया पर चुपचाप लेटकर, आसमान को सूनी निगाहों से ताक रहे थे। साल भर से पसर रही चुप्पी अब एक सन्नाटे में बदल गई थी।
सोच-विचार में आँख लगी ही थी कि फिर वही सपना…! ओह्ह…!! सपने में सब कुछ बहता और डूबता हुआ दिख रहा था।

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छोटे भाई के बचपन के साथ मेरी किशोर उम्र की उमंग भी इस पानी के संग बहने लगी। माँ-पिताजी के सुख-दुख, हमारा अड़ोस-पड़ोस, संगी-साथी भी बह कर कहीं दूर जाने लगे। आँगन में लगे नीम की घनी छाँव डूबी। आँगन के साथ घर, घर के साथ मोहल्ला और मोहल्ले के साथ पूरा गाँव मुझे डूबता दिखाई देने लगा। खेत, खलिहान, जंगल, मैदान भी डूबते दिखाई दे रहे थे। मैं एक नाकाम कोशिश के साथ सब कुछ सहेज लेना चाह रही हूँ पर कहाँ से शुरू करूँ.. कुछ समझ में नहीं आ रहा… । धीरे-धीरे सब कुछ समा गया उस अथाह जलराशि में।
मैंने कसकर खटिया की दोनों ईंसे (पाटी) पकड़ ली और ख़ुद को डूबने से रोकने की कोशिश करने लगी। पानी धीरे-धीरे कम होने लगा। छोटी-बड़ी धाराएँ विलीन होने लगी और अब रुक-रुक कर टपकती बूँद की आवाज़ स्पष्ट होने लगी। डूब के सपने से बोझिल आँखों को मैंने धीरे-धीरे खोला। मेरे सिराहने बैठी माँ चुपचाप बांस की सींकों से बने पंखे से मुझे हवा कर रही थी। पनिहारे की टंकी के नल से पानी टपक रहा था टप–टप, टप–टप।
हवा के झोंके रुके रुके से थे। जून के महीने की उमस भरी गर्म रात थी हमेशा की तरह बिजली गुल थी और मैं पसीने से तरबतर थी।
पिताजी के कमरे से आती लालटेन की रोशनी की एक फाँक में मैंने माँ के चेहरे को देखा। चुप्पे से चेहरे पर आँसुओं की सूखी लकीरें थी। मेरा मन दुखी हो उठा, सिसकियों के साथ रुलाई फूट पड़ी। अपनी खटिया पर लेटा, छोटा भाई भी हमारे पास आ खड़ा हुआ, हमारी सिसकियों में उसका बाल सुलभ रुदन भी शामिल हो गया।
पिताजी लालटेन की रोशनी में कागज पर कुछ रेखाएँ खींच रहे थे। माँ, हम दोनों को चुप कराने की कोशिश में लगी थी। मैं अपनी आँखों में आँसू लिए दौड़कर पिताजी के पास जा पहुँची लेकिन मुझे निराशा हाथ लगी। पिताजी अपने काम में व्यस्त रहे। उन्होंने बिना मेरी ओर देखे अपनी गंभीर आवाज़ में माँ से भाई को चुप कराने और सुलाने के लिए कहा। मैं वहाँ चुपचाप रुकी रही और उन्हें देखती रही, उनकी पीठ के पीछे की दीवार पर लगे कैलेंडर पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था गीता-सार और छोटे अक्षरों में कुछ श्लोक भी लिखे थे।
हम सबको सुबह ही अपना यह घर और अपना गाँव हमेशा के लिए छोड़ देना था। एक बड़े बाँध के बैक-वाटर से हमारा गाँव और आसपास का एरिया डूब में आने वाला था। पिछले साल भर में एक, एक करके पडोसी, मोहल्ले वाले और गाँव वाले हमसे बिछुड़ते रहे थे। जीवन भर के गिले शिकवे भुलाकर पूरा मोहल्ला जाने वाले परिवार को प्रेम से विदाई देता- ‘जिन्दा रहे तो कभी न कभी, कहीं न कहीं मिलेंगे’ का जुमला दोहराती आँखें बरबस ही बरस पड़ती साथ ही इस जगह पर फिर कभी न आ पाने का दर्द भी छलक पड़ता। खाली हुए घर में साँझ का दिया जिम्मेदारी पूर्वक कोई भी जला आता। परिवार को किसी सुरक्षित जगह छोड़ आने के एक-दो दिन बाद ही शुरू हो जाता अपने ही घर को अपने ही हाथों गिराने का सिलसिला। हर एक धमाका हर एक दिल को दहला देता। हर गिरती दीवार मन को हिला देती। गिरते घरों के दिल दहलाते धमाकों और हर दिन उठते दम-घोटू, धूल के गुबार के बीच पूरा एक साल गुजर गया था।
गाँव लगभग खली हो चुका था, हम लोग दादी माँ की बरसी के लिए ही यहाँ रुके हुए थे। इस विस्थापन ने हम सभी को बहुत दुखी कर रखा था, विस्थापन की वजह से ही हमने अपनी दादी माँ को खोया था लेकिन पिताजी हमेशा की तरह स्थिर और शांत थे। मैं पिताजी के कंधे पर सिर टिकाकर अभी-अभी देखे सपने से उपजी बदहवासी दूर करना चाहती थी, हम सबके भविष्य के प्रति संतुष्ट होना चाहती थी लेकिन पिताजी ने मुझे तुलसीदास जी की कवितावली की एक पंक्ति सुनाई-
‘’राजीव लोचन राम चले
तजि अवध को राज
बटाऊ की नाईं…’’
और इसका अर्थ समझाते हुए मुझे सो जाने के लिए कहा। मैं पिताजी की बात पर पैर पटकते हुए आँगन में चली आई। भाई रोना भूलकर, खटिया पर चुपचाप लेटा था और माँ उसके पास निर्विकार बैठी थी, उनके चेहरे पर बनी आँसुओं की सूखी लकीरों में अब नमी चमक रही थी।
मैंने किशोरावस्था में कदम रखा ही था। पूरी दुनिया नए अर्थो में मेरे सामने खुल रही थी और इसे देखने-परखने का अपना एक अलग ही नज़रिया विकसित हो रहा था। मैंने माँ के आँसुओं की जिम्मेदारी सीधे-सीधे पिता के कंधों पर डाल दी। मेरा मन गुस्से से भरता जा रहा था। पिताजी के प्रति बरसों से इकट्ठा कई शिकायतें सिर उठा रही थी और इनका शोर बढ़ता जा रहा था। जहाँ, माँ और दादी माँ के आँचल की मृदुलता मुझे आकर्षित करती वहीँ पिताजी के व्यक्तित्व का खुरदुरापन मुझे अखर जाता… कैसे पिताजी है… जब देखो तब डांट देते हैं…।
गर्मी की छुट्टियों में जहाँ सारे बच्चे अपनी पुस्तकें बंद करके रख देते वहीं हमें अगली कक्षा के गणित और अंग्रेजी के कोर्स की पढ़ाई करनी पड़ती। पिताजी हर रोज़ सुबह-सुबह पढ़ने के लिए हमारे हाथ में कोई न कोई बाल-पत्रिका पकड़ा देते या कोई मोटी पुस्तक। रोज़ ही कुछ ना कुछ पढ़ना हमारे लिए जरूरी होता।
दोपहर में जब गर्म हवा के थपेड़ों के बीच नीम की घनी छाँव के नीचे मोहल्ले के बच्चे खेलते, हम घर की ओसारी की जाफरी से उन बच्चों को खेलते देखते रहते। हमें बस शाम को ही खेलने जाने की छूट मिलती।
पिताजी के घर में घुसते ही अनुशासन ख़ुद-ब-ख़ुद चला आता, रेडियो पर बजते सदाबहार फ़िल्मी नगमे बंद कर दिए जाते। अपने स्वभाव के अनुरूप पिताजी कभी कबीर या रहीम का कोई दोहा, रामायण की चौपाई, कोई छंद या कोई श्लोक दोहराते रहते और कभी-कभी हमें उनके अर्थ भी समझाने लगते, हम अक्सर इससे बचने की कोशिश करते।
मुझे और मेरे भाई को भी पिताजी से सदा ही यह शिकायत रही कि वे कभी किसी के सामने हमारी बढ़ाई नहीं करते। जब दूसरे बच्चों के पिता अपने बच्चों की प्रशंसा के पुल बाँध रहे होते, पिताजी चुपचाप उनकी बातें सुनते रहते। हम उत्सुकता से पिताजी की ओर देखते कि पिताजी अब कुछ बोलें… अब कुछ बोलें… लेकिन वे कुछ नहीं बोलते। यदि उनके कोई दोस्त या रिश्तेदार हमारे लिए कुछ अच्छा बोल भी देते तो उनके जाने के बाद, पिताजी  हमें समझाते-
‘’यदि कोई तुम्हारे एक गुण की तारीफ़ करे तो उसे विनम्रता से स्वीकार कर लो लेकिन अगले ही क्षण अपने दो अवगुण तलाशो और उन्हें दूर करने की कोशिश में लग जाओ।‘’
यह सुनकर हम गुस्से से मुँह फुला लेते और इस बात पर, पीठ-पीछे पिताजी की बुराई करते।
अब मै बड़ी हो रही थी तो जब भी मुझे कहीं सफ़र पर जाना होता तो अपना सामान ख़ुद उठाना पड़ता। बस के पायदान पर चढ़ते हुए जब मैं ठिठक कर रुक जाती तो पिताजी तुरंत बोलते-
“जाओ, जाओ, अपनी जगह ख़ुद बनाओ।”
जहाँ लोग बस की खिड़की से छोटा-मोटा सामान रखकर या गमछा डालकर अपनी और अपने बच्चों के बैठने की जगह बना लेते वहीं पिताजी तटस्थ रहते और हाथ में सामान पकड़े मुझे ख़ुद अपनी जगह तलाश करनी पड़ती। इसमें मुझे शरम आती और बुरा भी लगता।
मै अपने सोच-विचार मे अपने आप से लड़ते हुए पिताजी के प्रति आक्रोश से भरी हुई ही सो गई।
सुबह मैंने देखा कि आखिर रात को पिताजी उस कागज पर क्या बना रहे थे। साफ-सुथरी, सीधी लकीरों में पिताजी ने एक नक्शा बनाया था। देखने में तो एक घर का ही लग रहा था। नक्शे की रेखाओं पर उनकी लंबाई के नाप लिखने के बजाय पिताजी ने एक टिन, दो टिन लिख रखा था। छत और दीवार की ऊँचाई के लिए भी टिनों की अनुमानित संख्या लिख रखी थी। कुछ ही देर में मुझे समझ में आ गया कि पिताजी ने एक टिन शैड का नक्शा बनाया है यानी अपना घर छोड़ने के बाद हमें उस टिन शैड में रहना होगा। मै टिन शैड की कल्पना से ही शर्मसार हो उठी कि मै अपनी सहेलियों को क्या यह बताऊँगी कि, हम टिन शैड में रहने जाने वाले हैं। मुआवजे की रकम की गड्डी मेरी निगाहों में तैर गई और मै सोचने लगी कि नया घर बनने तक एक किराए का मकान ही ले लेते…कितने कंजूस हैं पिताजी…।
इस नक्शे पर भी पिछले साल वाली रिज़ल्ट शीट की तरह एक धब्बा बना हुआ था जिसे मैंने अनदेखा कर दिया।
रोते-बिलखते हम अपना घर और गाँव छोड़कर दूसरी जगह पिताजी के बनाए टिन शैड में रहने लगे हालाँकि एक साल में ही पिताजी ने सभी सुविधाओं वाला एक बड़ा-सा घर बनवा लिया था। नए गाँव की बसाहट पुराने गाँव की बसाहट की तुलना में अधिक सुविधाजनक थी। लंबी-चौड़ी सड़कें, पार्क, हर सेक्टर में एक डिस्पेंसरी और प्राइमरी स्कूल भी बनने की योजना थी। हाइस्कूल और कॉलेज की बिल्डिंग तो तैयार थी ही। सरकारी ज़मीन पर कटे प्लाटों पर तेजी से घर बन रहे थे, पूरा गाँव बस रहा था। नई जगह पर नया घर बन गया था लेकिन हमें अपने पीछे छूटे घर का हर एक कोना याद आता… उस गाँव का चप्पा-चप्पा याद आता… ।
जब भी मौका मिलता पिताजी उस खली गाँव में जा पहुँचते, वहाँ से लौटकर बताते कि अब बैक वाटर कहाँ तक आ गया है, इसके कारण गाँव के कौन-कौन से हिस्से पानी में डूब गए हैं, कौन-कौन सी जगहें अब भी ठीक से दिखाई पड़ रही हैं, स्कूल और अस्पताल की बिल्डिंग ज्यों की त्यों खड़ी है, मंदिरों में न तो कोई पूजा करने वाला है न ही वहाँ भगवान हैं। पिताजी बातें ऐसे सुनाते जैसे किसी और जगह की बात कह रहे हों। मैं पिताजी की बातें अनमनेपन से सुनती और माँ का चेहरा ध्यान से देखती रहती। माँ का दुःख मुझे गहरे तक महसूस होता वहीँ पिताजी मुझे कठोर नज़र आते। मन में थाती की तरह सँजोई पुरानी यादों के साथ ही नए घर, नई जगह और नए गाँव की नई बसाहट के साथ हम तालमेल बैठा रहे थे किन्तु वह डूब का सपना अक्सर मुझे परेशान कर जाताI
दिन, महीने, साल बीते। ठंड, गरमी, बरसात अपने क्रमबद्ध तरीके से आते-जाते रहे। नए परिवेश से हम तालमेल बैठा चुके थे। हम दोनों भाई-बहिन बड़े हो रहे थे अब भाई और मैं दोनों मिलकर पिताजी के व्यक्तित्व और उनके द्वारा कही बातों को समझने की कोशिश करते, कभी कुछ समझ पाते कभी नहीं समझ पाते।
अपने कॉलेज के एक सम्मान समारोह में मुझे राष्ट्रीय-सेवा-योजना के एक पुरस्कार से पुरस्कृत किया जाना था। पुरस्कार लेने के लिए जब मैं स्टेज की सीढ़ियाँ चढ़ रही थी तो मुझे बस के पायदान पर ठिठके अपने कदम और बस के अंदर अपनी जगह ढूँढने में आती हिचक याद आ गई, साथ ही पिताजी की आवाज़ कानों में गूँज ने लगी- ‘जाओ जाओ…अपनी जगह ख़ुद बनाओ।’ मन ही मन सब कुछ याद करते हुए मैं खुशी से  स्टेज की सीढियाँ चढ़ गई।
पुरस्कार लेने के बाद मैंने पिताजी की और देखा वे उत्साह-पूर्वक ताली बजा रहे थे। मुझे पिताजी की अपने अवगुण देखने और उन्हें दूर करने वाली बात याद आ गई। मैं पिताजी के प्रति कृतज्ञता से भर गई।
धीरे-धीरे मुझे मितव्ययता और कंजूसी में अंतर करना भी आने लगा था, अब किताबें अच्छी दोस्त बनती जा रही थी, पिताजी से सुने दोहे और श्लोक जब तब याद आ जाते, अब वे मेरे जीवन के सूत्र-वाक्य बनते जा रहे थे। इस सबके बावजूद जब भी वह डूब वाला सपना मेरी आँखों में उमड़ता मुझे विस्थापन की घटना याद आ जाती और मेरी संवेदना और सहानुभूति के तार माँ से ही जुड़ते। मौके बे-मौके हम पिताजी के स्वभाव में कठोरता और गुस्सा खोज ही लेते।
समय बीतने के साथ मेरी जिम्मेदारियाँ बदल गईं, बेटी और बहिन के साथ अब मैं किसी परिवार की बहू, किसी की पत्नी और दो बच्चों की माँ भी बन गई लेकिन अब भी कभी-कभी वह डूब वाला सपना मुझे परेशान कर जाता और मैं हैरान होकर, अपने बरसों पुराने सवाल का जवाब ढूँढने लगती कि आखिर छोटी सी बूँद की यह टप-टप इतनी विशाल जलराशि में कैसे बदल जाती है।
मैं अपने परिवार के साथ अपने डूबे हुए गाँव तक पहुँची। वहाँ तक पहुँचने का रास्ता बुरी तरह ख़ुद गया था और कीचड़ भरा था। आसपास बेतरतीब घास और झाडियाँ थी, पेड़ों ने जंगल सा दृश्य बना दिया था। बीच-बीच में बैक वाटर भी भरा हुआ था, नदी और नाले आपस में मिलकर एक हो गए थे। रास्ते में पड़ने वाले खंडहरों को पहचानकर पिताजी बच्चों को बताते जाते-
‘’देखो यह तुम्हारी माँ का मिडिल स्कूल… यह तुम्हारे मामा का प्राइमरी स्कूल…।‘’
जैसे तैसे हम बस स्टैंड की टेकरे वाली ज़मीन तक पहुँचे।
सामने विशाल जल राशि नज़र आ रही थी। ओर से छोर तक पानी ही पानी फैला था, मेरे सपने में देखे गए सैलाब की तरह। यह सैलाब सब कुछ लील गया था। यह पूरे गाँव के रहवासियों के दुःख और पीछे छूट गई धरती की व्यथा का ऐसा सैलाब था जिसमें आस्था और विश्वास के केंद्र, मंदिर और मस्जिद भी डूब गए थे। हाँ, यहाँ मनुष्यों के साथ देवता भी विस्थापित हुए थे और यहाँ के रहवासियों के साथ तंबू और टिन-शैड में उनके भी दिन गुज़रे थे। अपने हाथों अपना आशियाना उजाड़ने की मजबूरी, दुख और टूटन के बाद भी इतनी नैतिकता और आस्था तो शेष थी कि धर्म-स्थलों को ज्यों का त्यों छोड़ दिया गया था।
पिताजी किसी एक शिखर की और इशारा करते और बताते कि यह फलाँ मंदिर है और मैं उसके आसपास की बसाहट का अनुमान लगाने की कोशिश में लग जाती। अपने स्कूली दोस्तों और रिश्तेदारों के घर तलाशते हुए बरसों पुरानी यादों में खोने लगती।
बच्चे उत्सुकतावश पिताजी से पूछते जा रहे थे और पिताजी समझा रहे थे। अपना एक हाथ उठाये, दृढ़तापूर्वक खड़े पिताजी अंगुली से इशारा करके पूरा नक्शा ऐसे खींच रहे थे जैसे अभी इस वक्त हम उस घर और मोहल्ले की बसाहट का मॉडल अपनी आँखों से देख रहे हों। मैं ध्यान से पिताजी की बात सुन रही थी।
‘’कुछ ही दिनों में यहाँ नाव चलने वाली है, जब नाव चलने लगेगी तब हम अपने घर तक चलेंगे, वो टेकरे के हनुमान मंदिर के पास ही तो अपना घर है।‘’ वे कह रहे थे।
‘अपना घर है…! है यानी…!!’ मैने चौंक कर उनकी ओर देखा, वे थोड़े भावुक नज़र आए। कुछ देर बाद हम वहाँ से लौट आए।
घर आकर पिताजी ने बच्चों को अपने कमरे का दरवाजा दिखाते हुए कहा- ‘‘यह उसी पुराने घर के चौके (रसोई) का दरवाजा है जहाँ मेरी माँ और तुम्हारी नानी दोनों मिलकर भोजन बनाती थी। जब तक यह दरवाजा खुला रहता पूरा घर, भोजन की सुगंध से महकता रहता। जहाँ दाल और भाजी के बघार की गंध भूख को बढ़ा देती, वहीं रोटी सिकने की सोंधी गंध भोजन बन जाने की ख़बर कर देती, यहाँ बनते पकवानों की सुगंध से हम बाहर बैठ कर ही अंदाज़ा लगा लेते कि माँ क्या बना रही है।‘’
उन्होंने दरवाजे की सांकल जोर से बजाई और कहा-
‘’ध्यान से सुनो, इस सांकल को हिलाने से कैसे संगीत बजता है कितनी प्यारी खनकती है यह सांकल।‘’
‘’दोपहर की झपकी हो या आधी रात की गहरी नींद, माँ इस सांकल की आवाज़ पर सतर्क हो चूहे या बिल्ली की आशंका से रसोई की ओर दौड़ पड़ती। भूख लगने पर हम छोटे बच्चे भी इस दरवाजे से अपनी पीठ टिका कर बैठ जाते और यह सांकल खनक उठती। अपना काम छोड़कर माँ, हमारे लिए खाने की व्यवस्था में जुट जाती।‘’
सांकल देर तक हिलती रही और अपने अनूठे अंदाज में खनकती भी रही… इस खनक में शायद पिताजी को अपनी माँ की दुलार भरी आवाज़ का संगीत बजता सुनाई दे रहा था, उनकी आँख से झर्र से झरे एक आँसू को मैंने देख लिया।
इस रात मैंने फिर वही सपना देखा। शांत और निर्मल समंदर चारों ओर फैला है। माँ, दादी माँ, बुआ और हम सभी परिवार जनों की आँखों से धार-धार होकर बहे दुःख और तकलीफें इस समंदर में समाते जा रहे हैं, यह समंदर सभी को सहेज रहा है। हम सभी की ख्वाहिशों को पूरा कर पाने की खुशियाँ और उन्हें पूरा नहीं कर पाने का दर्द सभी कुछ तो समाया है इस समंदर में। कठोर अनुशासन के पीछे छुपी स्नेह की मीठी जलधारा भी आ समाई है इसमें। इस समंदर मे अपना घर, अपना गाँव, अपने संगी-साथी छूट जाने का दर्द भी एक भँवर की तरह गोल-गोल घूम रहा है। दूर-दूर तक फैला है नीला पारदर्शी पानी, गलबहियाँ डालने को आतुर नीला आसमान नीचे झुक आया है, दूर क्षितिज पर दोनों आपस में मिल रहे हैं।
इस समंदर में गहरे तक खड़े होकर मैं भीगती जा रही हूँ, हर लहर मुझे सहला रही है। मेरे चेहरे पर पड़े पानी के निर्मल छींटे मेरे मन को अनोखे आनंद से भर गए और मैं मुस्कुराते हुए जाग गई…।
अब मुझे अपने बरसों पुराने सवाल का जवाब मिलने लगा था… ।

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मीनाक्षी दुबे,देवास 

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