अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस:आसन-प्राणायाम ही नहीं संयमित जीवन शैली भी योगा,!

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अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस:आसन-प्राणायाम ही नहीं संयमित जीवन शैली भी योगा!

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– योग विशेषज्ञ अरुण नैथानी

जीवन की वे सामान्य सैद्धांतिक बातें जिसका समाज में हर व्यक्ति को पालन करना चाहिए वे यम के अंतर्गत आती हैं। मसलन दैनिक जीवन में सत्य, अहिंसा,अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। अस्तेय मतलब किसी दूसरे की वस्तु का हरण न करना, वहीं अपरिग्रह यानी अपनी आवश्यकता से अधिक वस्तुओं व संपदा का संग्रह न करना। इसी तरह पांच नियम बताए गए हैं- शौच यानी शुद्धता, संतोष, तप यानी निष्काम भाव से स्वधर्म का पालन करना, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान यानी अपनी उपलब्धि का श्रेय अपने आराध्य को देना। तीसरे अंग के रूप में आसन , चौथे के रूप में प्राणायाम यानी प्राणों का आयाम तथा प्रत्याहार यानी इंद्रियों को विषयों से हटाकर अंतर्मुखी करना। दूसरी ओर गंभीर साधकों के लिए अंतरंग साधन के रूप में धारणा, ध्यान व समाधि को साधा जा सकता है।

संयुक्त राष्ट्र महासभा में भारत द्वारा प्रस्तुत प्रस्ताव आम सहमति से पारित होने के बाद सबसे बड़े दिन 21 जून को विश्व योग दिवस मनाने का निर्णय हुआ। आज योग की दुनिया 21 जून 2015 को पहला योग दिवस मनाने के बाद बहुत आगे निकल चुकी है। अंतर्राष्ट्रीय मान्यता मिलने के बाद धर्म व क्षेत्र की संकीर्ण दीवारें ढह चुकी हैं। लेकिन योग को महज आसनों की कसरत समझ लिया जाता है।

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दरअसल, योग के आठ अंगों को मिलाकर ही अष्टांग योग का अस्तित्व सामने आता है। योग का अर्थ है कि मन को संयमित करके सांसारिक वृत्तियों से मुक्ति पाना। हम हजारों वर्ष पहले महर्षि पतंजलि द्वारा बताए आठ अंगों को ही अष्टांग योग कहते हैं। आम बोलचाल में आसन, प्राणायाम व ध्यान को ही योग मान लिया जाता है। योग का पहला अंग यम आपने पांच सिद्धांतों के जरिये संयमित व मर्यादित जीवन पर बल देता है। इसके पांच अंगों में पहले अहिंसा का मतलब है कि हम मन-वचन-कर्म के जरिये किसी जीवमात्र को कष्ट न पहुंचाएं। सत्य का मतलब असत्य से परे सच का ज्ञान होना। अस्तेय के मायने, दूसरे की वस्तु पर नजर न रखना। ब्रह्मचर्य यानी चेतना को ब्रह्मतत्व में एकाकार रखना। अपरिग्रह यानी संचय का अभाव।

इसी तरह नियम के भी पांच भाग हैं। शौच यानी बाह्य व आंतरिक शुचिता। संतोष जो मिला उसमें खुश रहें, तप यानी देह को तपाकर अशुद्धि दूर करना। इसी तरह आत्मा-परमात्मा को जानने के लिये लिए धार्मिक-आध्यात्मिक पुस्तकों का अध्ययन करके दृष्टि को पवित्र करना। वहीं जीवन में जो कुछ मिले उसका श्रेय परमात्मा को देना ईश्वर प्रणिधान है। यानी व्यक्ति के अहंकार का त्याग। लेकिन हम आजकल योग के तीसरे अंग आसन का ही मुखर प्रकाट्य देखते हैं। ध्यान रहे कि आसन महज शारीरिक व्यायाम नहीं है। इसमें शरीर को कष्ट नहीं देना है। जैसा कि महर्षि पतंजलि कहते भी हैं ‘स्थिरं सुखम् आसन।’ सही मायनों में शरीर की चंचलता खत्म करके सहजता का भाव स्थिर करना आसन का मकसद है। जिससे मन आनंदित रहे। ताकि शरीर को प्राणायाम व ध्यान के लिये तैयार किया जा सके।

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प्राणायाम का योग में बेहद महत्व है। प्राणायाम यानी प्राणों को नियमन। शरीर की सूक्ष्म प्राण शक्ति का नियमन। सांसों के प्रति सजगता बनाना। दरअसल, योगी सांसों के नियमन से अपने तन-मन को साधते हैं। योग ग्रंथों में कहा गया है- ‘चले वाते, चलं चित्तं’ यानी तेज गति से चलती सांसे हमारे चित्त यानी मन को विचलित करती हैं। वहीं दूसरी यदि हम सांसों का नियमन कर सके तो मन शांत हो जाता है। हमारे धर्मगुरुओं ने सांसों के जरिये आत्मा को परमात्मा से जोड़ने का प्रयास किया है।

दरअसल,योगी सांसों के नियमन से हम अपनी पांचों ज्ञानेंद्रियों व पांच कर्मेन्द्रियों व मन पर नियंत्रण रख पाते हैं। इसी तरह प्रत्याहार का अभिप्राय: विषय-भोगों के मोह से मुक्त होना ही है। दूसरे शब्दों की इंद्रियों लिप्साओं से मुक्ति से हम अपनी ऊर्जा को बचा पाते हैं, यही प्रत्याहार है। इसी तरह चित्त की एकाग्रता धारणा है। योगी लोग सांसों के नियमन व त्राटक से ‘धारणा’ हासिल करते हैं। कह सकते हैं मन में विचारों के सैलाब को नियंत्रित करके शांति पाना। इस तरह धारणा को साधने के बाद ध्यान लगाने का मार्ग प्रशस्त होता है। ध्यान अवस्था यानी सांसारिकता से परे शून्यता जैसी घटना का घटित होना। अंतत: विरले योगियों को हासिल होने वाली जीवात्मा और परमात्मा की समता की विशेष अवस्था ही समाधि कहलाती है। यानी कि सद्चित आनंद की अवस्था में पहुंचना। जिसे विभिन्न धर्मों में निर्वाण व कैवल्य की स्थिति भी कहा जाता है।