औरत को ख़ैरात नहीं, हक़ चाहिए
मुल्क की आला अदालत की एक बेंच ने एक तारीख़ी फैसले में कहा है कि औरतें, चाहे वे किसी भी मज़हब की हों, क्रिमिनल प्रोसीजर कोड की दफ़ा 125 के तहत गुज़ारा भत्ते की हकदार हैं। अदालत ने इस दलील को साफ़ खारिज कर दिया कि मुस्लिम विमेन (प्रोटेक्शन ऑफ़ राइट्स आन डाइवोर्स) एक्ट, 1986 या मुख्तलिक मज़हबों के कोई भी दीगर जा़ती कानून उन्हें सेक्युलर कानून के तहत गारंटीशुदा गुज़ारा भत्ते का फ़ायदा लेने से महरूम कर सकते हैं। औरतों के हुक़ूक़ की वकालत करने वाले एक इंसान के तौर पर मैं इस फ़ैसले का तहे दिल से इस्तिक़बाल करता हूँ।
1985 में, भारत के सुप्रीम कोर्ट ने शाह बानो मामले में एक क़ाबिलेग़ौर फ़ैसला दिया था जिसमें कहा गया था कि सीआरपीसी की दफ़ा 125 (अब दफ़ा 144) के तहत औरत रखरखाव की हकदार है। उस वक़्त मैंने इंदौर के बंबई बाजार में एक टूटे फूटे मकान में इस गरीब बूढ़ी तलाकशुदा ख्वातीन को रहते देखा था। इस फैसले से काफी हंगामा मचा. मुस्लिम मौलवियों और कई सियासी और मज़हबी लीडरों ने इस फैसले की मज़म्मत करते हुए इसे अपने मज़हब में दख़लंदाज़ी बताया था। उस वक़्त के वज़ीरे आज़म राजीव गांधी, जो वैसे तो मॉडर्न ख़यालात के थे, वोट बैंक के लिए इस दबाव के आगे झुक गए और एक दक़ियानूसी मुस्लिम विमेन (प्रोटेक्शन ऑफ़ राइट्स आन डाइवोर्स) एक्ट, 1986 लाए। इस क़ानून में कहा गया कि तलाकशुदा महिला का शौहर सिर्फ़ इद्दत के तीन महीने के वक़्त के लिए जिम्मेदार है। इस क़ानून की दफ़ा 3 के तहत मजिस्ट्रेट तलाक़शुदा औरत के वारिसों को गुज़ारा भत्ता देने का हुक्म दे सकता है। ऐसा मुमकिन न होने पर मजिस्ट्रेट लापरवाह वक्फ बोर्डों को गुज़ारा भत्ता देने का हुक्म दे सकता है। यह तलाक़शुदा औरतों के साथ एक धोखा था और असलियत में ऐसी औरतों को उनके नसीब पर छोड़ दिया गया था। कानूनी तौर पर यह मान लिया गया कि 1986 के इस क़ानून का मतलब था कि एक मुस्लिम तलाकशुदा औरत सेक्यूलर कानून के तहत कोई भी रखरखाव पाने की हकदार नहीं है।
मौजूदा फ़ैसला सिर्फ़ यह कहता है कि 1986 का कानून कायम तो है, लेकिन यह इस्लाम समेत किसी भी मज़हब की तलाकशुदा औरत को, उनके ज़ाती कानूनों के बावजूद, सेल्यूलर कानून का फ़ायदा उठाने से नहीं रोक सकता है। मुस्लिम तलाकशुदा औरतों के हक़ में यह एक इंक़लाबी वजाहत है।
यह क़ाबिले गौर है कि हिंदुस्तान में ज़्यादातर तरक़्क़ी याफ़ता. बदलाव अदालत ने किये हैं, न कि कमजोर और मगरूर पार्लियामेंट के ज़रिए। मुस्लिम वोट बैंक के ख़ौफ़ से ज्यादातर सियासी पार्टियों ने बेहद दबी ज़बान में बयान दिए हैं। कांग्रेस, जो इन मुश्किलात की सबब थी, ने आमतौर पर इस मुद्दे पर सियासत न करने की गुज़ारिश की है। ख़ुशनसीबी है कि अब हिन्दोस्तान ज़्यादा समझदार हो गया है और दक़ियानूसी मुस्लिम मौलवियों और फ़िरक़ापरस्तों और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने फैसले के खिलाफ कोई मजबूत शिकायती आवाज़ नहीं उठाई है। कुछ मुस्लिम खवातीन एक्टिविस्ट ने तो कॉमन सिविल कोड की मांग तक भी की है। अब चालाक रहनुमाओं के लिए मुस्लिम औरतों के साथ-साथ सभी औरतों की आज़ादी को रोकना न सिर्फ़ मुश्किल बल्कि नामुमकिन हो जाएगा।