Importance of Pitru Paksha: “श्राद्ध_एक_शास्त्रीय_विवेचना” शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ!

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                       Importance of Pitru Paksha   “श्राद्ध_एक_शास्त्रीय_विवेचना” शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ!

                    श्राद्ध क्या है और श्राद्ध क्यों करना चाहिए

डॉ. तेज प्रकाश व्यास

सनातन धर्म मनुष्यो के लिए आवश्यक दैविक,आध्यात्मिक,वैज्ञानिक,प्राकृतिक,आर्थिक,सामाजिक विषयों को सुदृण्डता प्रदान करने के भाव से ओतप्रोत अनेक पर्व रूपी परम्पराओ से सुशोभित है।मुख्यतः देव ऋण, ऋषि ऋण, पितृऋण,मनुष्य ऋण एवं भूत ऋण से मनुष्य मात्र आबद्ध है ऐसा सनातन का विश्वास है और इन ऋणों से निवृत्ति हेतु क्रमशः देवार्चन,अध्यन-अध्यापन,श्राद्ध,अतिथि सत्कार,पशु-पक्षी-वनस्पतियों के संरक्षण रूपी व्यवस्थाए हमारे प्राचीन ऋषियों-मनीषियों द्वारा हमे प्रदान की गई है।
इन्ही परम्पराओ में से एक है “श्राद्ध”।
हमारे वह पूर्वज जिनके कारण हमें यह पंचभौतिक देह प्राप्त हुई,नाम रूपी पहचान प्राप्त हुई,धन-संपत्ति,मान-सम्मान,स्नेह,सामर्थ्य सब कुछ ही तो प्राप्त हुआ,देखा जाय तो ईश्वर के बाद यदि हमारे जीवन का कोई वास्तविक आधार है तो वह हमारे पूर्वज ही है ऐसे पूर्वजो के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का पर्व “श्राद्ध”।
अनेक प्रकार के श्राद्ध शास्त्रों में उल्लेखित है उन सभी मे सबसे अधिक प्रचलित जो विधि है उसका शास्त्रीय नाम है महालय अपर पक्ष श्राद्ध ओर सामान्य बोल चाल की भाषा मे श्राद्ध पक्ष।
सनातनी पंचांग के अनुसार प्रत्येक हिन्दू वर्ष के भाद्रपद माह की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा से प्रारम्भ हो कर अश्विन माह के कृष्ण पक्ष की अमावस्या तक जो सोलह दिवस होते है शास्त्रों में यही पितृपक्ष के नाम से विख्यात है,हालांकि शास्त्रीय विवेचनाओं में इसमें कुछ भेद है जैसे कुछ मनीषियों के अनुसार अश्विन कृष्ण की प्रतिपदा से प्रारम्भ होकर आश्विन शुक्ल की प्रतिपदा तक जो सोलह दिवस है वह श्राद्ध पक्ष है परंतु पहले वाली व्यवस्था अधिक प्रचलित होने से व्यवहारिक भी वही है।

shraadh paksh

वर्तमान में अज्ञानता एवं अप्रमाणित तथ्यों से उपलब्ध जानकारियों के कारण श्राद्ध विषय को लेकर अनेक भ्रांतियां उत्पन्न हो गई है,सबसे अधिक कष्टप्रद तो यह विषय है कि श्राद्ध नाम सुनते ही हम भय ग्रस्त हो जाते है,ओर बहुत डरते हुए ओर आधे अधूरे तरीके से इस विधि को सम्पादित करते है,अब जरा देखिए श्राद्ध की परिभाषा को-

श्रद्धया_इदं_श्राद्धम्’

“अर्थ-अपने पितृगणो की तृप्ति हेतु श्रद्धा पूर्वक किये जाने वाले कर्मविशेष को श्राद्ध शब्द से जाना जाता है”

अर्थात श्राद्ध के लिए भय नही अपितु श्रद्धा चाहिए आप कोई भूत-प्रेत का पूजन नही कर रहे अपितु आप अपने पूर्वजो का पूजन कर रहे है,वह पूर्वज जो कभी दैहिक रूप से आपके माता-पिता,दादा-दादी इत्यादि रहे है,ओर इनके पूजन में भय नही श्रद्धा की आवश्यकता है स्नेह की आवश्यकता है।
आइए ऐसी ही कुछ भ्रांतियों की निवृत्ति एवं श्राद्ध विषय के मूल भाव को समझने हेतु प्रश्नोत्तर के माध्यम से श्राद्ध से सम्बंधित शास्त्रीय मतों का अध्यन करे-

प्रश्न १-शास्त्रों में श्राद्ध के महत्व के विषय मे क्या उल्लेख प्राप्त होता है ?

उत्तर-
एवं विधानत: श्राद्धं कुर्यात् स्वविभवोचितम् ।
आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं जगत् प्रीणाति मानव: ।।

अर्थ-श्राद्ध से केवल अपनी तथा अपने पितरों की ही तृप्ति नहीं होती, अपितु जो व्यक्ति विधिपूर्वक यथाशक्ति अन्न,जल,धन के द्वारा श्राद्ध करता है, वह ब्रह्मा से लेकर घास तक समस्त प्राणियो को संतृप्त कर देता है।

प्रश्न २- श्राद्ध करने से कौन से लौकिक एवं पारलौकिक फल प्राप्त होते है ?

उत्तर-
आयु पुत्रान् यश: स्वर्ग किर्तिं पुष्टिं श्रियम् बलम्।
पशून् सौख्म्ं धनं धान्यं प्राप्नुयात् पितृपूजनात् ।।
अर्थ-विधिपूर्वक श्राद्ध करने से श्राद्धकर्ता की आयु,संतान, यश,मोक्ष,आरोग्यता,बल,धन,धान्य, स्थिर सुख रूपी मनोकामनाए पित्रकृपा से निश्चित ही पूर्ण होती है।

प्रश्न 3- महालय अपर पक्ष श्राद्ध अर्थात श्राद्ध पक्ष में पूर्वजो के संतुष्टि हेतु श्राद्ध करने से क्या फल प्राप्त होता है?

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उत्तर-
आषाढ़: पंचमे पक्षे कन्यासंस्थे दिवाकरे।
यो वै श्राद्धं नरः कुर्यादेकस्मिन्नपि वासरे।।
तस्य संवत्सर: यावतसंतृप्ता: पितरों ध्रुवं।।
अर्थात-आषाढ़ पूर्णिमा से पांचवे पक्ष अर्थात आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में (जिसे सामान्य भाषा मे पितृपक्ष कहा जाता है)जो मनुष्य एक दिन भी विधि से श्राद्ध कर लेता है उसके पितृ वर्ष पर्यंत तृप्त रहते है।

प्रश्न 4- श्राद्ध पक्ष में पूर्वजो की मृत्यु तिथि ज्ञात होने पर श्राद्ध उस तिथि पर ही करना चाहिए शस्त्रों में इसका क्या प्रमाण प्राप्त होता है?

उत्तर-
या तिथिर्यस्य मासस्य मृताहे तु प्रवर्तते।
सा तिथि: पितृपक्षे तु पूजनीया प्रयत्नतः।।
तिथिच्छेदो न कर्तव्यों विनाशौचं यादृच्छया।।
मनुष्य की मृत्यु की तिथि ही पितृपक्ष में श्राद्ध करने योग्य है।मृत्यु तिथि छोड़ कर अन्य तिथि पर श्राद्ध करने दोष युक्त होता है।

प्रश्न 5-क्या श्राद्ध पक्ष में पितरों की तृप्ति हेतु प्रतिदिन ही श्राद्ध करने का भी महात्म्य शाश्त्रो में उपलब्ध होता है?

उत्तर-
नभस्यस्यापरे पक्षे श्राद्धं कार्यं दिने दिने।
नैव नंदादिवर्ज्य स्यांनैव निंदयाश्चतुर्दशी।।
अर्थात-सम्पूर्ण पितृपक्ष में प्रतिदिन ही श्राद्ध करना श्रेयस्कर होता है इसमें कोई वर्जित तिथि इत्यादि नही है।

प्रश्न 6-अपवाद स्वरूप यदि किसी की मृत्य दुर्घटना आदि कारणों से हुई है तो उनका श्राद्ध कब करना चाहिए?

उत्तर-
वृक्षारोहण लोहाद्ध्यर्विद्युज्जलग्निभि:।
नखिदंष्टि विपन्ना ये तेषां शस्ता चतुर्दशी।।
अर्थात-वृक्ष,अस्त्र,शस्त्र,अग्नि,जल,विष,पशुद्वारा अथवा अन्य अकाल मृत्यु को प्राप्त मनुष्य की तृप्ति हेतु प्रयत्न पूर्वक श्राद्ध पक्ष की चतुर्दशी को श्राद्ध करना चाहिए।

प्रश्न 7- क्या कुछ विशेष परिस्तिथि में पिता के जीवित होते हुवे भी पुत्र श्राद्ध कर सकता है?

उत्तर-
वृद्धौ तीर्थे च संयस्ते ताते च पतिते सति।
येभ्य एव पिता दद्ध्यात्तेभ्यो दद्ध्यात्स्वयं सुत:।।
अर्थात-संतान की प्राप्ति होने पर,तीर्थ में,पिता के सन्यासी या अशक्त हो जाने पर पुत्र भी श्राद्ध का अधिकारी होता है।

प्रश्न 8-हमारे द्वारा किया गया श्राद्ध ग्रहण करने के अधिकारी कौन पूर्वज हो सकते है अथवा हम किन्हें पूर्वज मान कर उनका श्राद्ध कर सकते है ?

उत्तर-
उपाध्याय गुरु श्वश्रु पितृव्य आचार्य मातुल:।
श्वशुर भ्रातृ तत्पुत्र पुत्र ऋत्विक शिष्य पोषका:।।
भगिनी स्वामी दुहितृ जामातृ भागिनीसुता:।
पितरौ पितृपत्नीनां पितुर्मातुश्च या स्वसा।।
सखीद्रव्यदशिष्याद्यास्तीर्थे चैव महालये।
एकोदिष्ट विधानेन पूजनीया: प्रयत्नतः।।
इति इतरेषां पित्रादीनां पार्वर्णमर्थसिद्धं।।

अर्थ-शिक्षा देने वाले,गुरु,सास,चाचा,आचार्य,मामा, श्वशुर,भाई, भाई के पुत्र,पोते,ऋत्विक,पालने वाले शिष्य,भगिनी,स्वामी,पुत्री,जामाता, भांजे,नाना एवं नानी की तीन पीढ़ी,बुआ, मौसी,मित्र,धन देने वाला,शिष्य यह सभी महालय में एकोदिष्ट विधि से पूजन योग्य है।
इनके अतिरिक्त पिता एवं माता की तीन पीढ़ी पार्वर्ण विधि से श्राद्ध की अधिकारी है।

प्रश्न 8-संतान के अभाव में अन्य कौन श्राद्ध करने का अधिकारी हो सकता है ?

उत्तर-
पुत्रः पौत्रश्च तत्पुत्र: पुत्रिकापुत्र एव च।
पत्नी भ्राता च तज्जश्च पिता माता स्नूषा तथा ।
भगिनी भागिनेयश्च सपिंड: सोदकस्तथा।
असन्निधाने पूर्वेषामुत्तरे पिण्डदा: स्मृताः।।
अर्थ-पुत्र,पौत्र,प्रपौत्र,पुत्रि का पुत्र, पत्नी,भ्राता,भ्राता का पुत्र,पिता,माता,बहु,बहन,भांजा,सपिंड,सोदक, यह सभी उनसे अगले की अनुपस्तिथि में पिंड दान के अधिकारी है।

प्रश्न 9-जैसे पूर्व में कहा गया कि प्राणी की मृत्यु तिथि पर ही श्राद्ध करे पर यदि मृत्यु तिथि का ज्ञान न हो तब क्या करे क्या इसकी भी कोई व्यवस्था शास्त्रों में उपलब्ध होती है ?

उत्तर-
मृत्यु तिथि ज्ञात न होने पर अविवाहितों का श्राध्द पंचमी को करे।
सौभाग्यवती स्त्री का श्राध्द नवमी तिथि
को करे।
सन्यासियों का श्राध्द द्वादशी तिथि को करे।
अज्ञात पूर्वजो का श्राद्ध अमावस्या तिथि को करे।
ननिहाल पक्ष का श्राध्द आश्विन शुक्ल प्रतिपदा को करे।

प्रश्न १०-श्राद्ध करने हेतु उपयुक्त स्थान क्या हो सकते है ?

उत्तर-
अटवी पर्वता: पुण्या: नदीतीराणि यानी च।
देवखाताश्च गर्तश्च न स्वाम्यन् तेषु विद्यते।।
अर्थात-वन,पर्वत,पवित्र नदी के किनारे,देव मंदिर के समीप,तीर्थ क्षेत्र में एवं स्वयं के निवास पर अथवा ऐसे स्थान पर जिसका कोई स्वामी न हो किया गया श्राद्ध ही श्रेष्ठफलदाई होता है।

प्रश्न ११-श्राद्ध में प्रयोग हेतु सर्वश्रेष्ठ क्या है?

उत्तर-
मध्यान्ह: खड़गपात्रं च तथा नेपाल कंबल:।
रौप्यं दर्भास्तिला गावो दौहित्रश्चाष्टम: स्मृतः।।
अर्थात-मध्यान्ह का समय अर्थात उतप काल,गैंडे के सिंग का पात्र,ऊनि कंबल,चांदी, कुशातिल,गाय ओर दौहित्र अर्थात भांजा यह श्राद्ध विषय हेतु सर्वाधिक प्रवित्र बताए गए है।

प्रश्न १२-क्या ज्ञान होने के उपरांत भी श्राद्ध न करने का दोष भी होता है ?

उत्तर-यदि अज्ञानता का अभाव हो अर्थात श्राद्ध के महामात्य इत्यादि का ज्ञान होने बाद भी ,ओर सामर्थ्य होने के बाद भी पितृपक्ष में हम हमारे पूर्वजों को श्राद्ध के द्वारा संतुष्ट न करे तो यह गंभीर दोषयुक्त होता है यथा-
“पितरस्तस्य शापं दत्वा प्रयान्ति च”
अर्थ-श्राद्ध न करना पितरो की असंतुष्टि का कारण हो सकता है।पितृ अपनी संतानों की अकर्मण्यता से दुखी होते है और उनके दुखी होने से हमारे पुण्य का क्षय होता है जिससे धन हानि,मानहानि,संतान कष्ट,रोग,चिंता जैसे अनेक क्लेशों के भागी बन सकते है।

अनन्तोगत्वा यहां तक भी प्रमाण प्राप्त होता है कि यदि सामर्थ्यवान हैं तो पूर्वजो की श्राद्ध तिथियों पर उचित विधियां करे अन्यथा पूर्वजो का स्मरण करते हुए गाय इत्यादि को चारा ही खिला दे और यदि प्रारब्ध के कर्मो से इतना सामर्थ्य नही है तो किसी नदी-तालाब किनारे जा कर सूर्य की दिशा में मुख करते हुए अपने दोनों हाथों को ऊपर उठाते हुए पूर्वजो को याद करते हुए अपनी आँखों से केवल एक आँसू ही बहा दीजिए, पूर्वज संतुष्ट हो जायेगे।
ओर इतना भी नही कर सकते तब तो पूर्वजो का कुपित होना स्वाभाविक ही है।

एक बात और यहां हमे ऐसा कदापि नही समझना चाहिए कि श्रद्धा केवल मृत पूर्वजो के हेतु ही हो,सनातन धर्म अत्यंत महान है और इसके अंतर्गत स्पष्ट निर्देश है कि पहले जीवित पूर्वजो की सेवा-सम्मान करें और उनके दिवंगत होने के उपरांत उनके प्रति जीवन पर्यंत ऋणी रहते हूए श्राद्ध स्वरूप में उनकी सेवा करे। जीवित अवस्था मे पूर्वजो को तिरस्कृत करेंगे तो याद रखे हजार गया श्राद्ध भी करेंगे तो भी श्राद्ध का फल प्राप्त नही होगा।

अतः प्रयत्नपूर्वक न केवल पूर्वजो की संतुष्टि अपितु समस्त आभ्युदयिक कामनाओ की सिद्धि हेतु सामर्थ्यानुसार विधि पूर्वक श्राध्द अवश्य करें,ओर भय के साथ नहीं अपितु श्रद्धा के साथ सनातन की इस महानतम परम्परा का निर्वहन करे,यह हमारे पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का पर्व है,उन पूर्वजो के प्रति जिनके कारण हमारे इस पंचभौतिक शरीर का अस्तित्व है।
अनेक स्मृतियों में अनेक प्रमाण उपलब्ध है संशय की अवस्था मे अपने गुरु,आचार्य,द्वारा बताए गए मार्ग एवं स्वकुल परम्परा के अनुसार किये गए कर्म श्रेष्ठ फलदाई होते है.

डॉ. तेज प्रकाश व्यास

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{वैश्विक शिक्षाविद्, जीवन वैज्ञानिक और एंटी एजिंग जीवविज्ञानी}

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