रविवारीय गपशप: IAS vs IAS: इंदौर प्रशासनिक सेवा बनाम भारतीय प्रशासनिक सेवा!

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रविवारीय गपशप: IAS vs IAS: इंदौर प्रशासनिक सेवा बनाम भारतीय प्रशासनिक सेवा!

 

पिछले दिनों अख़बारों में ये खबर छपी थी कि प्रदेश के प्रशासनिक मुखिया ने पदस्थापना को लेकर किसी संदर्भ में यह कह दिया कि अधिकारियों को एक स्थान में बने रहने के मोह से बचना चाहिए । यह पहली बार नहीं है , बल्कि पहले भी इंदौर प्रशासनिक सेवा जैसे शब्दावलियों का इस्तेमाल होता रहा है । सामान्यतः प्रदेश के सभी बड़े शहरों में काम करने वाले अफ़सर अक्सर उसी शहर में या उसके आसपास पदस्थापना चाहते हैं । ऐसा नहीं है कि इस चाह में प्रशासनिक और राजस्व सेवा के अधिकारी ही शामिल हों , बल्कि अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा के साथी भी इस मोह से बच नहीं पाए हैं ।

प्रदेश के एक मुख्य सचिव ने अपने कार्यकाल में एक नई परंपरा आरंभ की थी कि हर संभाग में जाकर राजस्व कार्यों की समीक्षा की जावे ।पूरे प्रदेश में जबदस्त हड़कंप मचा था , आख़िर प्रदेश के प्रशासनिक आका के सामने कामों की समीक्षा होना कोई मामूली बात नहीं थी । मैं तब इंदौर में ही सम्भाग के अपर आयुक्त के रूप में पदस्थ था । एक डिप्टी कलेक्टर साहब के कामों की समीक्षा में पाया गया कि मामलों का निराकरण कुछ कम है , उन्हें खड़ा किया गया तो किसी ने सी.एस. के कानों में फुसफुसा दिया कि ये तो इंदौर में ही बने रहते हैं । सी.एस. ने नाराज़गी भरे स्वरों में कहा कि आप कामधाम में ढीले हैं और नौकरी भी पूरी यहीं कर रहे हैं । अधिकारी ने अपनी सफ़ाई में कहा “ नहीं सर में पिछले साल ही उमरिया भी ट्रांसफ़र हुआ था “। कितने समय उमरिया में रहे ? अगला सवाल दागा गया । अधिकारी ने दबे स्वर में कहा “ सर छह महीने “। सी.एस. अपने ह्यूमर के लिये प्रसिद्ध थे , कहने लगे उमरिया-उमरिया तो ऐसा कह रहे थे जैसे उमरिया में पूरी उमरिया बिता कर आये हों ।

मुझे इससे जुड़ा एक पुराना क़िस्सा और याद आ रहा है । बात तब की है जब मैं इंदौर में अपर कलेक्टर के रूप में पदस्थ था । इंदौर में ही धर्मेंद्र सिंह पदस्थ थे जो मुझसे एक बैच जूनियर थे । उनकी भी यही प्रसिद्धि थी कि वे इंदौर में ही बने रहते हैं । इस बार वे शाजापुर कुछ बरस रह कर वापस लौटे थे और शाजापुर में पदस्थापना के दौरान उन्हें इंदौर का सरकारी आवास छोड़ना पड़ा था । एक दिन वे मेरे पास लंच टाइम में आये , और मुझसे कहने लगे सर रेडियो कालोनी में फ़लाँ सरकारी मकान ख़ाली है पर कमिश्नर साहब मुझे मकान आवंटित नहीं कर रहे हैं , सुना है वे आपके पुराने परिचित हैं कृपया मेरी सिफ़ारिश कर दें । धर्मेंद्र सिंह मेरे सहकर्मी तो थे ही , पर उज्जैन में मेरे कमिश्नर रहे नन्हें सिंह साहब के साले भी थे , इस नाते मेरा उनके प्रति एक सॉफ्ट कॉर्नर था । मैंने कहा ठीक है मैं कोशिश करूँगा । अगले ही दिन मैं मोतीबंगले स्थित संभागीय मुख्यालय पहुँच गया । लंच टाइम होने वाला था , मैंने कमिश्नर के दरवाज़े पर तैनात बंदे से कहा साहब को बता दो कि मैं मिलना चाहता हूँ । चपरासी महोदय अंदर गये ही थे कि कमिश्नर साहब दरवाज़े से निकल कर बाहर आ गये और बोले लंच टाइम हो गया है , खाना खाने घर जा रहा हूँ चलो रास्ते में गाड़ी में बात कर लेंगे । मैं साथ चल दिया , कार मैं बैठने के बाद प्रभात पराशर साहब ने मुझसे कहा बताओ क्या बात है ? मैंने आने का कारण बताया और कहा “ सर धर्मेंद्र सिंह को मकान आवंटित कर दें “ । पाराशर साहब बोले “यार वो तो इंदौर ही बना रहता है “। पाराशर जी मेरे कलेक्टर रह चुके थे और मुझ पर स्नेह भी रखते थे ।

मैंने सहज भाव में कहा “सर धर्मेंद्र स्थानातंरण आदेश में अपने हस्ताक्षर ख़ुद ही कर लेता होगा “। कमिश्नर साहब मुझे देखने लगे , मैंने आगे कहा “ सर जिस हस्ताक्षर से आप और मैं इंदौर पदस्थ हुए हैं , उसी हस्ताक्षर से धर्मेंद्र भी इंदौर पदस्थ हुआ है , तो मेरी राय है मकान दे दिया जाना चाहिए । “ कमिश्नर साहब मेरे इस विचित्र तर्क पर हँसने लगे और कहा चल दिया उसको मकान । अगले हफ़्ते शाम को मैं धर्मेंद्र के साथ उसके सरकारी मकान पर शाम को चाय पी रहा था।